कर्नाटक संगीत के कवि त्यागराज का 4 मई को हुआ था जन्म, भगवान श्रीराम को समर्पित थे सभी गीत

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अनन्या मिश्रा

त्यागराज ‘कर्नाटक संगीत’ के महान ज्ञाता और भक्ति मार्ग के एक प्रसिद्ध कवि थे। त्यागराज ने भगवान श्रीराम को समर्पित भक्ति गीतों की रचना की थी। उन्होंने समाज और साहित्य के साथ-साथ कला को भी समृद्ध करने का काम किया था। त्यागराज की हर रचना में इनकी विद्वता झलकती है। बता दें कि आज ही के दिन यानी की 4 मई को फेमस कवि त्यागराज का जन्म हुआ था। इनके द्वारा रतिच ‘पंचरत्न’ कृति को सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसके साथ ही कहा तो यह भी जाता है कि त्यागराज के जीवन का कोई भी पल भगवान श्रीराम से जुदा नहीं था। आइए जानते हैं इनके जन्मदिन के मौके पर कवि त्यागराज के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में…

जन्म और शुरूआती जीवन

प्रसिद्ध संगीतज्ञ त्यागराज का जन्म तमिलनाडु के तंजावुर ज़िले में तिरूवरूर नामक स्थान पर 4 मई, 1767 को हुआ था। इनके पिता नाम रामब्रह्मम और माता का नाम सीताम्मा था। त्यागराज ने अपनी एक कृति में सीताम्मा मायाम्मा श्री रामुदु मा तंद्री यानी की सीता मेरी मां और श्रीराम को अपना पिता कहा है। त्यागराज का जन्म एक परम्परावादी, रूढ़िवादी हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जिसके कारण छोटी उम्र से ही उनका धार्मिक गीतों के प्रति विशेष लगाव पैदा हो गया था। इनके नाना कवि गिरिराज तंजावुर के महाराजा के दरबारी कवि और संगीतकार थे। वहीं त्यागराज को कवि बनाने में उनके नाना का विशेष योगदान था। त्यागराज प्रकांड विद्वान और कवि होने के साथ ही संस्कृत, ज्योतिष तथा अपनी मातृभाषा तेलुगु के ज्ञाता थे।

संगीत के प्रति लगाव

त्यागराज का संगीत के प्रति लगाव बचपन से ही था। ये कम उम्र में ही सोंती वेंकटरमनैया के शिष्य बन गए थे। बता गें कि सोंती वेंकटरमनैया उच्चकोटि के संगीत के विद्वान थे। उन्होंने औपचारिक संगीत शिक्षा के दौरान शास्त्रीय संगीत के तकनीकी पक्षों विशेष महत्व न देते हुए आध्यात्मिक तथ्यों पर अपना ध्यान केंद्रित किया। त्यागराज ने किशोरावस्था में ही अपने पहले गीत ‘नमो नमो राघव’ की रचना की थी। वहीं कुछ सालों बाद जब त्यागराज ने अपने गुरु से औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर ली तो सोंती वेंकटरमनैया के द्वारा उन्हें संगीत प्रस्तुति के लिए बुलाया गया।

इस संगीत समारोह में त्यागराज ने अपने गुरु को अपनी प्रतिभा और संगीत प्रस्तुति से मंत्रमुग्ध कर दिया। इस प्रस्तुति से प्रसन्न होकर उनके गुरु ने राजा की ओर से दरबारी कवि और संगीतकार के रूप में कार्य करने के लिए आमंत्रित कर दिया। हालांकि त्यागराज ने उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। त्यागराज की रचनाएं आज भी काफ़ी लोकप्रिय होने के साथ ही दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकास में प्रभावी योगदान रखती हैं। आज भी कई धार्मिक कार्यक्रमों में त्यागराज के सम्मान में इनके गीतों का खूब गायन होता है। मुत्तुस्वामी दीक्षित और श्यामा शास्त्री के साथ मिलकर त्यागराज ने संगीत को नयी दिशा प्रदान की। संगीत के क्षेत्र में इन तीनों के योगदान को देखते हुए दक्षिण भारत में इनको ‘त्रिमूर्ति’ की संज्ञा से सम्मानित किया गया।

दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकास में प्रभावी योगदान करने वाले त्यागराज की रचनाएं आज भी काफ़ी लोकप्रिय हैं. आज भी धार्मिक आयोजनों तथा त्यागराज के सम्मान में आयोजित कार्यक्रमों में इनका खूब गायन होता है. त्यागराज ने कर्नाटक संगीत को नयी दिशा प्रदान की. इन तीनों के योगदान को देखते हुए ही इन्हें दक्षिण भारत में ‘त्रिमूर्ति’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है.

दक्षिण भारत की यात्रा

तत्कालीन तंजावुर नरेश संगीतकार त्यागराज की प्रतिभा से बेहद प्रभावित थे। तंजावुर नरेश उन्हें अपने दरबार में शामिल होने के लिए भी आमंत्रित किया था। जिसे त्यागराज ने अस्वीकार कर दिया था। जिसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध कृति ‘निधि चल सुखम्’ जिसका अर्थ है कि क्या धन से ही सुख की प्राप्ति हो सकती है कि रचना की थी। त्यागराज भगवान श्रीराम की जिस मूर्ति की पूजा-अर्चना करते थे, उसे उनके भाई ने कावेरी नदी में फेंक दिया था। अपने आराध्य से अलग होना त्यागराज बर्दाश्त नहीं कर पाए और घर से निकल गए। दक्षिण भारत के कई स्थानों के भ्रमण करने के दौरान इनके कई शिष्य बनें। इन शिष्यों ने उनकी रचना को ताड़ के पत्रों पर संग्रहित किया। कहा जाता है कि त्यागराज ने उस दौरान 24 हजार से अधिक गीत गाए थे।

रचनाएं

अपने जीवनकाल में त्यागराज ने क़रीब 600 कृतियों की रचना करने के साथ ही दो तेलुगु नाटक ‘प्रह्लाद भक्ति विजयम्’ और ‘नौका चरितम्’ की रचना की थी। त्यागराज की हर रचना में उनकी विद्वता झलकती है। इसके अलावा उन्होंने ‘उत्सव संप्रदाय कीर्तनम्’ और ‘दिव्यनाम कीर्तनम्’ की भी रचना की। त्यागराज के ज्यादातर गीत तेलुगु भाषा में उपलब्ध हैं।

मौत

त्यागराज ने तंजौर जिले के तिरूवरूर में 6 जनवरी, 1847 को समाधि ले ली।

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