1857 की क्रांति की जयंती के अवसर पर विशेष:
एक और क्रांति की दरकार अनुभव करता देश
18 57 की क्रांति कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। देश के लोगों के भीतर 1757 के प्लासी के युद्ध के पश्चात से ही लावा धधक रहा था। अंग्रेज गवर्नर जनरल मैटकॉफ ने लिखा था कि भारत के लोग प्रतिदिन प्रतिक्षण यही प्रार्थना करते हैं कि हम अंग्रेज उनके देश को यथाशीघ्र छोड़ दें । भारत में उस समय हमारे क्रांतिकारियों ने 31 मई 1857 से सारे देश में एक साथ क्रांति करने की योजना बनाई थी। पर 10 मई को यह क्रांति मेरठ से कोतवाल धन सिंह गुर्जर के नेतृत्व में फूट पड़ी। उस समय हमारे क्रांतिकारी पूरे देश में समाचार पत्रों के माध्यम से यह भविष्यवाणी कर रहे थे कि 23 जून 1857 तक अंग्रेज देश से भगा दिए जाएंगे।
इस क्रान्ति के लिए उस समय अनेक कारण जिम्मेदार थे। पिछले 100 वर्ष में अंग्रेजों ने भारत में लाखों लोगों को मौत की नींद सुला दिया था। अंग्रेज इतिहासकार टॉरेंस के अनुसार अकेले बनारस में ही 3 लाख लोगों को 1776 में अंग्रेजों के दमन चक्र का शिकार होकर मौत के मुंह में जाना पड़ा था। वहां के राजा बलवंत ने अंग्रेजों के पैरों में अपनी पगड़ी भी रख दी थी, परंतु इसके उपरांत की वारेन हेस्टिंग्स की क्रूरता को तनिक भी दया नहीं आई थी। अतः 1757 में ही 1857 की क्रांति का शिलान्यास हो गया था।
अंग्रेजों ने भारत की कुल 35 हजार जागीरों में से 21हजार जागीरों को जब्त कर लिया था। इससे देश के लोगों में बहुत भारी आक्रोश था। 1824 में करों का बोझ इतना अधिक हो गया था कि किसानों को अपनी उपज का 55% कंपनी को देना पड़ रहा था। इसके अतिरिक्त भारत का बहुत तेजी से ईसाईकरण करने के लिए 1813 में ईसाई मिशनरीज को भारत में काम करने की अनुमति दे दी गई थी। कंपनी के डायरेक्टर बोर्ड के अध्यक्ष मैगल्स ने ब्रिटेन की पार्लियामेंट में कहा था कि ईसामसीह की शिक्षाएं सारे भारत में फैलनी चाहिए।
रेवरेंड केनेडी ने भी उस समय लिखा था कि हमारा काम हिंदुस्तान में ईसाई धर्म को फैलाना है। डलहौजी की राज्य हड़प नीति कोलवा, मांडवी ,अंबाला, सतारा ,झांसी जैसी अनेक रियासतों को या तो हड़प चुकी थी या हड़पने की तैयारी कर रही थी। महाराजा रणजीत सिंह के साथ 1849 में बहुत ही अपमानजनक संधि की गई थी। अवध के नवाब वाजिद अली शाह की रियासत 22 फरवरी 1856 को अंग्रेजों ने जबरन अपने राज्य में मिला ली थी। इसी प्रकार सेना में भारतीय सैनिकों के साथ बहुत अधिक भेदभाव किया जाता था। उन्हें गोला बारूद पर काम करने का अधिकार नहीं था। 1796 में सेना का पुनर्गठन किया गया था। उस समय भारत के अनेक सैनिकों को घर भेज दिया गया था। इससे सेना के भीतर भी बहुत अधिक आक्रोश था। जहां तक चर्बी वाले कारतूसों की बात है तो लॉर्ड कैनिंग ने स्वयं ही यह माना था कि उन कारतूसों में सूअर और गाय की चर्बी इसलिए लगाई गई थी कि भारत के लोगों का धर्म भ्रष्ट हो सके।
इस क्रांति को फैलाने में उस समय कई समाचार पत्र अग्रणी भूमिका निभा रहे थे। ‘पयामे आजादी’ नाम का हिंदी समाचार पत्र उस समय बहादुर शाह जफर का पोता बेदारवक्त अपने कुशल संपादन में निकाल रहा था। बेदार वक्त अपने समाचार पत्र में देशभक्ति से भरे हुए समाचारों और लेखों को प्रकाशित करता था। फलस्वरूप बेदारवक्त को सूअर की चर्बी मल कर फांसी पर चढ़ा दिया गया था। इसी प्रकार ‘समाचार सुधावर्षण’ भी उस समय हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से देश को जगाने का कार्य कर रहा था। ‘सादिकुल अखबार’ भी इसी रास्ते पर आगे बढ़ते हुए शानदार कार्य कर रहा था। फलस्वरूप 13 जून 1857 को कानून बनाकर केनिंग ने ‘समाचार सुधावर्षण’ को जहां बंद कर दिया वहीं अन्य क्रांतिकारी समाचार पत्रों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए थे। उस समय ईरान के शाह ने भारत में क्रांति के पक्ष में अपना बयान जारी किया था और अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत कर क्रांति के माध्यम से देश को आजाद करने के लिए भारत के लोगों को और विशेष रूप से मुसलमानों को प्रोत्साहित किया था। शाह की यह सूचना 19 मार्च 1857 को दिल्ली की मस्जिदों में चिपका दी गई थी।
इस प्रकार के सामाजिक राजनीतिक परिवेश में कोतवाल धन सिंह गुर्जर ने 1857 की क्रांति का शुभारंभ मेरठ से किया था। उससे पहले मंगल पांडे 29 मार्च को अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठाने के अपराध में 8 अप्रैल को फांसी पर चढ़ चुके थे।
उस समय महर्षि दयानंद जी महाराज ने माउंट आबू से लेकर हरिद्वार तक की यात्रा की थी और देश के लोगों को क्रांति के लिए प्रेरित कर क्रांतिकारियों का साथ देने का आवाहन किया था। बाबा औघड़नाथ के नाम से मेरठ में उन्होंने कोतवाल धनसिंह गुर्जर सहित अनेक क्रांतिकारियों को अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े होने की राष्ट्रभक्ति पूर्ण प्रेरणा दी थी। इस प्रकार अनेक देशभक्तों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल फूंक कर देश को नई दिशा दी। उनके पुरुषार्थ को आज हम नमन करते हैं। क्योंकि उन्हीं के पुरुषार्थ के चलते देश 90 वर्ष पश्चात स्वाधीनता की खुली सांसो को लेने में सक्षम हो पाया था।
हमारा मानना है कि क्रांतिकारियों को नमन करने से या श्रद्धांजलि अर्पित करने से काम नहीं चलेगा। देश आज भी एक नई क्रांति की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। यह क्रांति उस बौद्धिकता के विरुद्ध किए जाने की आवश्यकता है जो अभी भी अंग्रेजों की गुलाम है। हमारी भाषा गुलाम है, हमारी भूषा गुलाम है ,हमारी सोच गुलाम है और हमारा चिंतन गुलाम है। जिन लोगों को स्वयं को श्रीराम और श्रीकृष्ण की संतान कहने पर शर्म आती है उन लोगों के विरुद्ध इस समय क्रांति की आवश्यकता है। जिन्हें राम मंदिर के निर्माण पर आपत्ति हुई है, उनसे भी देश को मुक्त कराने की आवश्यकता है। जो वेदों को ग्वालों के गीत कहते हैं और उनका उपहास उड़ाते हैं, उनके विरुद्ध भी क्रांति की आवश्यकता है। जो लोग यज्ञ, हवन, गाय ,गंगा ,गीता का विभिन्न प्रकार से मजाक उड़ाते हैं, उनकी सोच को भी दुरुस्त करने की आवश्यकता है।
जो लोग भारत का खाकर पाकिस्तान के गीत गाते हैं, देश को तोड़ने के लिए विदेशों में बैठकर गठबंधन करते हैं या सत्ता का सौदा करने के लिए देश की बलि चढ़ाते हैं, जो लोग विदेशों को भारत के विरुद्ध उकसा कर देश में अस्थिरता पैदा करने का प्रयास करते हैं, जो लोग भारत की आत्मा को विदेशों से आयातित घोषित करते हैं। देश के चिंतन को और मौलिक चेतना को अपनी बकवास पूर्ण लेखन शैली से पददलित करते हैं या झूठा इतिहास लेखन कर देश की युवा पीढ़ी को बिगाड़ रहे हैं कलम के उन गद्दारों के खिलाफ भी क्रांति की आवश्यकता है।
जिन्होंने देश के खानपान को बिगाड़ा है या देश से गद्दारी करते हुए देश के युवाओं को नशे की लत लगाकर उन्हें बिगाड़ने का काम किया है या खाद्य पदार्थों में मिलावट करते हैं और देश के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करते हैं, देश को उन लोगों से भी मुक्त कराने की आवश्यकता है।
क्रांति कहकर नहीं आती है। जा क्रांति की ललकार ,क्रांति की पुकार और क्रांति की हुंकार एक आवाहन बनकर देश की चेतना को झकझोरती है तो देश के लोग उठ खड़े होते हैं। आज हमें इन सब चीजों को समझने की आवश्यकता है।
- डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं)