महर्षि दयानंद की 200 की जयंती के अवसर पर विशेष – तेजस्वी राष्ट्रवाद के समर्थक और समाज सुधारक थे स्वामी दयानंद
समाज सुधारक के रूप में ऋषि दयानंद
महर्षि दयानंद जी महाराज ने अपने समय में प्रचलित बाल विवाह जैसी अनेक कुरीतियों का डटकर विरोध किया। उन्होंने लोगों को शास्त्रों के माध्यम से बाल विवाह जैसी कुप्रथा के विरुद्ध जागृत करने का कार्य किया । उन्होंने लोगों को बताया कि 25 वर्ष की अवस्था से पूर्व ब्रह्मचर्य का नाश करना जीवन और जगत के व्यवहार को बाधित करना होता है। बाल विवाह होने से मनुष्य दुर्बल होता है और समय पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाती है। इस प्रकार स्वामी जी महाराज ने उस समय समाज में प्रचलित सती प्रथा का भी विरोध किया। उन्होंने सती प्रथा को नारी जाति पर पुरुष समाज का भयंकर अत्याचार बताया और यह कहकर उसका विरोध किया कि :-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। मनुस्मृति ३/५६ ।।
अर्थात जहां स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां स्त्रियों की पूजा नहीं होती, उनका सम्मान नहीं होता वहां किए गए समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं ।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने लोगों को समझाया कि सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा को समाप्त किया जाए और नारी के साथ सम्मान और प्रेम का व्यवहार किया जाए । इसी प्रकार स्वामी जी महाराज ने विधवा विवाह पर भी अपने स्पष्ट विचार रखे और लोगों को विधवा विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। उस समय विधवाओं को बहुत ही उपेक्षा और तिरस्कार के भाव से देखा जाता था । उनकी स्थिति बड़ी दयनीय होती थी।
किसी भी शुभ कार्य में उनका उपस्थित होना अपशकुन माना जाता था। स्वामी जी महाराज ने नारी जाति पर हो रहे इस प्रकार के अत्याचारों का डटकर विरोध किया और नारी को उसका समुचित स्थान दिलाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
स्वामी दयानंद जी महाराज संपूर्ण मानव जाति के लिए एक देव – एक देश, एक भाषा – एक वेश, के प्रचारक थे । संप्रदाय के आधार पर फैले मत मतांतरों को वह मनुष्य की सामाजिक जागृति और आध्यात्मिक उन्नति में बाधक मानते थे। इसके लिए उन्होंने वेद को एक धर्म ग्रंथ के रूप में और वैदिक संस्कृति को संपूर्ण मानव समाज की रीति नीति के व्यवहार के रूप में मनाने के लिए प्रेरित किया । उन्होंने संपूर्ण मानव जाति का एक देव अर्थात परमपिता परमेश्वर जिसका नाम ओ३म है, को स्वीकार करने पर बल दिया।
तेजस्वी राष्ट्रवाद के समर्थक दयानंद जी महाराज
स्वामी जी महाराज शस्त्र और शास्त्र के उपासक थे। वे दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करने के हिमायती थे। अपने राष्ट्रीय हितों के प्रति समर्पित होकर जीवन जीने के लिए लोगों को प्रेरित करते थे। वे वैदिक धर्म ध्वजा के नीचे संपूर्ण मानवता को लाकर कृण्वंतो विश्वमार्यम् और वसुधैव कुटुंबकम का संदेश लेकर चलते थे। उन्होंने भारत की व्यवस्था के वैज्ञानिक पक्ष को लोगों के सामने प्रस्तुत किया और लोगों को बताया कि कोई भी व्यक्ति जन्म से किसी जाति में पैदा नहीं होता । जाति व्यवस्था के वह विरोधी थे, पर वर्ण व्यवस्था के पोषक थे।
उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त अस्पृश्यता के विरुद्ध आंदोलन किया और हरिजन समाज पर हो रहे अत्याचारों को मानवता के विरुद्ध अपराध बताया। स्वामी जी महाराज ने लोगों में जागृति पैदा कर अपने सभी भाइयों को गले लगाकर चलने का आह्वान किया। स्वामी दयानंद जी महाराज की इस वैज्ञानिक सच्चाई का डॉ अंबेडकर जैसे लोगों ने भी सम्मान किया। स्वामी जी ने मनुस्मृति के भीतर एक वर्ग द्वारा डाले गए उन श्लोकों को भी अवैज्ञानिक, वेद विरुद्ध और अतार्किक बताया जो किसी समाज विशेष या नारी जाति पर अत्याचार करने के लिए डाल दिए गए थे।
स्वामी जी ने सदैव नारी शक्ति का समर्थन किया । उन्होंने नारी को वेद पढ़ने का अधिकार दिया और उन्हें फिर से गार्गी, मैत्रेयी, घोषा जैसी विदुषी बनने का मार्गदर्शन किया। नारी जाति को बराबरी का अधिकार देने वाले प्रथम महापुरुष स्वामी आनंद जी महाराज ही थे।
किया ईश्वर के बारे में व्याप्त भ्रांतियों का खंडन
ईश्वर के नाम पर महर्षि दयानंद जी के काल में या उनसे पूर्व या उनके बाद जो भी अत्याचार होते रहे हैं या विभिन्न संप्रदायों के लोग अपनी शासन सत्ता स्थापित करने के लिए या दूसरे मत, पंथ या संप्रदाय के लोगों का विनाश करके उनके माल को लूटने के सपने संजोते रहे हैं, उन्होंने यह धारणा भी विकसित की है कि वह ऐसा सब कुछ ईश्वर, खुदा अल्लाह या गॉड के नाम पर कर रहे हैं। इसलिए वह निहायत दयावान मेहरबान ईश्वर उनके पापों को क्षमा कर देगा। उन सबकी इस प्रकार की वाहियात बातों का खंडन स्वामी दयानंद जी महाराज ने डटकर किया था। इतिहास की इस मूर्खतापूर्ण संप्रदायिक अवधारणा ने भी संसार में अनेक प्रकार के पापाचरण को बढ़ावा दिया। लोगों ने एक दूसरे के मत, पंथ अथवा संप्रदाय के लोगों पर अत्याचारों का कहर बरपा दिया और जाकर अपने अपने धर्म स्थलों में अपने ईश्वर खुदा या गॉड से यह दुआ मांगी कि उन्होंने यह सब कुछ तेरे नाम पर किया है, इसलिए यदि हमने कोई गुनाह किया है तो वह माफ हो।
इस प्रकार सृष्टि के सिरजनहार के नाम पर ही उसके सृजन को विध्वंस में बदलने की इन घटनाओं को भी लोगों ने बहुत हल्के में लिया। कुल मिलाकर संसार के लिए संसार के लोगों का ही ईश्वर, खुदा या कहर कहर बरपाने वाला बन गया।
फलस्वरूप लोगों को ईश्वर, खुदा या गॉड से नफरत हो गई। जिससे नास्तिकवाद को तेजी से प्रसारित होने का अवसर मिला। लोगों ने यहां तक कहना आरंभ कर दिया कि :-
खुदा के बंदों को देखकर ही खुदा से मुनकिर हुई है दुनिया,
ऐसे बंदे हैं जिस खुदा के वह कोई अच्छा खुदा नहीं है ।।
स्वामी दयानंद जी महाराज जैसे फौलादी व्यक्तित्व ने इस प्रकार के सारे पापाचारण का भी विरोध किया और जिन लोगों ने इस प्रकार के विचारों को फैलाने का काम किया था उन्हें मजबूती के साथ खड़े होकर चुनौती देते हुए उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारा।
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी महाराज
वर्ष 1875 में स्वामी दयानंद जी महाराज ने वैदिक सृष्टि संवत के शुभ अवसर पर मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। लाहौर में आर्य समाज के नियमों की घोषणा की गई। आर्य समाज ने वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार को अपना लक्ष्य बनाया। इसके साथ-साथ देश में देश – काल- परिस्थिति के अनुसार छाई हुई अहिंसावाद की कायरता को मिटाने का भी कार्य करना आरंभ किया। वीर हकीकत राय जैसे अनेक क्रांतिकारी धर्मवीरों को खोज खोजकर आर्य समाज ने निकालना आरंभ किया और उनका सही इतिहास बताकर लोगों में वीरता के भावों का संचार किया।
संध्या की संध्या न होने पाए, इसके लिए आवश्यक है कि वीरों के तेज का सूर्य सदा चमकता रहे। इस बात को दृष्टिगत रखकर आर्य समाज के अनेक दीवाने देश – धर्म पर बलिदान देने के लिए दल के दल सजाकर निकल पड़े। यही कारण था कि स्वामी दयानंद जी महाराज के विचारों का प्रभाव भारत के क्रांतिकारी कारी आंदोलन पर विशेष रूप से पड़ा। श्यामजी कृष्ण वर्मा, रासबिहारी बोस, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सावरकर जी, लाला हरदयाल और भाई परमानंद जैसे अनेक क्रांतिकारी स्वामी दयानंद जी की विचारधारा से प्रेरित होकर और सत्यार्थ प्रकाश में आए स्वराज्य शब्द से प्रेरणा लेकर मां भारती को स्वाधीन कराने के लिए रण क्षेत्र में उतर पड़े। गुरुकुल कांगड़ी को उस समय अंग्रेज क्रांतिकारियों की फैक्ट्री कहने लगे थे। क्योंकि इस शिक्षा केंद्र से अनेक क्रांतिकारी परमाणु बम के रूप में बाहर निकले और देश में क्रांति की हलचल को तेज करने में उन्होंने अपने जीवन खपा दिए। स्वामी जी महाराज की तर्क तोप के आगे ईसाइयों के पादरियों और मुसलमानों के मौलवियों की बोलती बंद हो जाती थी। उन्होंने अनेक पौराणिक पंडितों को भी पराजित किया, जो लोगों की धार्मिक भावनाओं का लाभ उठाकर किसी न किसी प्रकार से उन्हें भ्रमित करते थे या पाखंड में फंसाते थे।
वैदिक प्रचार के उद्देश्य से स्वामी जी देश में चारों ओर घूम घूम कर व्याख्यान देते थे। केशव चंद्र सेन जी के कहने पर इन्होंने सत्यार्थ प्रकाश को हिंदी में लिखा। इस प्रकार हिंदी आंदोलन को मजबूती देने में भी स्वामी जी का विशेष योगदान रहा। अपनी मूल भाषा गुजराती होने के उपरांत भी इन्होंने संस्कृत और हिंदी के प्रचार-प्रसार पर विशेष बल दिया। देश में भाषाई वितंडावाद को समाप्त करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर स्वामी जी ने ऐसा किया था। आगे चलकर स्वामी जी की इस प्रकार की राष्ट्रवादी सोच और पहल के बड़े अच्छे फल देखने को मिले। लोगों ने सहर्ष हिंदी को अपनाना आरंभ किया। केशव चंद्र जी के कहने पर ही स्वामी जी महाराज ने अपने व्याख्यानों को भी हिंदी में देना आरंभ किया। 1862 ई0 तक स्वामी जी महाराज अपनी गुजराती भाषा में ही लोगों से संवाद करते थे। पर इसके पश्चात उन्होंने हिंदी में बोलना, लिखना और व्याख्यान देना आरंभ किया। उनके पश्चात आर्य समाज ने भी हिंदी आंदोलन को मजबूती देने का काम निरंतर किया। आर्य समाज ने हिंदी को भारत की राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर देखने के लिए लोगों को प्रेरित किया।
इस प्रकार स्वामी जी महाराज ने अनेक प्रकार के पाखंड और अंधविश्वासों का विरोध किया और समाज को सुधारने के लिए हर संभव प्रयास किया। उन्होंने हरिद्वार में पाखंड खंडिनी स्थापित कर उन लोगों को खुलेआम चुनौती दी जो किसी भी प्रकार से वैदिक सिद्धांतों के विपरीत आचरण करते हुए लोगों को भ्रमित करते थे। काशी शास्त्रार्थ कर वहां पर भी स्वामी जी महाराज ने पाखंडियों को करारी शिकस्त दी थी। स्वामी जी महाराज ने राजनीति में मनुस्मृति को आधार बनाकर राजधर्म का पाठ राजनीतिक लोगों को पढ़ाया। सत्यार्थ प्रकाश में भी उन्होंने मनुस्मृति के राजनीति संबंधी अनेक श्लोकों को स्थान देकर देश के लोगों को यह संदेश दिया कि देश की राजनीति को मनुस्मृति के संविधान के अनुसार ही चलाया जाना चाहिए। यदि उनके अनुसार भारत का संविधान बनता तो निश्चित रूप से मनुस्मृति को इसका आधार बनाया जाता।
स्वामी जी का लेखन कार्य
स्वामी जी द्वारा सत्यार्थ प्रकाश 1874, पाखण्ड खंडन 1866, वेद भाष्य भूमिका 1876, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका 1877, अद्वैत मत का खंडन 1873, पंचमहायज्ञ विधि 1875,वल्लभाचार्य मत का खंडन 1875, स्वामी जी महाराज के विशेष ग्रंथ हैं। यजुर्वेद भाष्य, चतुर्वेद विषय सूची, संस्कार विधि, आर्याभिविनय ,गोकरुणानिधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला, भ्रांति निवारण, अष्टाध्यायीभाष्य, वेदांग प्रकाश, संस्कृत वाक्य प्रबोध और व्यवहारभानु जैसी पुस्तकें लिखकर स्वामी जी महाराज ने आर्य संस्कृति का प्रचार प्रसार किया।
स्वामी जी के बारे में विद्वानों के मत
स्वामी दयानंद सरस्वती के योगदान और उनके विषय में विद्वानों के अनेक मत थे । डॉ भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानंद जी महाराज हिंदू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
श्रीमती एनी बेसेंट का कहना था कि स्वामी दयानंद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आर्यवर्त्त अर्थात भारत भारतीयों के लिए – की घोषणा की।
सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतंत्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानंद जी महाराज ने डाली थी। पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गांधीजी राष्ट्रपिता हैं तो स्वामी जी राष्ट्रपितामह हैं। फ्रेंच लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानंद राष्ट्रीय भावना और जनजागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे। स्वामी दयानंद जी महाराज के विषय में वैदिक राष्ट्र का यह मंतव्य उचित ही प्रतीत होता है कि अस्मिताबोध और आत्मबोध की चेतना को आत्मसात करने वाले उदारचेता महर्षि दयानंद सरस्वती तो हमारी आर्य सनातन वैदिक संस्कृति के जाजवल्यमान ज्योति पुंज हैं। वे भारतीय गुरु परंपरा में शिलाधर्मी गुरु नहीं थे बल्कि आकाश धर्मी गुरु थे। जिनकी आर्य सनातन साधना तथा अमृत संदीप्त आलोक की अनंत आभा मानसरोवर में खिले कमल जैसी शुभ्र शोभन है। इन्होंने अपने अप्रतिम गत्यात्मक व्यक्तित्व से भारत की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक एकता अखंडता के अभिनव अभियान का अध्याय खोला था। इनका सुकोमल शांत मधुर व्यक्तित्व राष्ट्र की बलिवेदी पर अर्पित दिव्य सुगंधित सुमन था। इन्होंने भयभीत मानवता को संवारने के लिए पीड़ाओं का विषपान शंकर की भांति किया है तथा हताशप्राय, विषण्ण, विमूर्छित मानव के लिए अमृत कलश छोड़ दिया है। उन्हें जीवन में कभी सुखोपभोग नहीं प्राप्त हुआ, फिर भी इन्होंने जो अभिजात संस्कार एवं वैदिक साधना का सरसिज खिलाया ,वह अपने शाश्वत एवं सारस्वत सौरभ से दिग दिगंत को परिपूरित करता है।’
स्वामी दयानंद जी महाराज जिस प्रकार देश के लोगों के भीतर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध क्रांति के भावों का बीजारोपण कर रहे थे, उसके चलते ब्रिटिश सारकर उनके विरुद्ध हो गई थी। स्वामी जी जो कुछ भी बोलते थे उसे देश के लोग सुनते ही नहीं थे अपितु उसके अनुसार आचरण भी करते थे। जिसके कारण देश में सर्वत्र युवा एक ऐसी मचलन का शिकार हो गए थे जो अंग्रेजों को 1857 की क्रांति के फिर से होने की आहट देती थी, और उन्हें चैन की नींद नहीं सोने देती थी। अंग्रेज देश के लोगों को जितना ही दबाना चाहते थे लोग उतने ही अधिक उनके विरुद्ध होते जाते थे। यही कारण था कि अंग्रेजों ने स्वामी जी महाराज पर निगरानी रखनी आरंभ कर दी थी।अंग्रेज हकूमत स्वामी जी महाराज के पीछे पड़ गई थी और उनकी हत्या के षडयंत्र में लग गई थी ।
स्वामी जी का अंतिम समय
स्वामी जी महाराज ने अपने समय में जिस प्रकार सत्याचरण पर बल देते हुए और राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए काम करते हुए अनेक लोगों को अपना शत्रु बनाया था वह सब उनके प्राण लेने की योजनाओं में लगे रहते थे। अंग्रेज सरकार उन्हें अपना सबसे बड़ा शत्रु मानती थी, क्योंकि स्वामी जी ने देश के लोगों को स्वाधीनता के लिए खड़े होने की प्रेरणा दी थी। मुसलमान और ईसाई धर्म गुरु भी उन्हें इसलिए अपना शत्रु मानते थे क्योंकि उनके रहते हिंदुओं के धर्मांतरण का कार्य पूरी तरह रुक गया था। जिससे मुस्लिम और ईसाई धर्म गुरुओं की दाल नहीं गल रही थी। । इसके अतिरिक्त अनेक पौराणिक पंडे भी उनके विरोधी हो गए थे। स्वामी दयानंद जी महाराज की देश भक्ति के चलते ही चित्तौड़ अंग्रेजों के पास जाते-जाते बच गई थी। उनके कारण ही चित्तौड़ के महाराणा प्रताप के वंशज तत्कालीन शासक अंग्रेजों के दिल्ली दरबार ( 1911) में उपस्थित होने से अपने आप को रोकने में सफल हुए थे।
1883 ईस्वी में स्वामी जी जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह के यहां पर टिके हुए थे । महाराज जसवंत सिंह ने उनका भरपूर स्वागत सत्कार किया था । एक दिन जब राजा यशवंत एक नर्तकी नन्हीं जान के साथ व्यस्त थे, तब स्वामी जी ने इस दृश्य को देखकर राजा जसवंत सिंह को कड़ी फटकार लगाई। उन्होंने राजा को अकेले में यह भी समझाया कि एक तरफ तो वह धार्मिक होने का प्रयास कर रहे हैं और दूसरी ओर इस प्रकार की घटिया मनोवृति में फंसे हुए हैं। ऐसी सोच और कृत्यों के रहते ज्ञान प्राप्ति असंभव है। महाराजा जसवंत सिंह ने महर्षि जी के इस प्रकार के फटकार भरे शब्दों को सुनकर अपने आप में पूर्ण परिवर्तन कर लिया और उन्होंने उस नर्तकी से सारे संबंध समाप्त कर लिए । इसके पश्चात वह गणिका स्वामी जी महाराज से शत्रुता मानने लगी। फलस्वरूप उसने महर्षि दयानंद जी के रसोईया के साथ मिलकर उन्हें समाप्त करने का फैसला किया। स्वामी जी के रसोईया ने स्वामी जी के दूध में संखिया मिलाकर उन्हें पिला दिया। इसके पश्चात स्वामी जी का स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता चला गया। बहुत उपचार करने के उपरांत भी उनके रोग पर नियंत्रण नहीं किया जा सका।
अनेक शत्रुओं ने स्वामी जी महाराज के संसार छोड़कर चले जाने के लिए अनेक प्रकार के षड्यंत्र किए। उन्हीं के परिणाम स्वरूप 1883 ईस्वी की 30 अक्टूबर को स्वामी जी ने अंतिम सांस ली।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता और सुप्रसिद्ध इतिहासकार है।)
मुख्य संपादक, उगता भारत