समान नागरिक संहिता और हमारा संविधान
अब जब हम अपने देश का 68वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं तो हमें कुछ सोचना होगा, कुछ समझना होगा। कुछ विचार करना होगा कि देश अपने गंतव्य की ओर आगे न बढक़र किधर चला गया, और क्यों चला गया? चिंतन के पश्चात आपका यही निष्कर्ष निकलेगा कि युग-युगों से अपने सनातन धर्म के आलोक में अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहा भव्य भारत तो निश्चय ही महान है क्योंकि वह वेद की बात करता है और वेद से ऊर्जा लेता है, वह उपनिषदों का उपासक है और उनसे अध्यात्म की ज्योति जलाकर अपने मंतव्य और ध्यातव्य को पहचानता है, वह स्मृतियों और पुराणों से अपने अतीत को जानता है, समझता है और सारी धरती के समस्त प्राणियों को उससे ऊर्जान्वित करने का संकल्प लेता है। पर इतना सब कुछ होते हुए भी इस भारत के नेता महान नहीं रहे, क्योंकि उन्होंने निजता के लिए युग-युगों से समर्पित रहे भारत की निजता को ही पहचानने से मना कर दिया। उन्होंने भारत को वेदों के माध्यम से, उपनिषदों के माध्यम से, स्मृतियों-पुराणों, रामायण, महाभारत और गीता के माध्यम से जानने से मना कर दिया। उन्होंने भारत की निजता का सौदा किया और इसे महर्षि पतंजलि, महर्षि कणाद, गौतम, कपिल, याज्ञवल्क्य के देश के रूप में जानने को ‘पाप’ मानना आरंभ कर दिया, उन्होंने इस पावन देश को ‘विश्वगुरू’ के रूप में स्थापित करने का संकल्प लेकर भी उसे भुला दिया। इतना ही नहीं अपने प्यारे भारत को मनु, मान्धाता, युधिष्ठिर और चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर पृथ्वीराज चौहान जैसे आर्य राजाओं और हिंदू सम्राटों की अत्यंत लंबी श्रंखला वाला देश न मानकर अकबर और बहादुरशाह जफर की काल्पनिक ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ के देश के रूप में जानने समझने की मूर्खता करनी आरंभ कर दी। फलस्वरूप देश का युवा भटक गया, उसे उधारे मूल्य और उधारी मनीषा बोध के बोझ से दबाकर मारने की पूरी तैयारी की गयी।
इस गणतंत्र दिवस पर यही बात विचारने की है कि हम बोझ से टूटे क्यों जा रहे हैं? हम अपने ही गौरवमयी अतीत से टूटे क्यों जा रहे हैं और हम अपने ही लोगों द्वारा लूटे क्यों जा रहे हैं?
कुछ लोगों का मानना है कि हमारा संविधान ही उधारा है। संसार का सबसे बड़ा संविधान हमारा है पर इसमें अधिकांश प्राविधान विदेशी संविधानों से लिए गये हैं। इसमें भारत की आत्मा का पुट नहीं है। इसमें कहीं अमेरिका का दिल धडक़ता है, तो कहीं ब्रिटेन का, कहीं स्विटजरलैंड का तो कहीं आस्टे्रलिया और रूस का दिल धडक़ता है। जिसके दिल की धडक़न ही विदेशी हो उसे अपना कैसे कहा जाए?
मित्रो! आज का दिन अपने संविधान की समीक्षा का दिन है, उसकी पड़ताल का दिन है। उसे समीक्षित और पुन:परीक्षित करने का दिन है। हम आलोचना के लिए आलोचना ना करें, अपितु सत्यान्वेषी बुद्घि का परिचय देते हुए शुद्घ हृदय से इसकी पड़ताल करें कि अंतत: ऐसे क्या कारण रहे जो यह संविधान हमें अपने गंतव्य की ओर न ले जा सका? पड़ताल करने पर पता चलता है कि इस संविधान में पर्याप्त दोष हेाते हुए भी कुछ ऐसे गुण भी हैं कि जिनकी ओर हमारा ध्यान जाना तो अपेक्षित था पर हमने जानबूझकर उनकी ओर ध्यान नहीं दिया और देश को विपरीत दिशा में बढ़ाते ले गये। यदि उन गुणों की ओर ध्यान दिया जाता तो निश्चय ही हम अपने इसी संविधान के अंतर्गत ही अपने देश की कई समस्याओं का समाधान खोज लेते और देश को अभीष्ट दिशा में आगे बढ़ाकर ले चलने में भी सफल हो जाते। उदाहरण के रूप में हमारा यही संविधान हमें बताता है कि भारतवर्ष में समान नागरिक संहिता लागू होगी। साथ ही कानून के सामने सभी लोग समान होंगे। संविधान का यह प्राविधान पूर्णत: न्याय संगत है और कदाचित इसी प्राविधान से भारत की पंथनिरपेक्षता और इसके लोकतांत्रिक स्वरूप की रक्षा हो पाना भी संभव है। हमने अतीत में विदेशी शासकों के शासन के अधीन यह देख लिया था कि उनके शासन में दोहरे कानून रहते थे। मुगलकाल में इस्लाम के मानने वालों के लिए कानून अलग था तो भारत के हिंदुओं के लिए अलग कानून था, यही ब्रिटिश काल में हुआ। तब अंग्रेजों के लिए कानून अलग था तो भारतीयों के लिए अलग था। भारत के संविधान निर्माताओं ने देखा कि यदि हमने देश में इस दोहरे कानून को लागू किये रखने की मूर्खता की तो देश का अहित होगा। सामाजिक विसंगतियां इससे बढेंगी और लोग एक दूसरे के निकट ना आकर दूर भागेंगे। इसलिए उन्होंने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का प्राविधान किया। दुर्भाग्यवश जिसे हमारे नेताओं ने वोटों की राजनीति के चलते पूर्ण मनोयोग से लागू नहीं किया। संविधान के जिस प्राविधान संविधान की ओर पंथनिरपेक्षता की रक्षा हो पाना संभव था उसे ही पंथनिरपेक्षता के नाम पर देश में लागू नहीं किया गया।
वास्तव में समान नागरिक संहिता पर देश के बहुसंख्यक हिन्दू को आपत्ति होनी चाहिए थी। उसे कहना चाहिए था कि अब देश आजाद हो गया है तो इस देश में हमारा कानून चलेगा पर उसने ऐसा नहीं किया और संवैधानिक मर्यादा का पालन करते हुए प्रचलित संविधान के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा व्यक्त की। उसने अपना निजी कानून देश में लागू कराने की इच्छा तक भी व्यक्त नहीं की। यह उसकी महानता रही। पर नेताओं ने देश में अल्पसंख्यकों के कानून को मान्यता दिये रखने की मूर्खता की। जिससे जो विषय निजी होना चाहिए था अर्थात मजहब, वह देश पर और देश के कानून पर हावी होने लगा, और जो इस निजी विषय अर्थात मजहब पर हावी होने चाहिए था अर्थात देश का संविधान, वह व्यक्ति की निजी इच्छा पर निर्भर हो गया कि उसे माना जाए या ना माना जाए। बस, यही वह पेंच है जो इस देश की वर्तमान समस्याओं का मूल कारण है। आज हमें इस पेंच को निकालने के लिए और आगे बढऩे के लिए प्रतिज्ञा करनी होगी। देश के संविधान की आत्मा देश का पंथनिरपेक्ष स्वरूप है और उस आत्मा की भी मूल आत्मा समान नागरिक संहिता है। जब तक हम इस मूल आत्मा के मौलिक स्वरूप को नहीं पहचानेंगे तब तक अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर पाएंगे।