देश के सैनिकों की ‘मन की बात’
भारत की सेना की शानदार परंपरा रही है और इस शानदार परंपरा को हमारे वीर देशभक्त सैनिकों ने भूखे रहकर भी निभाने का हरसंभव प्रयास किया है। उन्होंने देश के दर्द को अपने प्राणों से भी अधिक प्राथमिकता दी है, और देश के दर्द के निवारण के लिए अपने अनेकों बलिदान दिये हैं। अपने दर्द को सुनाने के लिए सब स्वतंत्र हैं, तब यही बात हमारे देश के सैनिकों पर भी लागू होती है कि वे अपने दर्द को बता सकें। उन्हें भी देश के संवैधानिक अधिकार हैं कि वे अपने दर्द को बता सकें और अपनी निजता को सुरक्षित रख सकें। लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता ही ये होती है कि यह व्यक्ति की निजता का सम्मान करता है और उसे संरक्षा और सुरक्षा प्रदान करता है। यदि लोकतंत्र में किसी व्यक्ति की निजता कहीं पर भी आहत होती है तो मानना पड़ेगा कि लोकतंत्र उसकी निजता की रक्षा करने में असफल रहा है।
आजकल सोशल मीडिया के माध्यम से हमारे सैनिकों ने अपने ‘मन की बात’ कहने का साहस किया है, यह कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि जिस देश का प्रधानमंत्री अपने ‘मन की बात’ कहने-सुनने में विश्वास करता है, उसी देश का सेनापति अपने सैनिकों से कह देता है कि ‘मन की बात’ नही कहनी है और यदि कहा तो दण्ड के लिए तैयार रहो।
देश की सेना के विषय में एक सैनिक ने कहा है कि उन्हें ‘बड़े साहबों’ के घरों पर नौकरों की तरह रखा जाता है और उनसे वे सारे कार्य कराये जाते हैं जो एक नौकर करता है। वास्तव में यह परंपरा अंग्रेजों के काल की है, जब अंग्रेज हमारे सैनिकों को अपने घर पर ‘मैम साहिबा’ की सेवा के लिए छोड़ दिया करते थे और मैम साहिबा एक महारानी की तरह उन देशी सैनिकों पर रौब झाड़ती थीं और उनसे नौकर के रूप में कार्य लेती थीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इस सामंती और पूर्णत: अन्यायपरक परंपरा के समाप्त किये जाने की आवश्यकता थी। जब देश में दलित, शोषित और उपेक्षित समाज के लोगों को आगे लाने की बातें बड़े जोर शोर से की जा रही थीं, तब भी किसी नेता का ध्यान अपनी सेना की ओर नहीं गया कि वहां भी राजतंत्रीय शोषण और सामंती परंपराओं का क्रम निरंतर जारी है और यदि समाज में व्याप्त, दलन शोषण व उत्पीडऩ को तुम समाप्त करना चाहते हो तो इसे सेना से भी समाप्त करना होगा। अंतत: सेना में जो लोग जाते हैं उन्हें पहले दिन ही अपने देश पर बलिदान हो जाने तक का पता होता है कि देश की सीमा पर जाने का अभिप्राय देश के लिए बलिदान देना भी हो सकता है, पर उन्हें यह पता नहीं होता कि वहां जाने के पश्चात किसी आधुनिक मेम की जूतियों पर पॉलिश करनी पड़ेगी। यदि उन्हें ऐसा पता हो जाए तो कितने ही स्वाभिमानी नौजवान सेना में जाने के लिए मना कर देंगे। हमारे देश के सेनापति और देश के नायकों को पता होना चाहिए कि देश की सेना में जाने का अभिप्राय स्वाभिमान का सौदा करना नहीं है, अपितु स्वाभिमान की रक्षा करते-करते देश के स्वाभिमान के लिए बलिदान हो जाना है। इसलिए देश के सैनिकों के सम्मान को यदि हमारे सेना में किसी प्रकार की चोट पहुंचायी जा रही है तो यह उचित नहीं है।
हमारे देश के वर्तमान सेनाध्यक्ष की सूझबूझ पर हमें गर्व है और उनके पराक्रमी स्वभाव को भी यह देश सम्मान के भाव से देखता है, परंतु उनका यह कहना कि सैनिकों ने यदि अपनी ‘मन की बात’ किसी और से सांझा की तो उन्हें दण्ड दिया जाएगा उचित नहीं लगी। अच्छा होता कि वे देश की सेना में मिलने वाले सामंती प्रतीकों, परंपराओं और चिन्हों को समाप्त कराने का संकल्प व्यक्त करते और जिन सैनिकों ने अपनी व्यथा कथा किसी भी माध्यम से व्यक्त की है उन्हें वह साधुवाद देेते। माना जा सकता है कि इस प्रकार देश के अन्य सैनिक भी अपनी बात कहने के लिए उत्साहित होते और तब शिकायतों की एक बाढ़ सी आ जाती, जिससे अनुशासनहीनता फैलती, परंतु असंतोष को सुनना और उसे समाप्त करना ही बड़ों का काम होता है। असंतोष को शक्ति से दबा देने का अर्थ होता है उसे ‘विस्फोट’ के लिए तैयार करना या विवश करना।
हमारे देश के सैनिकों को चाहिए कि वह भी अतिरेक से बचें अपने कष्ट को उठायें पर ऐसा ना लगे कि देश की सेनाओं में रोष है। क्योंकि इससे शत्रु लाभ उठा सकता है, हमें हर स्थिति में ध्यान रखना चाहिए कि हमारी किसी भी गतिविधि से शत्रु लाभान्वित ना हो उसे हर स्थिति परिस्थिति में हमारे आचरण एवं व्यवहार से क्षति ही मिलनी चाहिए। हमारे सैनिकों का आचरण और व्यवहार निश्चय ही सराहनीय रहा है। ऐसे शांत और अनुशासित वीर सैनिकों के ‘मन की बात’ को पीएम मोदी को सुनना समझना चाहिए और देश के शीर्ष सैन्य नेतृत्व के साथ मिलकर ऐसी योजना तैयार करनी चाहिए-जिससे हमारे सैनिकों का आत्म सम्मान सुरक्षित रह सके और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न होने पाये जो हमारे कष्टों के लिए अपने कष्टों को भूल जाते हैं-उनके कष्ट को हम भावशून्य होकर ही देखते रहें, तो ऐसा करना लोकतंत्र का उपहास करना होगा।
के परिवारवालों को भी सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने से बचना चाहिए। सेना में गये जवानों पर उनका अधिकार कम और देश का अधिक होता है, इसलिए उचित होगा कि देश का नेतृत्व अपने सैनिकों के प्रति संवेदनशीलता का प्रदर्शन करे और उनकी समस्याओं का समाधान दे। इसके अतिरिक्त सैनिकों के लिए यह भी उचित होगा कि वे अपने अधिकारियों की सेवाभाव को अपने सम्मान से न जोड़ें, अपितु उसे अपना कत्र्तव्य समझकर निभाएं। इसी से हमारे देश की सेनाओं के गौरवपूर्ण इतिहास की सुरक्षा हो पाना संभव होगा।
मुख्य संपादक, उगता भारत