गठबंधन नहीं ‘घटिया’ बंधन है ये
भारत का लोकतंत्र बड़े-बड़े अजूबों से भरा है। यहां लोगों को भ्रमित करने के हथकंडे अपनाने वाले राजनीतिज्ञों की कमी नहीं है। कदम-कदम पर ऐसी बारूदी सुरंगें बिछाने की शतरंजी चालों को चलने में हमारे नेता इतने कुशल हैं कि सारे विश्व के राजनीतिज्ञ संभवत: इनसे मात खा जाएंगे। निश्चित रूप से ये बारूदी सुरंगें जनता को धोखा देकर उसे ‘उड़ाने’ के लिए बिछायी जाती हैं। लोकतंत्र के नाम पर यह अलोकतांत्रिक खेल देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही चल रहा है। देश का संविधान कहता है कि देश का प्रधानमंत्री या किसी प्रांत का मुख्यमंत्री वही व्यक्ति बनेगा जो अपने विधानमंडल (लोकसभा या विधानसभा में) बहुमत प्राप्त कर सकेगा। ऐसे बहुमत प्राप्त करने का अर्थ है कि चुने हुए प्रतिनिधि उस व्यक्ति के वर्चस्व और प्रतिभा को स्वभावत: स्वीकार करने वाले हों और उसने देश या किसी प्रदेश की जनता को अपने कार्यों से प्रभावित भी किया हो। ऐसे नेता के चयन के लिए हमारा संविधान कहीं भी किसी ‘चोर रास्ते’ की अनुमति हमें नहीं देता कि सत्ता में भागीदारी करते हुए दलों से गठबंधन करो और एक रूपया बनाने के लिए दस्सी पंजी एकत्र करो। हमारा मानना है कि कई दल जब गठबंधन करते हैं और सत्ता में अपनी भागीदारी निश्चित करते हैं तो वे उस समय दस्सी पंजी मिलाकर ही रूपया बना रहे होते हैं। वे किसी नेता का स्वभावत: वर्चस्व स्वीकार नहीं करते, अपितु इसलिए करते हैं कि वे उसके शासन में अपना हिस्सा निर्धारित कर लेते हैं, इस प्रकार शासन में भागीदारी की यह प्रथा अलोकतांत्रिक भी है और जनता को धोखा देने वाली भी है। अब आप ही बतायें कि जिनकी विचारधारा अलग है और जो पूरे पांच वर्ष अलग-अलग सुर अलापकर अपनी राजनीति करते रहे उनका चुनाव के समय एक साथ आ जाना और सत्ता में अपने-अपने हिस्से तय कर लेना गठबंधन है या ‘घटिया’ बंधन है। यह तो स्वार्थपूर्ण अलोकतांत्रिक और जनता को छलने वाला गठबंधन ही कहा जाएगा।
अब आते हैं उत्तर प्रदेश में सपा कांग्रेस के गठबंधन पर। यह गठबंधन भी घटिया बंधन ही है, इसके मूल में ‘भाजपा भय’ छिपा है जो कि इस समय कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को सबसे अधिक सता रहा है। लगता है कि उन्हें रात में सपने में भी ‘मोदी’ डराते हैं। तभी तो उन्होंने देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को एक जवान पार्टी सपा के सामने इतना झुका दिया है कि आज लज्जा को भी लज्जा आ रही है। कांग्रेस का स्वाभिमान मारे शर्म के मरा जा रहा है। अभी कल तब प्रदेश की बर्बादी के लिए जो कांग्रेस सपा, बसपा और भाजपा को कोस रही थी और ’27 साल-प्रदेश बेहाल’ कहकर अपने आपको सर्वोत्कृष्ट बता रही थी-उसी ने आज अपने आपको और पांच वर्ष के लिए पीछे हटा लिया है। इस पार्टी के मनोबल का तो इस बात से ही पता चल जाता है कि इसे सबसे पहले रीता बहुगुणा ने छोड़ा क्योंकि उन्हें पता था कि पार्टी का मनोबल टूटा हुआ है और पार्टी का ‘नेता’ पार्टी को सही दिशा देने में अक्षम है। उसके पश्चात कांग्रेस की वरिष्ठ नेता शीला दीक्षित ने भी भांप लिया कि उन्हें भी बेकार में ही बलि का बकरा बनाया जा रहा है, तो वह भी धीरे से किनारा कर गयीं और स्पष्ट कह दिया कि पार्टी इस बार का चुनाव अखिलेश यादव के नेतृत्व में लड़ेगी। शीला दीक्षित का यह वक्तव्य कांग्रेस के लिए शर्मनाक माना जाना चाहिए। क्योंकि अखिलेश कांग्रेस के नेता नहीं हैं, वह सपा के नेता हैं और कांग्रेस उनसे गठबंधन कर रही है ना कि उनमें अपना अस्तित्व मिला रही है। इसके बाद आते हैं गांधी परिवार पर जिस पर वह पार्टी पूर्णत: आश्रित है। कुल मिलाकर कांग्रेसी इस समय अपनी स्टार प्रचारक प्रियंका बढ़ेरा को मान रहे थे। परंतु उन्होंने भी हार मान ली और बहाना बनाया कि मां सोनिया की तबियत ठीक ना होने के कारण वह इस बार उत्तर प्रदेश के चुनावों से दूर रहेंगी। हां, उन्होंने राहुल गांधी के लोक सभाई क्षेत्र में जाने की बात अवश्य कही। अब उन्हें कौन समझाये कि सारा उत्तर प्रदेश रायबरेली ही नही है, उससे अलग भी प्रदेश है और आपको प्रियंका जी सारे प्रदेश में घूमना चाहिए। रायबरेली और अमेठी को तो आप अपना मानकर छोड़ दें, पर प्रदेश को ना छोड़ें। कुल मिलाकर प्रियंका का यह पलायन पार्टी कार्यकर्ताओं को हिला गया। यद्यपि राहुल गांधी ने अपने कार्यकत्र्ताओं को मोदी से न डरने के लिए पर्याप्त ढंग से प्रेरित किया, परंतु उनके भाषण का उनके कार्यकत्र्ताओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उल्टे जैसे राहुल गांधी ने सपा के अखिलेश की शर्तों पर झुककर और उनके सामने घुटने टेककर समझौता किया है उसका संकेत लोगों में ऐसा गया है कि जैसे राहुल गांधी स्वयं ही मोदी से डर रहे हैं।
बात 1857 की है, जब अंग्रेजों के सामने बहादुरशाह जफर दिल्ली के बादशाह की हैसियत से लडऩे की कसमें खा रहा था और कह रहा था-
गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की।
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की।।
निश्चित रूप से बहादुरशाह जफर का यह जोश प्रशंसनीय था। इसी जोश की तर्ज पर राहुल गांधी भी कुछ समय पहले कह रहे थे कि ’27 साल-यूपी बेहाल’-तो उनका यह कहना लोगों को अच्छा लग रहा था। 1857 में बहादुरशाह जफर ने जब देखा कि अंग्रेजों के सामने उसकी कुछ भी औकात नहीं है, तो अपने सैनिकों की बिछी लाशों को देखकर बहादुरशाह जफर ने दोपहर तक ही अपनी बात से पलटी खाते हुए कह दिया था-
दमदमे में दम नहीं अब खैर मांगू जान की
बस जफर अब हो चुकी शमशीर हिन्दुस्तान की
कुल मिलाकर यही हाल राहुल गांधी का हुआ है। जिन्होंने भरी दोपहरी में ही कह दिया है कि-‘दमदमे में दम नहीं खैर मांगू जान की…।’ अपने ही पिता से जंग जीतकर फूलकर कुप्पा हुए अखिलेश के लिए कांग्रेस का यह आत्म समर्पण आनंददायक है। इसलिए उन्होंने कांग्रेस को अपनी शर्तों पर आत्म समर्पण के लिए विवश कर उसे केवल 105 सीटें ही दी हैं। उन्हें नहीं पता कि जब किसी के स्वाभिमान को अधिक झुकाया जाता है तो प्रतिक्रिया में प्रतिरोध उत्पन्न होता है। कांग्रेसी अपने स्वाभिमान को जिस दिन समझ लेंगे उस दिन यह ‘घटियाबंधन’ टूट जाएगा, और तब वहां से प्रतिशोध, प्रतिरोध, विरोध और क्रोध की चतुरंगिणी सेना निकलकर अपना रण स्वयं सजाएगी। हो सकता है उसी रण से हम एक नयी कांग्रेस का जन्म होते देखेंगे।
मुख्य संपादक, उगता भारत