हमारे संविधान निर्माताओं ने देश की आर्थिक प्रगति में सभी वर्गों और आंचलों के निवासियों को जोडऩे के लिए और आर्थिक नीतियों का सबको समान लाभ प्रदान करने के लिए ‘आरक्षण’ की व्यवस्था लागू की थी। आरक्षण की यह व्यवस्था पूर्णत: मानवीय ही थी-क्योंकि इसका उद्देश्य आर्थिक रूप से उपेक्षित रहे, दबे, कुचले लोगों को आगे लाकर उन्हें विकास की गति में साथ लेकर चलना था। इस व्यवस्था को लागू करते समय हमारे राजनीतिज्ञों की और तत्कालीन नेतृत्व की सोच यही थी कि स्वतंत्रता का लाभ सबको समान रूप से प्राप्त होना चाहिए। नेताओं की इस सदिच्छा का सर्वत्र स्वागत किया गया। जनता ने भी इस व्यवस्था पर कोई आपत्ति नहीं की। बात साफ थी कि देश के सभी लोग यह चाहते थे कि स्वतंत्र देश की अर्थव्यवस्था में और विकास की सभी संभावनाओं में सबका समान हिस्सा होना चाहिए, और सबको समान लाभ मिलना चाहिए। देश के लोगों की यदि यह सोच नहीं होती तो चाहे कोई कितना ही जोर लगा लेता पर देश में आरक्षण की व्यवस्था कभी लागू नहीं होती। आरक्षण की व्यवस्था को लागू होने देने में ‘हिन्दुत्व’ का उदार स्वरूप और उसका मानवतावाद अधिक उत्तरदायी रहा, जो सदा सबको फूलने फलने का नैसर्गिक अधिकार देता है। यह वेद ही है जो ‘सं गच्छ ध्वं सं वद ध्वं’ कहता है और सबकी उन्नति में सहायक होने के लिए हर मानव को मानव बनने की प्रेरणा देता है।
हमें आरक्षण के विषय में चिंतन करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस देश में जिन लोगों ने पूर्व में मुस्लिम सल्तनत का और बाद में अंग्रेजों की विदेशी और क्रूर सत्ता का विरोध किया, उन्हें देर तक अपने घर-बार छोडक़र इधर-उधर जंगलों में भटकना पड़ा, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो गयी। याद रखने की बात है कि इस देश में वनों में घूमकर विदेशी सत्ता का विरोध करने वाला एक ‘महाराणा’ नहीं अपितु लाखों महाराणा हुए हैं। यहां कोई भी ‘महापुरूष’ मरता नहीं है, उसकी परंपरा सदा जीवित रहती है, यदि आज कश्मीर से हिंदू अपने घर बार को छोडक़र देश में इधर-उधर भटक सकता है और वह महाराणा प्रताप की परंपरा को कश्मीर में नये सवेरे की प्रतीक्षा में कायम रख सकता है, तो ऐसा मध्यकालीन इतिहास में भी हुआ होगा इससे कौन इंकार कर सकता है? जिन जातियों या वर्गों के लोगों ने विदेशी सत्ता का विरोध करते-करते अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, वही स्वतंत्रता प्रेमी और वीर जातियां इस देश में अंग्रेजों के समय में पिछड़ी जातियां या अनूसचित जातियां बन गयीं। अंग्रेजों ने इन जातियों का इसी रूप में नामकरण कर दिया। दुख की बात रही कि इन जातियों का इतिहास अंग्रेजों के काल में तो छिपाकर रखा ही गया, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी इनके गौरवपूर्ण इतिहास को जनता के सामने लाया नहीं गया।
साधुवाद देना होगा इस देश की महान जनता को जिसने स्वतंत्रता की प्रभात में अपने सभी भाइयों को रोटी बांटकर देने को अपने हिन्दुत्व का सनातन गुण मानकर उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। उसे आरक्षण पर कोई आपत्ति नहीं रही क्योंकि उसने अपने मध्य कालीन इतिहास के स्वतंत्रता सेनानियों की पीढिय़ों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुए उन्हें अपने साथ लेकर चलना अपना राष्ट्रीय कत्र्तव्य समझा। अब गलती कहां हुई कि जो यह आरक्षण देश के लिए जी का जंजाल बन गया? गलती वहां हुई जब हमारे संविधान निर्माताओं ने आरक्षण को अंग्रेजों की बनायी जाति व्यवस्था के आधार पर अर्थात जातिगत आधार पर स्वीकार कर लिया। अंग्रेजों ने भारत में जिस जातिगत आरक्षण और देश के समाज में विभाजनकारी रेखा खींचने की मूर्खता की थी उसे देश के नेतृत्व को बदलना चाहिए था। इसके लिए हिंदू महासभा के महान नेता वीर सावरकर ने उस समय के नेतृत्व को चेताया था कि आरक्षण का आधार जातिगत मत रखो, इसे आर्थिक आधार पर दो, तभी देश का कल्याण होगा। दुर्भाग्यवश उनकी आवाज को अनसुना कर दिया गया। जिससे देश के बहुत से वर्ग और विभिन्न आंचलों के ऐसे लोग जिनके पास आज तक कोई नेता नहीं हुआ है और जिनके मुंह में आवाज होकर भी जो बोलना नहीं जानते, वे आरक्षण की व्यवस्था से वंचित कर दिये गये। ऐसे लोग बड़ी संख्या में इस देश में आज भी हैं-जिनको इस व्यवस्था का कोई लाभ आज तक नहीं मिल सका है, क्योंकि उनके पास कोई ‘मायावती’ नहीं है, कोई ‘मुलायम’ नहीं है, कोई ‘किरोड़ीसिंह बैसला’ नहीं है। उनकी बददुआएं इस देश की राजनीतिक न्याय व्यवस्था को कोस रहीं है जो किसी का हक तभी देती है जब उसके पास कोई ‘मायावती, मुलायम या किरोड़ी’ पैदा हो जाता है। अंधी-बहरी और गंूगी बनी यह व्यवस्था देश के संविधान के साथ एक गंभीर धोखा है-जो वास्तविक गरीब को आज तक विकास के समान अवसर नहीं दे पायी। देखते हैं कब तक चलेगा यह खेल? आगाज तो बगावत के हैं-आगे ऊपर वाला जाने। आज देश में जो लोग आरक्षण का विरोध कर रहे हैं -उनकी आवाज में दम है। उनके तर्कों में दम है। क्योंकि ‘आरक्षण’ के नाम पर उनकी प्रतिभा और योग्यता को कड़े पहरे में बंद कर दिया गया है। जातियों का राजनीतिकरण कर उनके वोट से सत्ता का सौदा करने वाले बेईमानों को नेता के रूप में पनपते और मौज करते देखकर हर व्यक्ति सोचने लगा है कि इस आरक्षण की व्यवस्था में कहीं दोष है? यह घुटन बढ़ती जा रही है-भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होते हुए भी देश में इस विषय पर खुलकर चर्चा करने से लोग बच रहे हैं।
समय रहते समाज के गंभीर और चिंतनशील लोगों को गंभीर मंथन करना चाहिए। जो लोग विकास की गति में पिछड़े पड़े हैं और दलन, दमन और शोषण का शिकार हैं, उनके लिए अपने मुंह का निवाला तक लोग देने को तैयार हैं-इस देश की जनता की इस महानता को समझकर आरक्षण का जातीय स्वरूप समाप्त कर इसे तत्काल आर्थिक आधार पर दिया जाना चाहिए। लोगों को आपत्ति उन लोगों से है जो आरक्षण का लाभ लेकर भी उसे अपना अधिकार अनंतकाल के लिए मान बैैठे हैं और माल खाकर गुर्राने की कोशिश कर रहे हैं। इन लोगों ने आरक्षण हथिया लिया है और उसे वास्तविक पात्र व्यक्ति तक नहीं जाने दे रहे हैं।
मुख्य संपादक, उगता भारत