अखिलेश, राहुल और मुलायम
उत्तर प्रदेश में चुनावी संघर्ष नये-नये रूप दिखा रहा है। ‘महाभारत’ आरंभ हो गया है। किस रथी या महारथी को किस पक्ष से लडऩा है-यह भी पूर्णत: निश्चित हो चुका है। इस दौरान कुछ मनोरंजक दृश्य भी देखने को मिल रहे हैं। सपा के ‘अर्जुन’ बने अखिलेश ने युद्घ आरंभ कर दिया है-पर आज के इस अर्जुन ने अपनी कुर्सी के लिए अपने किसी ‘युधिष्ठिर’ का चयन नहीं किया है। इसका युद्घ अपने लिए है। ‘पितृघात’ करके आज का सपा का अर्जुन अपने लिए लड़ाई लड़ रहा है। पर ‘लडक़ा’ सीधा संघर्ष पहली बार कर रहा है इससे पूर्व की लड़ाई पिता के मार्गदर्शन में लड़ी थी, तब यह पता नहीं चल पाया था कि किस महारथी को वृद्घ पिता के किस तीर ने कैसे निपटा दिया था? अब अपने ऊपर आ पड़ी है-तो पितृघात से घायल पिता की मानसिकता को समझे बिना ही अखिलेश उन्हें चुनावी महाभारत में अपना सारथि बना लेना चाहते हैं। माना कि मुलायम सिंह यादव ने महाभारत और गीता को पढऩे की बजाए बाबर और अकबर को अधिक पढ़ा है-पर उन्हें राजनीति का अनुभव ना हो यह नहीं कहा जा सकता। अंतत: वह नीति निपुण कृष्ण जी महाराज के यदुकुल से है। इसलिए यह भलीभांति जानते हैं कि कौन सा तीर कब चलाना है और किस का काम कब तमाम करना है?
मुलायम सिंह ने अपने ही पुत्र के तीरों से घायल अपने दिल के फफोलों को सहलाते हुए चुनावी समर में उसका सारथी बनने से इंकार कर दिया है। इतना ही नहीं मुलायमसिंह यादव ने अखिलेश और राहुल (दो लडक़ों) की जोड़ी को अनुपयुक्त और अनुचित कहा है। वह नहीं चाहते कि जिस कांग्रेस के हाथों उन्हें अपमानित होना पड़ा उसी के साथ मिलकर चुनावी समर जीता जाए। यही कारण है कि मुलायमसिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में सपा कांग्रेस के चुनावी गठबंधन की हवा निकालने के लिए अपने समर्थकों को ही यह कह दिया है कि वे कांग्रेस के सामने चुनाव लड़ें। इससे कांग्रेस के लिए उन 105 सीटों पर लड़ाई और भी कठिन होने जा रही है जहां से वह चुनाव लड़ रही हैं।
वास्तव में मुलायम सिंह यादव के सामने इस समय अपने लोगों में अपना विश्वास जगाने की बड़ी चुनौती है उन्हें पता नहीं था कि उनके साथ ऐसी स्थिति भी आ जाएगी कि उन्हें यह कहना पड़ जाएगा-
”जो तीर खाकर देखा कमीनगाह की तरफ
तो अपने ही दोस्तों से मुलाकात हो गयी।”
मुलायमसिंह यादव की दृष्टि में कांग्रेस सपा का गठबंधन बेमेल है। यह केवल स्वार्थ पर आधारित है, जिसका चुनावोपरांत चलना कठिन है। कांग्रेस एक डूबता हुआ जहाज है, जिसके साथ जो भी चलेगा वह भी डूब जाएगा। इस डूबते जहाज को कांग्रेस के वयोवृद्घ नेता एसएम कृष्णा ने यह कहकर छोड़ दिया है कि वहां नेताओं की नहीं, अपितु मैनेजरों की आवश्यकता है। वहां सारे लोग एक ऐसे व्यक्ति को नेता बनाने का परिश्रम कर रहे हैं ‘जिसके ना तो हाथ हैं ना पैर हैं और ना दिमाग है। वह लुंज-पुंज है और सारे मैनेजर उसी लुंज-पुंज को अपना नेता बनाने के लिए खून पसीना एक कर रहे हैं।’ फिर भी वह क्या बोल जाए कुछ पता नहीं। ऐसे लुंज-पुंज नेतृत्व के साथ नेताजी की सपा जाकर खड़ी हो तो वह उन्हें कैसे अच्छा लग सकता है?
इस समय अखिलेश के लिए सचमुच एक अच्छे सलाहकार की आवश्यकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्होंने अपने लडक़पन का प्रदर्शन करते हुए अपने पिता को ही उनके पद से हटाकर उनके अनुभवजन्य ज्ञान का लाभ उठाने से इंकार कर दिया। वह जिद पर अड़ गये कि-‘कुर्सी भी मेरी और सत्ता भी मेरी, मैं जैसे चाहूं मेरी मर्जी।’ वास्तव में उनके लिए उचित यही था कि वह पार्टी की अध्यक्षता पिता को सौंप देते। अब वह पिता के घायल दिल के दर्द को समझकर उन्हें अपना सारथी बनाने की सोच रहे हैं तो माना जाना चाहिए कि अब वे समय के चूके गोते खा रहे हैं। उनकी जानकारी के लिए एक प्रसंग का उद्घरण देना चाहता हूं। एक बार कोई विदेशी बादशाह भारत में अकबर बादशाह के यहां शाही मेहमान के रूप में आया हुआ था। बादशाह ने अपने अतिथि का सम्मान करने में कोई कमी नही छोड़ी थी। एक सुबह में बीरबल उस विदेशी बादशाह को किले का भ्रमण करा रहा था। भ्रमण कराते-कराते जब बीरबल विदेशी बादशाह के साथ अकबर के स्नानागार की ओर आये तो बादशाह अकबर उस समय नहाकर इत्र लगा रहे थे। उनके हाथ से इत्र की दो चार बूंद धरती पर गिर गयीं। बादशाह जिस समय धरती पर गिरी उन बूंदों को उठा रहे थे, उसी समय बीरबल और वह विदेशी बादशाह वहां पहुंच गये। इत्र की उन बूंदों को उठाते हुए विदेशी बादशाह ने अकबर को देख लिया था-जिससे अकबर को बड़ी लज्जा आयी। उसे लगा कि विदेशी बादशाह उसे बड़ा कंजूस समझेगा।
समय बीतता गया, अकबर ने उस विदेशी बादशाह को पुन: अपने यहां आमंत्रित किया। बादशाह आ गया। पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार उसे अगले दिन सुबह बीरबल फिर महल में घुमाने लगे। जब वह बादशाह अकबर के स्नानागार की ओर आया तो वहां बड़े-बड़े कड़ाहों में भरे हुए इत्र में अकबर गोते लगा रहा था। जिसकी ओर संकेत करते हुए बीरबल ने कहा कि ये हमारे बादशाह का स्नानागार है-जिसमें वह इत्र के कड़ाहों में नहाते हैं। तब उस बादशाह ने कहा कि-‘आपका बादशाह नहा नहीं रहा है अपितु समय का चूका हुआ गोते लगा रहा है।’
अखिलेश यादव इस समय समय के चूके हुए गोते लगा रहे हैं। वह जिस ‘लडक़े’ के साथ जाकर खड़े हुए हैं-उस अनुभव शून्य ‘लडक़े’ के लिए उन्होंने अपने घर के आंगन में पिता के रूप में खड़े आम के वृक्ष को सुखा दिया और अब फल पाने के लिए उन खोखले दरखतों से चिपट रहे हैं जो स्वयं फलहीन, बलहीन और कल (बुद्घि) हीन हैं। उनके लिए अच्छा होता कि वे अपने ही ‘आम के वृक्ष’ की छाया में बैठते और उसकी चरण-शरण में रहकर ही कुछ सीखते। सचमुच उन्हें अभी बहुत कुछ सीखना है-उसके लिए उन्हें राहुल की नहीं पिता मुलायम की पाठशाला की आवश्यकता है।
मुख्य संपादक, उगता भारत