manu mahotsav banner 2
Categories
संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

स्वार्थ में डूबी राजनीति को तुलसीदास ने बताया-राजधर्म

तुलसीदास के राम कहते हैं…
तुलसीदास जी ने रामचंद्र जी के मुख से ‘परशुराम-राम संवाद’ के समय कहलवाया है :-
छत्रिय तनु धरि समर सकाना,
कुल कलंकु तेहिं पावर आना,
कहऊं सुभाऊ न कुलहि प्रसंसी,
क ालहु  डरहिं न रन रघुबंसी
अर्थात क्षत्रिय का शरीर धरकर जो युद्घ में डर गया, उस नीच ने अपने कुल को कलंक लगा लिया। मैं अपना स्वभाव कहता हूं, कुल की बड़ाई नही करता कि रघुवंशी रण में काल से भी नही डरते।
तुलसीदास जी ने समय के अनुसार देश-काल और परिस्थितियों के अनुकूल श्रीराम के मुंह से क्षत्रिय धर्म की मर्यादा को कहलवाया है। भारत में प्राचीन काल से ही क्षत्रिय की यही मर्यादा  रही है कि युद्घ से भागना नही है और युद्घ से भयभीत नही होना है। क्षत्रिय का यह गुण लोकतंत्र के भी अनुकूल है। क्योंकि युद्घ सदा (भारतीय परंपरानुसार) शोषित और उत्पीडि़त समाज के हितों की रक्षार्थ लड़ा जाता है, और लोकतंत्र शोषित और उत्पीडि़त लोगों को न्याय दिलाने में विश्वास रखने वाले शासन पद्घति है। जब एक सबल पक्ष या कुछ निर्दयी  लोगों का समुदाय किसी वर्ग विशेष या पक्ष विशेष के अधिकारों का हनन करने लगे और शोषित पक्ष ऐसे उत्पीडऩ का उचित प्रतिकार भी न कर सके, तो उसे शोषण, उत्पीडऩ और अत्याचार ही कहा जाता है, उसे युद्घ नही कहा जा सकता। दूसरों के कल्याणार्थ अपने प्राण संकट में डालना लोकतंत्र की मूल भावना को सदा ज्योतिर्मय रखना रामायण का मूल उद्देश्य है। उसी रामायण को अपनी कविता का मूल स्रोत तुलसीदास जी ने माना है।

यदि मैं देश का डिक्टेटर होता…..
लोकतंत्र का मूलाधार रामायण को मानते हुए वीर सावरकर लिखते हैं :-”अगर मैं देश का डिक्टेटर होता तो सबसे पहला काम यह करता कि महर्षि बाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण को जब्त करता। क्यों? इसलिए कि जब तक यह ग्रंथ भारतवासी हिंदुओं के हाथों में रहेगा, तब तक न तो हिंदू किसी दूसरे ईश्वर या सम्राट के सामने सिर झुका सकते हैं और न उनकी नस्ल का ही अंत हो सकता है।
अंतत: क्या है रामायण में   ऐसा कि वह गंगा की भांति भारतवासियों के अंत:करण में आज तक बहती ही आ रही है? मेरी सम्मति में रामायण लोकतंत्र का आदिशास्त्र है-ऐसा शास्त्र जो लोकतंत्र की कहानी ही नही, लोकतंत्र का प्रहरी, प्रेरक और निर्माता भी है। इसीलिए तो मैं कहता हूं कि अगर मैं इस देश का डिक्टेटर होता तो सबसे पहले रामायण पर प्रतिबंध लगाता। जब तक रामायण यहां है, तब तक इस देश में कोई भी डिक्टेटर पनप नही सकता। 
रामायण की शक्ति कौन कहे? क्या यही नजर आता है ऐसा सम्राट, साम्राज्य अवतार या पैगंबर जो राम की तुलना में ठहर सके? सबके खण्डहर आत्र्तनाद कर रहे हैं। किंतु रामायण का राजा, उसका धर्म, उसके द्वारा स्थापित रामराज्य भारतवासियों के मानस में आज तक भी ज्यों का त्यों जीवंत एवं विद्यमान है।
चक्रवर्ती राज्य को त्याग वल्कल वेश में भी प्रसन्नवदन, राजपुत्र, किंतु बनवासी, शबरी के बेद अहिल्या का उद्घार लंका जीती, मगर फूल की तरह उसे अर्पण कर दिया, उस विभीषण कोक जिसने डिक्टेटर व धमद्रोही भाई (रावण) का विरोध कर प्रजातंत्र का ध्वज फहराया था।
ऐसे थे रामायण के राम, जिनकी जीवन गाथा रामायण में अजर-अमर है। इस देश को मिटाने के लिए बड़ी-बड़ी ताकतें आयीं-मुगल, शक, हूण आये किंतु इसे वे मिटा न सके। कैसे मिटाते? पहले उन्हें रामायण को मिटाना चाहिए था।”
(विनायक दामोदर-सावरकर पृष्ठ 22)

सम्राट ऐसा होना चाहिए….
देश का राजा, मुखिया या सम्राट कैसा हो इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए तुलसीदास जी अपनी समकालीन लुटेरी राजव्यवस्था पर कड़ा प्रहार करते हैं, पर यह उनकी ही अनोखी प्रतिभा है, जो प्रहार करके भी अपनी बात को बड़ी सरलता से कह जाती है। वह कहते हैं :-
‘मुखिया मुखु सो चाहिए, खान पान कहुं एक।’ 
अर्थात मुखिया या देश का सम्राट तो मुख के समान होना चाहिए, जो खाने-पीने को तो एक ही है, पर विचारपूर्वक सब अंगों का पालन करता है। इसका अभिप्राय है कि शासक वर्ग को तुलसीदास जी कह रहे हैं कि तुम पक्षपाती और अन्यायी मत बनो, अपितु मुख के समान सबके प्रति न्यायशील और समदर्शी बनो।
‘अयोध्याकांड’ के इस दोहे के पश्चात तुलसीदास आगे कहते हैं :-
राजधर्म सरबसु एतनोई।
जिमि मन माहं मनोरथ गोई।।

अर्थात राजधर्म का सार इतना ही है कि जैसे मन में सभी मनोरथ छिपे रहते हैं। कहने का अभिप्राय  यह है कि वैसे ही राजधर्म में लोक  कल्याण की सारी उत्कृष्ट योजनाएं और पवित्र भावनाएं छिपी रहनी चाहिए। तभी राजधर्म लोकतंत्र की और विश्वशांति की रीढ़ बन सकता है। तुलसी कालीन विश्व में राजधर्म पथभ्रष्ट हो चुका था और वैश्विक स्तर पर लोगों में परस्पर की कटुता व्याप्त भी, जिससे सारा विश्व ही अनचाहे युद्घों से ग्रसित था। जिनसे बचने का सर्वोत्तम मार्ग यही था कि राजधर्म में लोक कल्याण अंतर्निहित होना चाहिए। 

भारत के प्राण हैं रामचंद्र 
रामचंद्र जी महाराज भारत में पूजनीय इसलिए बने कि उनके हृदय में सदा लोकल्याण की उच्चतम भावनाएं प्रवाहित होती रहती थीं। वीर सावरकर का कहना है :-
”जब श्रीराम अपने पिता के वचनों के पालन किंतु वास्तव में राक्षस दमन के लिए राज्य त्याग करके वन गये, तब उनका वह कार्य महत था। जब श्रीरामचंद्र ने लंका पर चढ़ाई की और धर्मयुद्घ के लिए सज्ज होकर रावण का वध किया, तब वह कृत्य महत्तर था। परंतु जब शुद्घि के पश्चात भी सीता को उपवन में-‘आराधनाम लोकस्य मुंचतानास्ति’ में व्यथा कहकर छोड़ दिया, तब उनका वह अवतार कार्य महत्तम था। श्रीराम ने व्यक्ति-संबंधित या कुल संंबंधित कत्र्तव्य अपने लोकनायक रूपी राजा के कत्र्तव्य के लिए बलिदान किये। वह दशरथ का पुत्र, वह लक्ष्मण का भाई, वह हनुमान का स्वामी, वह सीता का पति, वह रावण का निहंता, श्रीराम जब तक हिंदुस्तान के जनमन में व्याप्त है, तब तक हिंदुस्थान की सहज लब्ध रहने वाली है। श्रीराम को भूलते ही हिन्दुस्थान एक प्रकार से निष्प्राण हो जाएगा।”
(लंदन में 1909 में गांधीजी की अध्यक्षता में विजयदशमी-पर्व पर दिया गया भाषण)

मुगलों को तुलसीदास जी ने कहा है-भूमि चोर 
तुलसीदास जी के भीतर अयोध्या की श्रीराम जन्मभूमि को लेकर अतीव श्रद्घा थी। उस पवित्र भूमि पर जब बाबर ने अवैध नियंत्रण स्थापित कर लिया तो उन्हें असीम कष्टानुभूति हुई थी। उन्होंने अपनी एक अन्य पुस्तक ‘कवितावली’ में अपने मन की व्यथा इस प्रकार व्यक्त की है-
”एक तो कराल कलिकाल सूलमूल तामें,
कोढ़ में की खाजु सी सनीचरी है मीन की।
वेदधर्म दूरी गये भूमिचोर भूप भये।
साधु सीधमान जानि रीति पाप पीन की।”
यहां सीधे-सीधे रामजन्मभूमि का चोर बाबर को बताते हुए तुलसीदास अपने मन की व्यथा की अभिव्यक्ति कर रहे हैं।

नीति के बिना राज्य की गति
नीति के बिना राज्य चल नही सकता। अनीतिपरक राज्य संसार के लोगों के लिए विनाशकारी सिद्घ होता है। मनीराम द्विवेदी नवीन ने लिखा है :-
देख लिया किसी को बुरी दृष्टि से,
तो बुरे पाप को ले चुके ले चुके।।
रंच दुखाया किसी दुखी का दिल 
तो अभिशाप को ले चुके ले चुके।
किंचित भी लगा दाग चरित्र में,
तो अनुताप को ले चुके ले चुके।।
नीति जो न नवीन चले कभी, 
तो दुख पाप को ले चुके ले चुके।।
‘अरण्य-कांड’ में तुलसलदास जी कहते हैं :-
‘राजनीति बिनु धन बिन धर्मा हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा 
बिद्या बिनुद विवेक उपजायें
श्रम फल पढ़ें किये अरू पायें।’

अर्थात ‘नीति के बिना राज्य व धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, हरि को समर्पण किये बिना शुभ कर्म करने से और ज्ञान उत्पन्न हुए बिना विद्या पढऩे से परिणाम में केवल श्रम ही हाथ लगता है।’
पहले सल्तनतकाल में फिर मुगल काल में भारतवर्ष में राज्य बिना नीति के चल रहा था। इसलिए सर्वत्र अनीति व्याप्त होने के कारण शासन के प्रति लोगों में और लोगों के प्रति शासन में घृणा व्याप्त थी। ऐसी परिस्थितियों को ही अनीतिजनित अराजकता कहा जाया करता है। इसलिए अपनी समकालीन राज्यव्यवस्था को तुलसीदास जी एक प्रकार से सचेत कर रहे हैं कि यदि अपना भला चाहती है तो नीति का पालन करो।

राम का सीता के प्रति प्रेम बनाम शाहजहां का मुमताज के प्रति प्रेम
शाहजहां द्वारा कथित निर्मित ताजमहल को शाहजहां का अपनी बेगम मुमताज महल के प्रति असीम प्रेम का प्रतीक बताया जाता है, और उसे मौहब्बत की एक बेमिसाल नजीर में रूप में प्रस्तुत किया जाता है। पर यदि श्रीराम के जीवन पर तुलसीदास जी की लेखनी के माध्यम से दृष्टिपात किया जाए तो ज्ञात होता है कि जो रामचंद्रजी का अपनी पत्नी सीता के प्रति प्रेम है वह ही सच्चा प्रेम कहा जा सकता है। जिसका शतांश भी शाहजहां या किसी मुगल बादशाह ने अपनी बेगमों से नही किया होगा। क्योंकि इन लोगों के प्रेम को वासना कहना ही उचित होगा। जबकि रामचंद्र जी और सीता के प्रेम में वासना का लेशमात्र भी नही है। सीताजी रामचंद्र जी के  साथ 14 वर्ष वनवास में रहीं पर वहां कोई संतान उन्हें ना होना उन दोनों की संयमपूर्ण जीवन शैली का उदाहरण है। 

उर्मिला का त्याग
कई लोगों ने भ्रांति फैलाने का प्रयास करते हुए कहा है कि सीता से महान तो उर्मिला थी जो अपने पति लक्ष्मण से 14 वर्ष दूर रही, जबकि सीताजी तो प्रतिदिन ही अपने पति के साथ रहीं। ऐसा कहने वालों को तनिक यह भी विचारना चाहिए कि साथ-साथ रहकर संयम बरतना कहीं अधिक कठिन है, अपेक्षाकृत दूर-दूर रहकर संयम बरतने के।
राम एक पत्नी धर्म के प्रबल समर्थक हैं। इसलिए वह सूर्पणखा के विवाह प्रस्ताव को सविनय ठुकरा देते हैं। जबकि शाहजहां इत्यादि मुगल बादशाह अनेकों (हजारों की संख्या में) बेगमों को रखने वाले रहे और उन्होंने सूर्पणखा के विवाह प्रस्ताव की प्रतीक्षा किये बिना ही उसकी नाक भी काटी और आवश्यकता हुई तो सिर भी काटा, पर इसके उपरांत भी उनकी वासना शांत नही हुई।

राम का सीता के प्रति प्रेम
तुलसीदास जी ने राम के अपनी सहधर्मिणी सीता के प्रति असीम अनुरागपूर्ण प्रेम को ‘अरण्यकाण्ड’ में यूं कहकर प्रशंसित किया है :-
हे खग मृग के मधुकर स्रेनी,
तुम्ह देखी सीता मृग नैनी।।
अर्थात हे मृगो! हे भौरों की पांति तुमने कहीं मेरी मृगनयनी सीता देखी है।
राम के चरित्र में भी स्वाभाविकता है और उनके शब्दों में भी स्वाभाविकता है। यहां उनके शब्दों में कवि की ओर से अतिरंजना की गयी हो सकती है, परंतु इसकी स्वाभाविकता पर किसी ने आज तक कोई संदेह नही किया।

तुलसीदासजी ने दिया मुगलों को संदेश
तुलसीदास जी ने मुगलों का नारियों के प्रति व्यवहार और उन्हें केवल उपभोग की वस्तु मानने की उनकी धार्मिक मान्यता को निकट से देखा, इस्लाम में नारी की दुर्गति को भी उन्होंने निकटता से देखा। तब उन्होंने अपने प्रभु राम के मुंह से वे शब्द निकाले जिनसे उनके भीतर नारी जाति के प्रति असीम श्रद्घा और प्रेम झलकता है। यह प्रेम नि:स्वार्थ है, आत्मिक है वास्तविक है। यह प्रेम नि:स्वार्थ है, आत्मिक है, वास्तविक है और हार्दिक है। तुलसीदास जी इसी प्रेम को विस्तार देना चाहते हैं और एक पत्नी एक पति की वैदिक धारणा का विस्तार करना चाहते हैं। इसलिए अपने राम को नारी की स्वतंत्रता का प्रतीक बनाकर सीता के वियोग में लगभग विलाप करता दिखाते हैं।
हमने ‘नारी की स्वतंत्रता’ शब्द का प्रयोग ऊपर किया है। इसका प्रयोग करने का हमारा प्रयोजन केवल इतना है कि यदि तत्कालीन मुगल शासक एक पत्नी धर्म के उपासक हो जाते तो हजारों उन महिलाओं को अपना स्वतंत्र जीवन जीने का अवसर मिल सकता था जो मुगलों के वासनालयों (हरमों) में हजारों की संख्या में ठूंस दी गयी थीं और वहां नारकीय जीवन जी रही थीं। नारी के प्रति राम की श्रद्घा को शब्दों की अभिव्यक्ति देकर नारी को नारकीय जीवन से मुक्त कराकर स्वतंत्रता की खुली हवाओं में सांस लेने के लिए तत्कालीन सत्ता को प्रेरित करना तुलसीदासजी का उद्देश्य था।

असीम बंधु प्रेम
रामचंद्रजी का भ्रातृप्रेम भी अनुकरणीय है। वह अपने भाई भरत से वन में जिस प्रकार मिले और उसे राजनीति का सदुपदेश देकर वन से अयोध्या लौटा दिया, वह उनके मर्यादित और संयमित जीवन का उत्कृष्ट उदाहरण है।
वेद में आया है :-
‘मां भ्राता भ्रातरं द्विक्षत’् (अथर्व 3/3/3) अर्थात भाई-भाई से द्वेष न करे। रामचंद्रजी ने इस आदर्श को अपने जीवन में उतार कर दिखाया। उन्होंने कैकेयी द्वारा अपने पुत्र भरत के लिए राज्य सिंहासन मांग लेने पर भी उस घटना के लिए अपने भाई भरत को दोषी नही माना और उसके प्रति तनिक भी मन में घृणा का भाव उत्पन्न नही होने दिया।
जब लक्ष्मण को शक्ति बाणों ने मूच्र्छित कर दिया तो तुलसी के राम ने जो शब्द कहे वह भी अमर हो गये। उन्होंने कहा-
जो जनतेऊं बनबंधु बिछोहंू।,
पिता वचन मनतेऊं नहि ओहंू।।
जथा पंख बिनु खग अति दीना।
मनि बिनु फनि करिवर करि हीना।।
अस मम जिवन बंधु बिन तोही।
ज्यों जड़ दैव जियावै मोही।।
जैहों अवध कौन मुंह लाई।
नारि हेतु प्रिय बंधु गंवाई।।

रामचंद्रजी कह रहे हैं कि-‘यदि मुझे ऐसा ज्ञान होता कि जंगल में प्राणप्रिय भाई का (अर्थात लक्ष्मण का) वियोग होगा, तो मैं पिता के वचनों को न मानता। जिस प्रकार बिना पंखों के पक्षी अति असमर्थ हो जाता है और नाग जिस प्रकार मणि के बिना हो जाता है और हाथी बिना सूंड के हो जाता है, इसी प्रकार तुम्हारे बिना मेरा जीवन हो गया है। अब मैं अयोध्या में कौन से मुंह से जाऊंगा? लोग कहेंगे कि अपनी पत्नी के लिए अपने प्यारे भाई को खो आया है।’
समकालीन इतिहास और राजनीति को यदि देखें तो उस समय मुगल राजनीति सत्ता षडय़ंत्रों के कारण भाई-भाई को परस्पर एक दूसरे के रक्त का प्यासा बना रही थी। तब तुलसीदास जी ने राजनीति और राजधर्म को राम के आदर्श जीवन चरित से शिक्षा लेने के लिए प्रेरित किया। इसके साथ ही साथ हिंदू राजाओं में भी जहां-जहां राजघरानों में पारिवारिक कलह व्याप्त था, वहां से उसे भी निकालने के लिए उन्हें प्रेरित किया कि तुम्हारे पूर्वज कितने महान थे? अत: उनके आदर्श जीवन को अपने लिए अनुकरणीय बनाओ।

राजनीति को बताया- ‘परहित सरिस धरम नही भाई’
तुलसीदास कालीन राजनीति पथभ्रष्ट थी, इसलिए सर्वत्र अन्याय का बोलबाला था। अपने लेखनी धर्म के माध्यम से तुलसीदास जी ने लिखा-
परहित सरिस धर्म नही भाई।
पर पीड़ा सम नहि अधमाई।
नर शरीर धरि जे परपीरा।
करहिं ते परहिं महाभव भीरा।
परहित बस जिन्ह कै मन माहि।
तिन्ह कह जगदुलम कछु नाही।

अर्थात ”परोपकार के समान कोई धर्म नही है और पर पीड़ा के प्रति संवेदनाशून्य रहने के समान नीचता नही है। मनुष्य शरीर को धारण करके जो दूसरों को कष्ट देते हैं, वे संसार में दुखों को प्राप्त होते हैं (मुगल शासकों को इसलिए चाहिए कि वे हिंदुओं को किसी प्रकार का कष्ट न दें, ये इसका निहित अर्थ है) जिसका मन परहित में लगा है, उनके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नही है। जिनके मन, वचन और कर्म में परोपकार की भावना है, वे सहज भाव से ही संत कहे जाने लगते हैं।”

भगवान बुद्घ के जीवन का एक दृष्टांत
एक दिन एक नगर में जब भगवान बुद्घ पधारे तो मंत्री ने कहा-‘महाराज! भगवान बुद्घ का स्वागत करने आप नगर द्वार तक स्वयं हमारे साथ चलें।’
मंत्री की इस बात पर राजा को बड़ा क्रोध आया वह क्रोधित मुद्रा में बोला-‘मेरा एक भिक्षु के स्वागत के लिए अपने राज्यसिंहासन को छोडक़र नगर द्वार तक जाने का भला क्या प्रयोजन? यदि बुद्घ को मुझसे मिलने की आवश्यकता होगी तो वह स्वयं ही यहां आ जाएंगे।’
राजा का मंत्री विद्वान था। वह कुछ गंभीर होकर बोला-‘राजन घमण्ड राजधर्म को खा जाता है, विनम्रता दूसरों को सम्मान देने का भाव और लोकोपकार की भावना से ही राज्य स्वामी उन्नति करता है, उसी से राजा का आयुष्य बढ़ता है। मुझे आपके इस प्रकार के व्यवहार से अत्यंत कष्ट हुआ है, इसलिए मैं अपने पद से त्यागपत्र देता हूं। उसने त्यागपत्र में लिखा-‘मैं आप जैसी संकीर्ण मानसिकता ेके व्यक्ति की अधीनता में काम नही कर सकता। आप में बड़प्पन का अभाव है। राजोचित व्यवहार आपका नही है।’
राजा का घमण्ड था कि टूटने का नाम नही ले रहा था। उसने त्यागपत्र की भाषा को पढ़ा और पढक़र बोला कि-अपने बड़प्पन के कारण ही तो मैं बुद्घ का स्वागत करने नही जा रहा हूं।
तब मंत्री ने कहा-राजन अकड़ और घमण्ड को कभी भी बड़प्पन नही कहा जा सकता। भगवान बुद्घ भी कभी सम्राट थे।  उन्होंने राजसिक वैभव को त्यागकर भिक्षु पात्र ग्रहण किया है, इसलिए भिक्षु पात्र साम्राज्य से श्रेष्ठ है। आप भगवान बुद्घ से एक अवस्था पीछे हैं, क्योंकि वह सम्राट होने के बाद ही भिक्षु बने हैं।
विद्वान मंत्री की बात सुनकर राजा की आंखें खुल गयीं। उसका घमण्ड भगवान बुद्घ के त्यागमय जीवन के ज्ञान से चूर-चूर हो गया। उसने मंत्री सहित बुद्घ के पास जाकर उनसे दीक्षा ग्रहण की।
परहित के मार्ग पर चलने वाले लोग भारतीय राजधर्म के प्रेरणा स्रोत रहे हैं। राम का जीवन ऐसा ही था, तुलसीदास परहितार्थ जीवन जीने वाले मर्यादा पुरूषोत्तम राम को समकालीन राजनीति का प्रेरणा स्रोत बना देना चाहते थे। क्योंकि वह जानते थे कि इसी प्रकार के आदर्श राजाओं के आदर्श जीवन से ही जनकल्याण होना संभव है। अपने कालजयी ग्रंथ रामचरितमानस में उन्होंने पग-पग पर स्वतंत्रता, परहित, मर्यादा इत्यादि मानवीय गुणों को राजनीति का और व्यक्ति के चरित्र का गुण बनाने पर बल दिया है। इसलिए ‘रामचरिमानस’ ने हमें संकट के उन दिनों में अपने वैभव और गौरव के साथ जोडऩे का प्रशंसनीय कार्य किया था।
क्रमश:

Comment:Cancel reply

Exit mobile version