नवीन कुमार पाण्डेय
पाकिस्तान में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की गिरफ्तारी के बाद बवाल मचते ही हमारे यहां का ‘अमन की आशा’ ब्रिगेड ‘मजबूत पाकिस्तान ही भारत के हित में’ वाला दशकों पुराना राग अलापने लगा है। इस ब्रिगेड की मुख्य दलील ये है कि पाकिस्तान की सरकार और वहां की आर्मी कमजोर हुई तो नॉन-स्टेट ऐक्टर्स, साफ-सुथरी भाषा में कहें तो आतंकवादियों को भारत के खिलाफ मंसूबों को अंजाम देने की खुली छूट मिल जाएगी। मानो पाकिस्तान की सरकार और वहां की आर्मी का क्रॉस बॉर्डर टेररिजम से कोई लेना-देना नहीं है। ‘भारत की हिफाजत, मजबूत पाकिस्तान में’ के सिद्धांतकारों की मानें तब तो यह कहना होगा कि भारत को नुकसान पहुंचाने की मंशा रखने वाले आतंकियों को पाकिस्तान चुन-चुनकर मारता रहता है, इस कारण हमारे यहां हर दिन बम विस्फोट नहीं होते हैं। उनके मुताबिक, 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद भारत के बाजारों, मंदिरों, भीड़-भाड़ वाली अन्य जगहों पर बम धमाके, सीरियल ब्लास्ट्स नहीं हो रहे हैं तो यह पाकिस्तान और वहां की आर्मी की आतंकियों पर की गई कड़ाई का नतीजा है, इसमें भारत का कोई पुरुषार्थ नहीं। यह ब्रिगेड अगर ये पूछ बैठे कि पाकिस्तान हमारा इतना बड़ा ही दुश्मन है तो 76 वर्षों में दुनिया के नक्शे से भारत का नामों-निशान क्यों नहीं मिटा, तो हैरत की बात नहीं होगी। ये तो पूछते ही हैं कि आक्रांता मुसलमान और मुगल बादशाह उदार नहीं होते तो भारत में एक भी हिंदू कैसे बच जाता? इसी तर्ज पर ये कह सकते हैं कि अगर मुसलमानों का अलग देश बन जाने के बाद भी भारत बचा है तो यह पाकिस्तान की दरियादिली का बड़ा प्रमाण है।
कूट-कूटकर कायरता भरे दिमाग की उपज तो देखिए
‘अमन की आशा’ ब्रिगेड का तर्क है कि पाकिस्तान परमाणु शक्ति संपन्न देश है, इसलिए खतरा बड़ा है। अगर परमाणु हथियार आतंकियों के हाथ लग गए तो उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। सोचिए, यह दलील जिसके दिमाग में भी आ रही है, उसके अंदर कायरता किस हद तक कूट-कूटकर भरी होगी! क्या इनकी यह सोच है कि भारत अपनी भुजाओं के दम पर नहीं, पाकिस्तान की सरकार और वहां की आर्मी की दया पर निर्भर है? अगर पाकिस्तान के परमाणु बम से हमें डरना ही था तो फिर हमने अपने परमाणु हथियार क्यों बनाए? 1998 में अमेरिका को ठेंगा दिखाकर दूसरी बार परमाणु परीक्षण किया और बदले में प्रतिबंध मोल लिए। तो क्या ये फालतू कवायद थी? क्या तत्कालीन अटल बिहारी सरकार ने मूर्खता की थी? सोचिए, जो भारत आज से 25 वर्ष पहले अमेरिका से नहीं डरा, उसे आज के पाकिस्तान से डरना चाहिए! ध्यान रहे 25 वर्ष पहले का अमेरिका आज से ज्यादा मजबूत था और आज का पाकिस्तान अपने इतिहास का सबसे बड़ा पराभव देख रहा है। भारत इन 25 वर्षों में कहां से कहां पहुंच गया, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन दलील यह कि भारत को पाकिस्तान की अंदरूनी उठापटक से डरना चाहिए।
क्या पाकिस्तानी सरकार-आर्मी आतंकियों की मददगार नहीं?
पाकिस्तान की सरकार और आर्मी की मजबूती से वहां के आतंकी बेकाबू नहीं हो पाते, इसके क्या सबूत हैं? क्या पाकिस्तान की बॉर्डर ऐक्शन टीम (BAT) में आर्मी कमांडो के साथ-साथ आतंकी भी नहीं होते हैं? क्या पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) में आर्मी के संरक्षण में आतंकी कैंप संचालित नहीं होते हैं? क्या हाफिज सईद, सैयद सलाहुद्दीन, दाऊद इब्राहिम जैसे आतंकी पाकिस्तान की सरकार और वहां की आर्मी की सह के बिना फले-फूले? अगर ऐसा है तब तो भारत को FATF में पाकिस्तान की मदद करनी चाहिए! एक दलील यह दी जाती है कि पाकिस्तान में तहरीक-ए-लब्बैक जैसे धार्मिक कट्टरपंथी संगठन हैं जो गजवा-ए-हिंद का ख्वाब देखते हैं। लब्बैक जब पाकिस्तान की सरकार का तख्तापलट नहीं कर सकता, वहां की आर्मी का सामना नहीं कर सकता तो भारत की क्या खाक बिगाड़ लेगा? एक अन्य दलील अफगानिस्तान को लेकर दी जाती है। कहा जाता है कि अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता आते ही पाकिस्तान में आतंकी हमले बढ़ गए। यह दलील देने वाले भूल जाते हैं कि पाकिस्तान के अंदर भी तालिबान है जिसे पाकिस्तान बैड तालिबान कहता है। क्या भारत भी गुड और बैड टेररिजम का फर्क करता है?
मजबूत पाकिस्तान के पक्ष में गजब की दलील!
एक पत्रकार ने भारत में इंटेलिजेंस के सूत्रों के हवाला देकर लेख लिखा है कि कैसे पाकिस्तान में मचे बवाल से भारत की नसें खिंचने लगी हैं। भारत की सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों के हाथ-पांव फूल रहे हैं कि अगर पाकिस्तान की सरकार और आर्मी कमजोर हुई तो आतंकियों को भारत के खिलाफ खुलकर खेलने का मौका मिल जाएगा। उन्होंने ये सब बताते हुए कई बार सूत्रों, सूत्रों लिखा है, लेकिन वो सूत्र किस विंग से हैं, किस विभाग से हैं, कोई इशारा नहीं किया है। पूरे लेख में जो तीन नाम लिखे गए हैं, उनमें एक है- माइकल कुगलमैन (Michael Kugelman) का। वो वॉशिंगटन की संस्था विल्सन सेंटर में एशिया प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर और साउथ एशिया विभाग के सीनियर एसोसिएट हैं। इनके बयान को कोट करते हुए कहा गया है कि यूं तो भारत के लिए बड़ी चिंता का विषय चीन है, लेकिन अस्थिर पाकिस्तान भी भारत के लिए कम खतरनाक नहीं है। महाशय माइकल के मुताबिक तो लगता है कि मानो अब तक पाकिस्तान से भारत को कभी, किसी प्रकार की परेशानी नहीं हुई हो। हमें भूलना नहीं चाहिए कि अमेरिका वह देश है जो पाकिस्तान जैसे कई मोहरे पाल रखे हैं और उसे जिसकी, जब जैसी जरूरत है, उसकी वैसा इस्तेमाल करता है। निश्चित रूप से अमेरिका की ख्वाहिश होगी कि पाकिस्तान बहुत कमजोर कभी नहीं हो और चीन अपनी चालबाजी नहीं छोड़ दे ताकि भारत बेफिक्र हो जाए। बहरहाल, लेख में बाकी दो नामों में एक पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त शरद सभरवाल और दूसरा विदेश में रहने वाली पाकिस्तानी आयशा सिद्दिका का है। वो रणनीतिक मामलों की जानकार हैं। सभरवाल और सिद्दिका, दोनों ने पाकिस्तान की मुश्किलें बढ़ने का जिक्र किया है, भारत की परेशानी बढ़ेगी, ऐसा संकेत करने वाला एक शब्द भी नहीं कहा।
हमारे परमाणु बम दीवाली के लिए हैं क्या?
मान लिया कि पाकिस्तान के कमजोर होने से वहां के आतंकी हावी हो जाएंगे तो? क्या हम पाकिस्तान के साथ फुल फ्लेज्ड वॉर में बार-बार मात नहीं दे चुके हैं? क्या कारगिल की दुर्गम पहाड़ियों पर छिपकर बैठे हथियार पाकिस्तानी सैनिकों और आतंकियों से अपनी जमीन वापस नहीं ली? इन युद्धों से ज्यादा पाकिस्तान क्या कर सकता है? क्या आतंकी हमें अतीत के युद्धों से ज्यादा नुकसान पहुंचाने की हालत में होंगे? यहां दलील दी जाती है कि हां, संभव है क्योंकि वो परमाणु बम का इस्तेमाल कर सकते हैं। पहली बात तो ये कि परमाणु की धमकी तो वहां के मंत्री भी दिया करते हैं। इमरान खान सरकार के मंत्री रहे शेख रशीद के फेमस डायलॉग्स भूल गए? आतंकियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है, वो पागल हैं तो फिर पाकिस्तान के नेता और वहां की आर्मी क्या है? क्या पाकिस्तान की जो हालत है, वो पाकिस्तानी सरकार और आर्मी की वजह से नहीं? क्या पाकिस्तान में आतंकी संगठनों की भरमार भी वहां की सरकारों और आर्मी की वजह से नहीं है? क्या पाकिस्तान ने भारत को हजारों जख्म देने की नीति त्याग दी है? क्या हमारे परमाणु हथियार दिखावे के लिए हैं? क्या हमने परमाणु बम इसलिए बनाए थे कि हमें पाकिस्तान जैसे पिद्दी से परमाणु हमले का डर सताता रहे? क्या परमाणु शक्ति संपन्न होने का असल मकसद ही यही नहीं है कि कोई हमें डरा नहीं सके? क्या हम परमाणु के डर से सीमा पर सैनिकों की हत्या करवाते रहें और उनकी लाश के साथ अमानवीय कृत्य करवाते रहें?
मजबूत पाकिस्तान ने हमारे साथ क्या-क्या किया, आईना देख लीजिए
आइए अब अतीत के आईने में ‘भारत की हिफाजत के लिए मजबूत पाकिस्तान जरूरी’ के सिद्धांत की तस्दीक भी कर ही लेते हैं। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत प्रधानमंत्री अयूब खान के दौर में रही। वर्ष 1958 से 1969 के उनके कार्यकाल के दौरान पाकिस्तान की जीडीपी की औसत वृद्धि दर 5.82 प्रतिशत थी। तब उसका मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ रेट भी 8.51 प्रतिशत था। तब पाकिस्तान ने हमारे साथ क्या किया? उसने 1965 में जम्मू-कश्मीर में अपने सैनिक भेज दिए। भारत ने जवाब दिया और दोनों देशों के बीच युद्ध छिड़ गया। अयूब खान के बाद पाकिस्तान और भारत के बीच 1971 का युद्ध हुआ। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और अब के बांग्लादेश में पाकिस्तान ने तब 30 लाख हिंदुओं और बंगाली मुसलमानों का कत्लेआम किया, हजारों महिलाओं का रेप किया और न जाने कैसे-कैसे अमानवीय कृत्य किए। फिर जिया-उल-हक के शासन में पाकिस्तान राजनीतिक और आर्थिक रूप से मजबूत हुआ। तब पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ आतंकवाद की फंडिंग करनी शुरू कर दी और ‘ब्लीडिंग इंडिया विद थाउजैंड कट्स’ की नीति अपना ली। बाद में नवाज शरीफ की सरकार का तख्ता पलट करके जनरल परवेज मुशर्रफ की आर्मी ताकतवर हुई तो कारगिल में चोरी से सेना और आतंकियों को भेज दिया। उसके बाद भारत की संसद पर हमला हुआ और न जाने कितने बम ब्लास्ट हुए। सवाल है कि क्या अब पाकिस्तान बदल गया है? क्या उसकी नीति बदल गई है?
तब तो हमें पाकिस्तान को मजबूत करने की हर कोशिश करनी चाहिए?
हमें सोचना होगा कि क्या आज पाकिस्तान और हमारी स्थिति उलट होती, अगर पाकिस्तान हमारे जितना ताकतवर होता और हम पाकिस्तान जैसे कमजोर तो क्या हम चैन से रह पाते? क्या सच्चाई यह नहीं है कि आज हम पहले के मुकाबले ज्यादा अमन-चैन से हैं, जम्मू-कश्मीर को छोड़कर हमारे यहां आतंकी हमले नहीं हो रहे हैं तो क्या ये पाकिस्तान की कमजोरी और हमारी ताकत की वजह से नहीं है? वैसे भी पाकिस्तान के साथ हमारे जितने युद्ध हुए, हम जीते। फिर उसके आतंकियों से डरने का क्या तुक है, बजाय कायरता के? क्या आतंकी और कट्टरपंथी संगठनों के पास पाकिस्तान आर्मी से ज्यादा ताकत है? सोचिए, यह कैसी कायरता है कि मजबूत पाकिस्तान है तो डरना लाजिमी है, कमजोर है तो भी डरो! इस सिद्धांत से तो पाकिस्तान के मजबूत करने की जिम्मेदारी हमारी होनी चाहिए। आखिर, उसकी मजबूती में मेरी भलाई है तो फिर हमें तो आगे बढ़कर उसकी मदद करनी चाहिए। तब तो हमें कंगाल पाकिस्तान को आईएमएफ से लोन दिलाने में मदद करनी चाहिए और फिर लोन ही क्यों खुद भी उसे हर तरह से मदद करनी चाहिए। यहां तक कि पाकिस्तान की सेना को भी जरूरी हथियार, गोला-बारूद, ड्रोन, विमान आदि देने चाहिए क्योंकि वो हमारी भलाई के लिए आतंकियों पर लगाम लगाए रहती है? क्या हम मान रहे हैं कि भारत की सुरक्षा बहुत हद तक पाकिस्तान संभालता है?
कौन देखना चाहते हैं मजबूत पाकिस्तान, इनकी पहचान कीजिए
हमें वैसे पड़ोसी की मजबूती की कामना करनी चाहिए जो हमारी तरफ आंख उठाकर देखने वालों को साधने की मंशा रखता हो। पाकिस्तान में सेना ताकतवर हो या आतंकी, भारत को क्या फर्क पड़ता है। कोहू नृप होईं, हमें क्या हानि की तर्ज पर कहा जा सकता है कि हमें तो दोनों ही मामलों में हानि ही उठानी है। आखिर में हमें यह देखना होगा कि ‘मजबूत पाकिस्तान में भारत की भलाई’ का सिद्धांत देने वाले हैं कौन? उनकी पहचान कहीं वो तो नहीं जो हमारी वायुसेना के वीर पायलट अभिनंदन वर्धमान के छोड़े जाने पर तब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे इन्हीं इमरान खान के लिए शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की वकालत कर रहे थे? ये वो लोग तो नहीं जो आर्टिकल 370 की तरफदारी और कश्मीर के मक्कार अलगाववादी नेताओं की दामाद की तरह खातिरदारी के पक्षधर रहे हैं? ये वो लोग तो नहीं जिन्हें बाबर, अकबर, औरंगजेब में उदारता और नए संसद भवन की छत पर लगे अशोक स्तंभ का शेर आक्रामक दिखता है? ये उस भारत के नागरिक तो नहीं जिसे आततायी मुसलमानों के दिए जख्मों पर नाज है? ये वो लोग तो नहीं जो बर्बरता की हर निशानी को संजोए रखना चाहते हैं? कहीं ये वो लोग तो नहीं, जिनकी सारी तर्कबुद्धि इस पर टिकी है कि हम पर हुए अतीत के अत्याचारों का येन-केन-प्रकारेण बचाव ही नहीं होता रहे बल्कि नए-नए जख्म भी मिलते रहें?
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