हमारे ऋषियों की दृष्टि में आकाश भी है दो प्रकार का
ईश्वर एवं जीव( अर्थात आत्मा या जीवात्मा) यह दोनों चेतन हैं। प्रकृति जड़ है। ईश्वर से जीव पृथक है। प्रकृति नाशवान नहीं, जगत नाशवान है। ईश्वर और जीव दोनों से प्रकृति पृथक है। तीनों अनादि, अजर, अमर है। तीनों की सत्ताएं अलग अलग हैं।
सृष्टि का निर्माण ईश्वर जीव के लिए प्रकृति के तीन तत्वों से करता है। अर्थात जीव इस प्रकृति का भोक्ता है।
प्रकृति का भोग करके ही जीव फंसता है संसार में आकर।
इसी से सुख दु:ख भोगता है। क्योंकि जीव ही कर्ता है। जो जीव पाप अथवा पुण्य करता है वही भोक्ता है यह ईश्वर का नियम है। क्योंकि ईश्वर साक्षी है। जीव साक्षी नहीं। सत ,रज और तम सभी के शरीर के उपादान कारण हैं। इसीलिए सत ,रज और तम पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है।
इसीलिए कहते हैं कि जो पिंड में वही ब्रह्मांड में जो ब्रह्मांड में वही पिंड में है।अर्थात सत , रज और तम पिंड में और ब्रह्मांड में व्याप्त है।
सृष्टि दो प्रकार की होती है। एक जड़, दूसरी चेतन।
चेतन सृष्टि वह है जिसमें प्रयत्न, इच्छा, ज्ञान, सुख-दुख, राग द्वेष गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं।जड़ सृष्टि वह है जिसमें ज्ञान प्रयत्न आदि नहीं है।जिस प्रकार चेतन सृष्टि के विषय में बताया गया कि वह दो प्रकार की होती है एक मनुष्य की व दूसरे पशु, पक्षी, पेड़, पौधे इत्यादि की।
इसी प्रकार जड़ सृष्टि भी दो प्रकार की होती है। एक परमाणु सहित, दूसरी परमाणु रहित।प्रकृति जड़ है और जड़ता उसका स्वाभाविक गुण है। जो जिसका स्वाभाविक गुण होता है उससे जो भी वस्तु व्युत्पन्न अर्थात उपपादन होती है उसके स्वाभाविक गुण व्युत्पन्न हुई वस्तु में जाते हैं।
जैसे अग्नि का गुण उष्णता है जो उसके संपर्क में आएगा उसमें उष्णता आएगी और पानी का गुण ठंडा होना है तो पानी के संपर्क में जो आएगा वह ठंडा हो जाएगा। इन्हें स्वाभाविक गुण कहते हैं।इस प्रकार प्रकृति से जो भी व्युत्पन्न होगा उसमें जडता ही रहेगी। प्रकृति से पिंड और ब्रह्मांड दोनों की उत्पत्ति है इसलिए पिंड और ब्रह्मांड दोनों ही अचेतन हैं, जड़ हैं।
जड़ सृष्टि जो परमाणुओं से बनी होती है उसमें पृथ्वी ,अग्नि ,जल, आकाश और वायु होते हैं। क्योंकि ये 5 सूक्ष्म भूतों से बनी होती है। प्रकृति से ईश्वर ने सत, रजस और तमस तीनों परमाणुओं को अथवा तत्वों को लेकर के महतत्व( महतत्तव बुद्धि को शास्त्रों की भाषा में कहते हैं) का निर्माण किया। सत ,रजस और तमस यह तीनों सूक्ष्म रूप में होते हैं।
माता के गर्भ में सर्वप्रथम निर्माण जब बच्चे का होना प्रारंभ होता है तो उसमें महतत्व प्रदान किया जाता है।महतत्व भी सूक्ष्मतम होता है। महतत्व बुद्धि को कहते हैं।महतत्व से अहंकार पैदा होता है। अर्थात अहंकार का उपादान कारण बुद्धि है। अहंकार भी सूक्ष्म होता है लेकिन महतत्व से सूक्ष्म नहीं होता। बल्कि बुद्धि अर्थात महतत्व सूक्ष्मातिसूक्ष्म है।
हमने देखा कि महतत्व अहंकार का उपादान कारण है। अहंकार से 5 ज्ञानेंद्रियां (तन्मात्राएं),पांच प्राण ( प्राण ,अपान ,समान, उदान, व्यान )और 11 वां मन बनते हैं। इस प्रकार पांच सूक्ष्म भूत अथवा तन्मात्राओं क्रमशः रूप, रस, गंध, शब्द एवं स्पर्श, (जिन्हें नाक, कान, आंख, रसना ,त्वचा) ज्ञानेंद्रियां भी कहते हैं )और पांच कर्मेंद्रियां (हाथ , पांव ,वाणी ,मल, मूत्र )तथा मन का उपादान कारण अहंकार है।
पांच सूक्ष्म भूतों से पांच स्थूल भूत पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु उत्पन्न होते हैं। अर्थात सूक्ष्म भूत 5 स्थूल भूतों के उपादान कारण होते हैं।
ध्यान रहे यह आकाश जो सूक्ष्म भूतों से स्थूल भूत के रूप में परिवर्तित हुआ वह परमाणुओं से बना होता है । इसको परमाणु सहित आकाश कहते हैं। क्योंकि उसमें सत, रज और तम तीनों के प्रारंभिक परमाणु तथा प्रकृति सूक्ष्म रूप में होती है। जहां प्रकृति होगी वहां परमाणु होगा।
पांच प्राण, पांच ज्ञानेंद्रिय, पांच सूक्ष्म भूत, मन, बुद्धि और अहंकार इन 18 तत्वों से मिलकर सूक्ष्म शरीर बनता है। जो जन्म मरण में भी जीवों के साथ रहता है।
सूक्ष्म शरीर भी दो प्रकार का होता है। एक भौतिक, दूसरा अभौतिक। भौतिक उसे कहते हैं जो भूतों से बना है अर्थात सूक्ष्म भूतों से जो बना है। दूसरा अभौतिक शरीर मुक्ति में भी साथ रहता है जिससे जीव मुक्ति में सुख को भोगता है।
लेकिन महर्षि दयानंद द्वारा अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में यह उल्लेख किया है कि जब ईश्वर सृष्टि का निर्माण करता है तो ईश्वर निमित्त कारण है। प्रकृति उपादान कारण है।
तब ईश्वर ,जीव और प्रकृति यह तीनों पूर्व से ही विद्यमान रहते हैं। अर्थात यह तीनों ही सृष्टि के कारण हैं।
उपरोक्त के अतिरिक्त
इस को और अधिक स्पष्ट करते हुए महर्षि दयानंद ने लिखा है कि “वैसे जगत की उत्पत्ति के पूर्व परमेश्वर, प्रकृति, काल ,आकाश, तथा जीवो के अनादि होने से इस जगत की उत्पत्ति हुई।”
अर्थात ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीनों के अतिरिक्त दिशा, काल और आकाश भी पूर्व से विद्यमान रहते हैं जो सृष्टि निर्माण के लिए साधारण कारण होते हैं।
परंतु दिशा, काल और आकाश जड़ सृष्टि में गिने जाते हैं।
यहां पर विशेष रुप से ध्यान देने योग्य बात है कि दिशा ,काल और आकाश में परमाणु नहीं होते हैं अर्थात यह वह जड़ सृष्टि है जो परमाणु रहित होती है।
दिशा, काल और आकाश तीनों की पूर्व से विद्यमानता के विषय में वैशेषिक दर्शन के पांचवें अध्याय के 21 वे मंत्र में महर्षि कणाद द्वारा भी स्पष्ट किया गया है।
दिशा, काल और आकाश यदि न होंगे तो भी सृष्टि का निर्माण नहीं हो सकता।
इस प्रकार एक आकाश वह है जो सूक्ष्म भूतों से उत्पन्न हुआ था उसमें परमाणु होते हैं और एक आकाश (अंतरिक्ष )वह है जो सृष्टि के निर्माण से पूर्व विद्यमान था। ऐसा आकाश परमाणु रहित होता है। अगर वह न होता तो यह ब्रह्मांड कहां रहता। यह पृथ्वी, जल ,अग्नि ,आकाश,वायु तथा आकाशस्थ अरबों आकाशगंगाऐं इसी आकाश में है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन :उगता भारत समाचार पत्र।