कांग्रेस का समाजवाद के प्रति दृष्टिकोण 1955 में आवाड़ी में हुए एक सम्मेलन में देखने को मिला। जब उसने यह प्रस्ताव पास किया-
कांग्रेस के उद्देश्य की पूर्ति के लिए …..भारत के संविधान की उद्देशिका और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में कथित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए योजना इस प्रकार की जानी चाहिए कि समाज की समाजवादी संरचना की स्थापना हो सके। ऐसी संरचना जिसमें उत्पादन के मुख्य साधन सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्राण में हों, उत्पादन निरंतर वृद्घिगत हो और राष्ट्रीय धन का साम्यपूर्ण वितरण हो।’
कांग्रेस ऐसी मानसिकता के वशीभूत होकर 1976 ई. में संविधान के 42वें सवैधानिक संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द जोडऩे में सफल रही। ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी समाजवाद’ के शब्द युग्म को स्थान न देने की मूल की भूल यथावत बनी रही।
कांग्रेस ने समाजवाद का प्रचलित अर्थ पकड़ा कि जिसमें उत्पादन के मुख्य साधन सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण में हों, उत्पादन निरन्तर वृद्घिगत हो, राष्ट्रीय धन का साम्यपूर्ण वितरण हो। इन शब्दों की समीक्षा करें तो ज्ञात होता है कि ये शब्द हमारा ध्यान आर्थिक समाजवाद की ओर आकृष्ट करते हैं। जिसे लाने के लिए लोगों को विध् िके दण्ड से अनुशासित किया जायेगा ना कि उन्हें भीतरी रूप से अनुशासित करते हुए कत्र्तव्य पथ पर डाला जायेगा, अर्थात कत्तव्र्यवादी बनाया जायेगा। आर्थिक समाजवाद के विषय में आत्मिक लोक के नैतिक पक्ष से अनुशासित और संचालित होता है। जिसे लाने में हम असफल रहे। संविधान का इस विषय में मौन रहना इस असफ लता का मुख्य कारण है।
हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने समाजवाद की निम्नलिखित परिभाषा की-‘समाजवाद का प्रमुख उद्देश्य आय, प्रास्थिति और जीवन के स्तर में असमानता को दूर करना और श्रमजीवी लोगों को शिष्ट जीवन स्तर प्राप्त कराना है। अत: भारत का संविधान निजी सम्पत्ति का उन्मूलन नहीं करता। किन्तु उस पर कुछ निर्बन्धन लगाता है। जिससे उसका उपयोग राष्ट्रीय हित में किया जा सके। इसमें गरीबों को ऊपर उठाना भी सम्मिलित है।……..यह सभी को ‘अवसर की समानता’ प्रदान करता है और ‘निहित स्वार्र्थों’ को समाप्त करता है।’
सर्वोच्च न्यायालय के समाजवाद के विषय में प्रकट किये गये विचार अवश्य विचारणीय हैं। सरकार इन पर विचार करे एवं आय, प्रास्थिति और जीवन के स्तर में असमानता को दूर करने के उपाय खोजने का प्रयास करे। जिससे श्रमजीवी लोगों को शिष्ट जीवन जीने का स्तर व अवसर की समानता उपलब्ध् हो सके।
दुर्भाग्य से सरकारों ने भारत में अवसर की समानता देने के लिए आरक्षण जातिगत आधर पर प्रदान करके समाजवाद की शक्ल को और भी विकृत कर दिया है। आर्थिक स्थिति पर संरक्षण देना समाजवाद का लक्ष्य होता है। जिसे समझने में हम असफ ल रहे। परिणामस्वरूप संविधान में समाजवाद की परिकल्पना को साकार करने के लिए डाला गया शब्द ‘समाजवादी’ आभाहीन हो गया है। कांग्रेस का उधारी मनीषा पर जीने का दृष्टिकोण इसके लिए उत्तरदायी है।
अभी भी समय है। हम चेतें और सही समाजवाद की स्थापना के लिए कार्य करें। समय का तकाजा यही है।
‘पन्थ निरपेक्षता का संवैधानिक आधार’
भारत एक पन्थ-निरपेक्ष देश है। राज्य के पन्थ निरपेक्ष उद्देश्य को विनिर्दिष्ट रूप से उद्देशिका में संविधन के 42वें संशोधन द्वारा 1976 में ‘पन्थ निरपेक्ष’ शब्द अन्त:स्थापित कर सुनिश्चित किया गया है।
हमारी संसद ने पन्थ निरपेक्ष शब्द प्रयुक्त किया। किन्तु हमने व्यवहार में धर्मनिरपेक्ष शब्द इस ‘पन्थ-निरपेक्ष’ शब्द के स्थान पर प्रयुक्त करना आरम्भ कर दिया। पन्थ निरपेक्षता व धर्मनिरपेक्षता को एक ही मान लिया गया। जबकि धर्मनिरपेक्षता पन्थ निरपेक्षता का स्थानापन्न नहीं हो सकती। आप अग्नि को उसके स्वाभाविक धर्म ‘ताप’ से वंचित (निरपेक्ष) नहीं कर सकते। हां, ऐसा प्रबंध् अवश्य कर सकते हो कि अग्नि से किसी को हानि ना हो। इसी प्रकार मनुष्य को उसके स्वाभाविक धर्म (मानवता) से वंचित (निरपेक्ष) नहीं किया जा सकता। हां, मनुष्य को जाति वर्ग के भेद से वंचित कर स्वस्थ मानव समाज की संरचना का ढांचा अवश्य तैयार किया जा सकता है।
वस्तुत: ऐसा ढांचा तैयार करना ही पन्थ निरपेक्षता का वास्तविक प्रयोजन है। हमने कश्मीर को देखा है। वहाँ अभी-अभी मुफ्ती मौहम्मद सईद की सरकार का नामकरण गुलाम नवी आजाद की सरकार के रूप में किया गया है। मुस्लिम बहुल राज्य की सरकार का मुखिया मुस्लिम को बनाया गया है। इसे ही धर्मनिरपेक्षता माना गया है। जबकि बिहार में जो कि हिंदू बहुल है मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग एक बार रामविलास पासवान की ओर से की गयी थी, तब उनका तर्क भी यही था कि वास्तविक धर्म निरपेक्षता की स्थापना के लिए ऐसा किया जाना अति आवश्यक है। आप विचार करें कि भारतीय समाज के लिए कौन सी स्थिति आदर्श है और वास्तविक धर्मनिरपेक्षता क्या है?
मुस्लिम बहुल प्रान्त का मुख्यमंत्री मुस्लिम बने यह ना तो पन्थ निरपेक्षता है और ना ही धर्मनिरपेक्षता। क्योंकि संविधान की मूल भावना पन्थवाद से ऊपर उठने की है, ना कि पन्थवाद को बढ़ावा देने की। साथ ही किसी प्रतिभा को इसलिए अवसर ना देना कि वह मुस्लिम नहीं है इसलिए वह ऐसे राज्य का मुख्यमंत्री नहीं हो सकता कि जो एक पन्थ विशेष को मानने वालों का बाहुल्य रखता है, यह भी धर्म- निरपेक्षता भी नहीं है। क्योंकि ऐसा करना मानवीय गरिमा के प्रतिकूल है। संविधान ने अवसर की समानता का प्राविधान इसलिए किया कि प्रतिभा समादृत हो और मानवीय गरिमा का सम्मान हो।
जबकि हमने संविधान की इस भावना का मखौल उड़ाना आरम्भ कर दिया। परिणामस्वरूप प्रतिभाएं कश्मीर में भी हाशिये पर हैं और बिहार में भी हाशिये पर हैं। पन्थनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता की अन्योन्याश्रितता इस प्रकार दिखायी जा रही है कि वास्तविकता और संविधान का सच इस घालमेल में ऐसे ओझल कर दिया गया है कि मानो है ही नहीं।
पन्थनिरपेक्षता की संवैधानिक अवधारणा को स्वयं पन्थनिरपेक्षता और मानवीय गरिमा की सुरक्षार्थ अवसर की समानता के संवैधानिक प्राविधान के प्रकाश में व्याख्यायित करना उचित होगा। इन शब्दों पर विचार करने से स्पष्ट होता है:- पन्थ निरपेक्षता का वास्तविक अर्थ है कि किसी व्यक्ति की योग्यता अथवा प्रतिभा को समादृत करते समय उसके पन्थ अथवा जाति का ध्यान नहीं रखा जायेगा, और न ही उसे योग्य होते हुए भी इन संकीर्ण मान्यताओं के आधार पर किसी पद अथवा संवैधानिक संस्थान के लिए सुयोग्य माना जायेगा।
मुख्य संपादक, उगता भारत