मुसलमानों में तीन तलाक की परम्परा उतनी ही पुरानी है जितना पुराना इस्लाम है। इस्लाम के प्रगतिशील उदार और मानवतावादी विद्वानों का मत है कि वैवाहिक जीवन को तोडऩे का अधिकार इस्लाम में ना केवल पति को प्राप्त है अपितु पत्नी को भी प्राप्त है। यदि कोई पति अपनी पत्नी पर अत्याचार करता है और उसे किसी भी प्रकार से दुखी करता है तो ऐसे पति से छुटकारा पाने का अधिकार पत्नी को भी है।
ऐसे विद्वानों की मान्यता है कि इस्लामी शरीयत भी ऐसी ही व्यवस्था करती है जिसमें नारी को भी समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। इन विद्वानों की मान्यता है कि विश्व की आधी जनसंख्या को पुरूष समाज की दया पर नहीं छोड़ा जा सकता। उनका मानना है कि इस्लाम के पैगंबर साहब नारी के विरूद्घ इतने क्रूर नहीं हो सकते थे कि उसके विरूद्घ पुरूष समाज को इतने असीमित और अतुलित अधिक दे देते कि पुरूष वर्ग जैसे और जब चाहे नारी पर जुल्म ढहाता रहे। निश्चय ही मौहम्मद साहब की व्यवस्था में न्याय था और वह अपने न्याय से मुस्लिम महिला को वंचित नहीं कर सकते थे।
तीन तलाक की इस प्रकार की पवित्र व्यवस्था की वकालत करने वाले मुस्लिम विद्वानों का मानना है कि तीन तलाक को कोई भी पति एक बार में लगातार तीन बार बोलकर अपनी पत्नी को अपने से दूर नहीं कर सकता। ना ही तलाक इतना सहज और सरल है कि उससे आप विवाह जैसे पवित्र बंधन को जब चाहें  तब कच्चे धागे की भांति तोडक़र समाप्त कर दें। तलाक के लिए किसी भी पति को अपनी पत्नी की अक्षम्य गलतियों पर ही आगे बढऩा चाहिए। वह इन्हें टेलीफोन पर या मोबाइल पर एसएमएस केमाध्यम से या क्रोध में बिना सोचे समझे, एक क्षण रूके बिना लगातार बोलकर अपनी पत्नी को नहीं दे सकता। इसके लिए उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह ऐसा करते समय अपने विवेक, धैर्य और संयम का परिचय नहीं देगा और पूर्णत: अनाड़ीपन से काम लेते हुए अपने जीवन साथी को अपने जीवन से बाहर कर देगा। इसके विपरीत उससे अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्ण विवेक, धैर्य और संयम का परिचय देते हुए अपने जीवन साथी को सुनने समझने का अवसर देगा।
इस्लाम के प्रगतिशील व्याख्याकारों का मानना है कि इस्लाम में पति को अपनी पत्नी के विरूद्घ असीमित अधिकार प्राप्त नहीं हैं। वह अपनी पत्नी को प्राप्त उसके नैसर्गिक अधिकारों का पूर्ण सम्मान करने का स्वभावत: अभ्यासी होना चाहिए। यही कारण है कि हर पति को अपनी पत्नी को तीन तलाक एक बार में कहने के अधिकार न होकर अलग-अलग कुछ महीनों में लगातार तीन यह प्रक्रिया अपनानी होती है। इसका अभिप्राय है कि कोई पति यदि अपनी पत्नी से दुखी है या उसकी पत्नी बार-बार ऐसे अपराध करती जाती है जो अक्षम्य हों और पति को बार-बार आहत करते हों तो ऐसा पति उससे तलाक लेने का अधिकारी है। वास्तव में यह तलाक की आदर्श व्यवस्था है क्योंकि यहां एक पति अपनी पत्नी को सुधरने और संभलने का प्राकृतिक न्याय के सिद्घांतों के अनुसार अवसर प्रदान करता है। यदि पत्नी उसकी इस प्रकार की चेतावनी के मिलने के उपरांत सुधर जाती है तो ठीक है अन्यथा ऐसे पति को दुबारा और तीसरी बार तलाक कहने का अधिकार होता है। तब माना यह जाता है कि पत्नी भी अपने तलाक का मन बना चुकी थी और उसके साथ जो कुछ भी हुआ वह ना तो अतार्किक है और ना ही वह अप्राकृतिक है। कारण कि तलाक की इस प्रक्रिया में पीडि़ता को भी सुनने और सुधरने का अवसर दिया गया है। गलती तब होती है जब एक पक्ष अपनी तानाशाही इतनी दिखाये कि वह दूसरे पक्ष पर हावी हो जाये और उसे हर स्थिति-परिस्थिति में दबाने के लिए उसके नैसर्गिक व मौलिक अधिकारों और प्राकृतिक न्याय के सिद्घांतों की भी खुली अवहेलना करने लगे। इस्लाम में तलाक की इस प्रक्रिया को युगानुकूल और वैज्ञानिक बनाने के लिए ऐसे विद्वान आगे आ रहे हैं जो नहीं चाहते कि इस्लाम पर जड़तावादी होने का आरोप लगे, इसके विपरीत उनकी मान्यता है कि इस्लाम में निरंतर प्रवाहमानता को बनाये रखा जाए। इनकी सोच है कि अत्याचारी पति से मुक्ति पाने का अधिकार इस्लाम में नारी के पास भी है, पर उसे ईमानदारी से लागू नहीं किया गया।
इन विद्वानों के विपरीत कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस्लाम के किसी भी प्रचलित सिद्घां में या मजहबी मान्यता में किसी भी प्रकार की तब्दीली के या परिवर्तन व संशोधन अथवा परिमार्जन के पक्षधर नहीं हैं। उनका मानना है कि जो जैसा है और जैसे चल रहा है उसे वैसे ही चलने दिया जाए। उसमें हस्तक्षेप करने की बात सोचना इस्लाम को खतरे में डालने के समान होगा। इन लोगों को इस्लाम में हस्तक्षेप कतई पसंद नहीं है। वे तलाक की कष्टपूर्ण और अप्राकृतिक प्रचलित व्यवस्था को यशावत चालू रखना चाहते हैं।
कुछ लोगों का तर्क है कि तलाक का प्रकरण माननीय न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए इस पर कोई चर्चा नहीं होनी चाहिए। अब भाजपा ने पांच राज्यों  में हो रहे चुनावों के दौर में इस मुद्दे को उठाकर गलती की है। इसका अभिप्राय है कि भाजपा तलाक को चुनावी मुद्दा बनाकर मतों का धु्रवीकरण करना चाहती है। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि लोकतंत्र में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्ति के मुद्दों को हल करने और मुद्दों के रहस्यों की गुत्थियों को सुलझाने के लिए ही जाती है। यदि व्यक्ति अपने इस मौलिक अधिकार का सही रूप में प्रयोग करता है तो वह हर मुद्दे पर खुलकर चर्चा करता है। तलाक की कौन सी प्रक्रिया उचित है और कौन सी प्रक्रिया इस्लाम संगत है? इस पर लोगों के विचार आने ही चाहिए। इससे माननीय न्यायालय को भी लोगों के बहुमत की राय को जानने का और इस व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को समझने का अवसर मिलेगा। न्यायालय समस्याओं के समाधान के लिए (किसी वाद के विचारण के दौरान) लोगों के परस्पर के विचार विमर्श पर रोक नहीं लगाता है और ना ही वह लोगों को किसी सर्वसम्मत समाधान पर पहुंचने से ही रोकता है, यदि ऐसा होता तो न्यायालयों में पक्षों को अपने मुकदमे अपनी सहमति से निपटाने की प्रक्रिया ना होती। परस्पर के वात्र्तालाप से समस्याओं के समाधान को भी लोकतंत्र ने न्यायपूर्ण माना है, इसलिए लोकतंत्र में तीन तलाक पर यदि फिर बहस हो रही है तो इसे ये कहकर नहीं टोका जाना चाहिए कि मामला न्यायालयों में लंबित है और इस मुद्दे को साम्प्रदायिक होने के कारण उठाया नहीं जा सकता। वैसे यह मामला साम्प्रदायिक नहीं, अपितु मानवीय है क्योंकि आधी आबादी के हित इससे जुड़े हैं।

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