आशा से ही मनुष्य कर्म करता है
बिखरे मोती-भाग 173
गतांक से आगे….
महर्षि सनत्कुमार ने कहा-ध्यान से बड़ा विज्ञान है। विज्ञान द्वारा ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद आदि, द्यु, पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि तथा धर्म-अधर्म सत्य-असत्य इत्यादि का ज्ञान होता है। इसलिए हे नारद! तू विज्ञान की उपासना कर। नारद ने फिर पूछा, विज्ञान से बढक़र क्या है? भगवन।
महर्षि सनत्कुमार ने उत्तर दिया-विज्ञान से बड़ा बल है। जैसे आत्मबल, मनोबल बुद्घिबल, संगठन बल, शारीरिक बल, प्राणबल इत्यादि। इतना ही नही, बल से ही पृथ्वी ठहरी हुई है, बल से आकाश, द्युलोक, पर्वत, पठार, मैदान, सरिता, सागर, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट-पतंग, पिपीलिका इत्यादि ठहरे हुए हैं। याद रखो-नियम रूपी बल से सब लोक अपनी अपनी मर्यादा में ठहरे हुए हैं। भाव यह है कि भगवान के नियम रूपी बल से सब लोक अपनी-अपनी मर्यादा में ठहरे हुए हैं। हे नारद! तू बल की उपासना कर किंंतु बल ही गति की भी एक सीमा है। इस पर नारद ने पूछा, तो क्या भगवन! बल से बढक़र भी कुछ है? महर्षि सनत्कुमार ने उत्तर दिया-हां, है। नारद ने कहा, तो भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, अन्न बल से बड़ा है। अन्न के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता है। अन्न के बिना शारीरिक क्रियाएं शिथिल हो जातीं हैं, समाप्त हो जाती हैं। हे नारद! तू अन्न की उपासना कर, किंतु अन्न की गति की भी एक सीमा है। नारद ने पूछा तो क्या भगवन! अन्न से बढक़र भी कुछ है?
महर्षि सनत्कुमार ने उत्तर दिया, जल अन्न से बड़ा है। जल के बिना अन्न, औषधि, वनस्पति तथा अन्य सभी प्राणधारी जीवित नहीं रह सकते हैं। इसलिए हे नारद! तू जल की उपासना कर किंतु जल की गति की भी एक सीमा है। नारद ने पूछा, तो क्या भगवन! जल से बढक़र भी कुछ है? महर्षि सनत्कुमार ने उत्तर दिया-हां है। नारद ने कहा, तो भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा ‘तेज’ (अग्नि) जल से बड़ा है। ये तेज ही जब वायु को साथ लेकर नभ को तपाता है, तब सब कह उठते हैं,-सूखा पड़ रहा है, तपिश बढ़ रही है, अब अवश्य बरसेगा। तेज पहले अपने करतब दिखाकर जल की सृष्टि करता है। तेज ही नभ में ऊपर जाकर तिरछी बिजलियों के साथ गर्जनाएं करता हुआ चलता है और पृथ्वी पर वर्षा करता है। अन्न, औषधि वनस्पति और प्राणियों में नवजीवन का संचार करता है। इसलिए हे नारद! तू तेज की उपासना कर, किंतु तेज की गति की भी एक सीमा है। नारद ने पूछा तो क्या भगवन! तेज से बढक़र भी कुछ है? महर्षि सनत्कुमार ने कहा, हां है। नारद ने कहा, तो भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, आकाश तेज से बड़ा है। आकाश तेज का आश्रय-स्थल है। आकाश में ही विद्युत नक्षत्र और अग्नि है। सूर्य-चंद्र भी आकाश में विचरते हैं। आकाश से शब्द सुना जाता है तथा उत्तर भी दिया जाता है। आकाश में रमन-गमन होता है, आकाश में बीज का अंकुरण होता है, आकाश में ही पैदा होते हैं और आकाश में ही वृद्घि होती है। हे नारद! तू आकाश की उपासना कर, किंतु आकाश की गति की भी एक सीमा है। नारद ने पूछा, तो क्या भगवन! आकाश से बढक़र भी कुछ है? महर्षि सनत्कुमार ने कहा हां है। नारद ने कहा भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, ‘स्मृति’ आकाश से बड़ी है। आकाश में शब्द आता है और चला जाता है जबकि ‘स्मृति’ में तो शब्द स्थिर होकर बैठ जाता है। प्राणी ‘स्मृति-शक्ति’ से ही अपने-पराये की पहचान करता है। इसलिए हे नारद! तू ‘स्मृति’ की उपासना कर किंतु ‘स्मृति’ की भी एक सीमा है। नारद ने कहा, भगवन! ‘स्मृति’ से बढक़र भी कुछ है? महर्षि सनत्कुमार हां है। तो भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, ‘आशा’ स्मृति से बड़ी है। स्मृति का भूतकाल से संबंध है जबकि आशा का संबंध सुनहले भविष्य से है। आशा से प्रेरित होकर ही स्मृति मंत्रों का स्मरण करती है। आशा से ही मनुष्य कर्म करता है। आशा से ही मनुष्य पुत्र-पशु धन-ऐश्वर्य तथा इस लोक और परलोक की इच्छा करता है। हे नारद! तू ‘आशा’ की उपासना कर।
क्रमश: