भावना मिट जायें मन से पाप अत्याचार की
कई बार ऐसा भी होता है कि व्यक्ति छोटी-छोटी बातों को स्वाभिमान का प्रश्न बना लेता है, और उन्हीं में बह जाता है। बात-बात पर कहने लगता है कि-यह बात तो मेरे स्वाभिमान को चोट पहुंचा गयी, और कोई भी व्यक्ति मेरे स्वाभिमान को चोटिल नहीं कर सकता। जबकि उन्हीं परिस्थितियों में एक धीर-वीर गंभीर व्यक्ति भी रहता है और वह दूसरों की ऐसी कई अनर्गल बातों को या बकवास को अपने गले ही नही लगाता-जिससे उसका मानसिक संतुलन बिगड़े। वह उन बातों को बड़ी सहजता से निकल जाने देता है, उसकी भावनाएं उसे बताती हैं कि इस व्यक्ति का मानसिक स्तर क्या है, और इसके किन परिस्थितियों में या किस मानसिकता के वशीभूत होकर तुझसे ऐसा कुछ कह दिया है जो तेरे लिए चोटिल और बोझिल हो गया है? वह उन सब परिस्थितियों पर विचार करके समय के अनुसार निर्णय लेता है, और यदि उसके स्वाभिमान को या भावनाओं को कहीं चोट पहुंची है-तो वह समय की प्रतीक्षा करता है। समय आने पर वह देखता है कि कई बार तो समय ही उसकी बातों का उत्तर दे देता है तो कई बार वह स्वयं अवसर को पहचानकर उस व्यक्ति को उत्तर देता है-जिसने उसकी भावनाओं को कहीं चोट पहुंचाई थी।
जो व्यक्ति समय की प्रतीक्षा करते हैं या समय के लिए भी कुछ प्रश्नों के उत्तर छोडक़र चलते हैं-वही व्यक्ति विवेकशील होते हैं। इस प्रकार विवेकशील होने का अर्थ है भावनाओं पर नियंत्रण रखना और भी अधिक उत्तमता से समझने के लिए विवेकशील होने का अर्थ है-आत्मानुशासित होना। आत्मा के आलोक में और उसके धर्म के शासन में रहना -अनुशासन है-यह आनंद की स्थिति होती है जिसमें भारी से भारी आवेग ऐसे मिटते रहते हैं, जैसे पानी में उठने वाले बुलबुले अपने आप ही उठते-मिटते रहते हैं। ऐसे धीर वीर गंभीर लोगों को देखकर पता चलता है कि स्वाभिमान क्या होता है और अभिमान क्या होता है? संसार के लोगों में से अधिकांश तो अभिमान को ही स्वाभिमान मानकर जीवन व्यतीत कर डालते हैं। उन्हें यह पता ही नही चलता है कि स्वाभिमान क्या है और अभिमान क्या है?
हिटलर परमदेशभक्त व्यक्ति था। पर वह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाया। स्टालिन जैसे लोग भी संसार के लिए उपयोगी हो सकते थे-पर वह भी अपनी भावनाओं पर नियंत्रणा नहीं रख पाया। हिटलर की देशभक्ति की भावनाएं अनियंत्रित हो गयीं तो स्टालिन की एक विचारधारा के प्रति जुडऩे की भावनाएं भावुकता में परिवर्तित होकर अनियंत्रित हो गयीं तो दोनों ही मानवता के लिए अभिशाप बन गये।
जो लोग आपसे सहमत नहीं हैं-उनके अज्ञान को मिटाकर सर्वप्रथम उन्हें सही रास्ते पर लाने का कार्य विवेकपूर्ण होता है। अपने से अहसमत लोगों को सीधे तलवार के घाट उतार देने की कार्यवाही बर्बरता कहलाती है। जिससे भावनाओं में पाप अत्याचार के भाव होने का पता चलता है। यही अभावना है। जब यह अभावना किसी के प्रति पाप और अत्याचार से भरने लगती है और मनुष्य उसमें जलने लगता है तब यह दुर्भावना बन जाती है।
सत्यपाल शास्त्री कहते हैं :-”भावुकता में आकर ही मानव अभावना उत्पन्न कर लिया करता है। जिसका परिणाम महाभयंकर होता है। अत: मानव भावुकता में कुछ का कुछ कर बैठता है। कहीं जड़ को चेतन कहता है-तो कहीं चेतन को जड़ कहता है। यही अभावना कहाती है। अभावना की कोई सत्ता नहीं होती है, क्योंकि अभावना भावना से उलट जो ठहरी। जैसे जड़मूत्र्ति में चेतन परमेश्वर की भावना करना। मानव समझता है कि मैंने भावना की है किंतु यह तो स्पष्ट अभावना ही है। यदि जड़मूत्र्ति में भावना होती तो उसे जड़ ही समझा जाता। ऐसे ही कई बार चेतन पदार्थों में जड़भाव पैदा होना भी अभावना ही है।”
अब एक उत्कृष्ट भावना का उदाहरण लेते हैं। हम जब यज्ञ करते हैं तो ‘स्विष्टकृताहुति’ उसमें हम देते हैं। उसका मंत्र यह है :-
ओ३म् यदस्य कर्मणोअत्यरीरिचं यदा न्यून मिहाकरम्। अग्निष्टत् स्विष्टकृद विद्यात् सर्वम् स्विष्टम् सुहुतम् करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समद्र्घयित्रे सर्वान्न: कामान्त् समद्र्घय स्वाहा। इदमग्नये स्विष्टकृते-इदन्नमम्।। (शत: 14-9-4-24)
अर्थ-‘हे सर्वरक्षक परमात्मन! इस यज्ञ कर्म के अनुष्ठान में जो किसी विधि का अतिक्रमण हो गया है, अथवा इस कर्म में जो कुछ न्यूनता मुझसे रह गयी है, दोषनिवारक ज्ञान स्वरूप और इच्छाओं को भलीभांति पूर्ण करने वाला परमात्मा! मेरे द्वारा अनुष्ठित समस्त यज्ञकर्म को श्रद्घा अवस्था से अनुष्ठित किया हुआ जाने और माने और उस यज्ञकर्म को भली-भांति आहुति दिया हुआ अर्थात यज्ञ के लक्ष्य को प्राप्त कराने वाला बनाये। मैं इस पवित्र भावना से दोषनिवारक ज्ञान प्रकाश स्वरूप श्रद्घा आस्था से अनुष्ठित यज्ञ को सफल बनाने वाले अच्छी प्रकार दी हुई आहुतियों को लक्ष्य तक पहुंचाने वाले सब प्रायश्चित आहुतियों को और समस्त कामनाओं के फल को देकर बढ़ाने वाले परमात्मा के लिए यह आहुति देता हूं। वह हमारी प्रार्थना हमारी सब कामनाओं को पूर्ण कर हमें उन्नत करे। यह आहुति दोषनिवारक ज्ञान प्रकाश स्वरूप यज्ञ को सफल बनाने वाले परमात्मा के लिए है यह मेरी नहीं है।’
इस मंत्र में परमपिता परमात्मा को दोषनिवारक कहा गया है। उसके नाम जाप करने वालों को इसका अनुभव है कि उसे दोष निवारक क्यों कहा गया है? गायत्री मंत्र के अर्थ पूर्वक जप से उस ईश्वर के इस गुण का बोध तब होता है जब हमारे भीतर व्याप्त दोषों का निवारण होने लगता है और हमारी बुद्घि सन्मार्गगामिनी होने लगती है। इसी को ‘बुद्घि का ठिकाने’ पर आ जाना कहा जाता है। जब बुद्घि ठिकाने पर आ जाती है तो उसमें किसी प्रकार का दोष नही रहता।
क्रमश: