अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अपने पद भार संभालने के दिन से ही वैश्विक राजनीति के समीकरणों में जोरदार परिवर्तन देखे जा रहे हैं। बराक ओबामा के काल में जहां रूस और अमेरिका के संबंधों में कुछ नरमी के संकेत देखे जा रहे थे वहीं चीन से भी अमेरिका कुछ दूरी पर रहकर ही गुर्राता रहा। जिसे ड्रैगन ने अपने लिए सम्मानजनक समझा और वह भी अमेरिकी से थोड़ी दूरी बनाकर ही गुर्राता रहा। पर अब अचानक दोनों की गुर्राहट बढ़ी है और जितनी दूर रहकर दोनों एक दूसरे पर गुरर्न रहे थे वह दूरी भी कम हुई हे। जिसे देखते हुए ड्रैगन ने स्पष्ट कहा हे कि अब अमेरिका से युद्घ कभी भी संभव है। इन दोनों महाशक्तियों का एक दूसरे के विरूद्घ युद्घ के लिए इस प्रकार सन्नद्घ होना निश्चय ही एक अशुभ संकेत है।
मानवता युद्घों से अब चुकी है। कलह-कटुता और वैमनस्य के घुटनभरे परिवेश से ऊब चुकी है। पर मानव है कि युद्घ की परिस्थितियां ही निर्मित करता जाता है। लगता है कि भारी विनाश कराके भी और ‘हिरोशिमा’ नाकासाकी पर बम वर्षा करके भी इसका मन युद्घों से भरा नहीं है। आत्मविश्वास की सारी तैयारियों से लगा मानव भस्मासुरों का निर्माण कर रहा है और अंतर्महाद्वीपीय मिजाइलों का निर्माण कर करके अपने विनाश की कहानी स्वयं ही लिख रहा है।
यह वही विश्व है और वही मानव है जिसने ‘अब कभी युद्घ नहीं करूंगा’ की सौगंध प्राचीनकाल से अब तक कितनी ही बार खायी है। यह विनाश की समाधिक पर बैठकर रोता है पर विनाश की समाधि से नया विनाश करने का संकल्प लेकर उठता है। जिससे युद्घ का दानव इसके भीतर बार-बार उठता रहता है और उत्पात कराता रहता है। 1915 में इसने प्रथम महायुद्घ किया, जो 1919 तक चला। 1919 में बार्साय की संधि करने वाले नेताओं और उनके देशों ने युद्घ की विभीषिकाओं से जलते तपते मानव मन को बार-बार यह कहकर ढांढस बंधायी थी कि अब भविष्य में कभी भी युद्घ नहीं किया जाएगा पर हमने देखा कि पहले विश्वयुद्घ से भी भारी विनाश लाने वाला विश्व युद्घ केवल बीस वर्ष पश्चात ही विश्व को देखना पड़ गया। तब 6 वर्ष तक युद्घ की विभीषिकाओं में जलती तपती मानवता को विश्व के नेताओं ने पुन: 1945 में यह विश्वास दिलाया कि अब भविष्य में युद्घ नहीं होगा।
अब जब 1945 को बीते 70 वर्ष से अधिक हो गये हैं तो इन वर्षों में भी विश्व स्तर पर ऐसी भारी विसंगतियों ने जन्म ले लिया है जिनके कारण विश्व शांति को फिर संकट उत्पन्न हो गया है। कुछ लोगों ने विश्व को मजहबी आधार पर बांटने का कार्य किया है। फलस्वरूप इस्लाम और ईसाइयत के खेमों में विश्व को बांटकर उस स्थिति का लाभ उठाने का कुछ लोगों ने जुगाड़ लगा लिया है। विश्व संस्था यूएनओ की स्थापना 24 अक्टूबर 1945 को इस उद्देश्य से की गयी थी कि यह संस्था विश्व में युद्घों की विभीषिका को समाप्त करने में किसी भी प्रकार के राग और द्वेष से ऊपर उठकर निर्णय लेगी और इसे इतना सशक्त किया जाएगा कि यह हर किसी देश की दादागर्दी पर रोक लगाने में सफल हो सकेगी। इसके लिए इस संस्था ने पांच देशों को (अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस) वीटो पावर का अधिकार भी दे दिया। यह वीटो पावर इन देशों को इसलिए दिया गया कि यूनएन पर किसी एक देश का कब्जा न होने पाए। व्यवहार में देखा जा रहा है कि ये वीटो पावर वाली शक्तियां ही इस विश्व संस्था की सबसे बड़ी दुर्बलता बन गयी है। इनको प्राप्त वीटो पावर के कारण यूएन एक नही अपितु पांच देशों के अलग-अलग कब्जे में फंसा पंछी बनकर रह गया है।
अभी पिछले दिनों हमने देखा कि चीन ने भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता न दिलाने में सफलता प्राप्त कर ली। जिससे लगा कि यूएन चीन की गुलाम है। अन्यथा क्या बात है कि जिस देश के लिए सारा विश्व यह कह रहा है कि उसका सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनना आवश्यक है। उसे केवल एक देश रोक देता है, और विश्व संस्था असहाय बनकर रह जाती है। यदि इस स्थिति के लिए यूएन के किसी संवैधानिक प्राविधान की आड़ ली जाती है तो यह भी गलत है। अंतत: ऐसा क्यों हो गया कि 70 वर्ष तक यह विश्व संस्था अपने कानून में उपेक्षित परिवर्तन या संशोधन नहीं करा सकी। इसके हाथ किसने और क्यों बांध दिये? यदि तीसरा विश्व युद्घ निकट भविष्य में होता है तो इस संसार के ध्वंसावशेषों पर या बची हुई राख पर पडऩे वाली ओस की बूंदें उस राख से यह प्रश्न अवश्य करेंगी कि उस समय का विश्व समुदाय किस गुण्डागर्दी के पेंच को खोलने में असफल रहा था-जिसने यह महाविनाश की कहानी लिख दी थी? वह ओस निश्चय ही इसका उत्तर यही देगी कि जब विश्व संस्था को गुलाम बनाकर रखने की नीति पर पांच पंच आ जाते हैं तो वहां न्याय नहीं होता है और जहां न्याय नही होता है वहां क्रोध की ज्वालाएं मिजाइलों के रूप में फला करती हैं। आज विश्व का कोई भी देश मिजाइल बनाता है तो वह मिजाइल न बनाकर अपने भीतर एकत्र हो रहे ‘क्रोध’ को एकीभूत करता है, जिसका एक दिन महाविस्फोट के रूप में फटना तय है।
चीन और अमेरिका ने विश्व के विनाश का ठेका ले लिया है। चीन के पड़ोसी रूस के नेता पुतिन की भौहें भी कुछ संकेत दे रही हैं, तो ब्रिटेन और फ्रांस ने अपने अपने आपको अमेरिका का पिछलग्गू बना लिया है। ऐसे में भारत की विश्व को विशेष आवश्यकता है। विश्व के शांतिप्रिय देश भारत की ओर नेतृत्व की आस लगाकर बड़े ध्यान से देख रहे हैं। उन्हें आशा है कि भारत के वेद के शांतिसूक्त में ही विश्वशांति के सूत्र समाहित हैं। जिन्हें विश्व को यूएनए की नियमावली में स्थान देना चाहिए। पर ‘विनाश काले विपरीति बुद्घि’ वाली बात हो रही है और मानवता के कुछ हत्यारे विश्व संस्था को अपनी बपौती माने बैठे हैं। जो विश्व समुदाय के बहुमत की उपेक्षा कर रहे हैं। यह सच है कि उनके द्वारा विश्व जनमत के बहुमत की इस प्रकार की जा रही उपेक्षा ही उनके और इस विश्व के विनाश का कारण बनेगी। फिर भी हमें ‘शांति: शांति: शांति:’ का ही जप करना चाहिए क्योंकि इसी में हमारा कल्याण है।
मुख्य संपादक, उगता भारत