न्याय दर्शन के प्रवर्तक : महर्षि गौतम
न्याय दर्शन के प्रवर्तक ऋषि गौतम हैं। जिनका न्यायसूत्र इस दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अहिल्या इन्हीं की पत्नी का नाम था। इनके पुत्र का नाम शतानंद और पुत्री का नाम विजया था। न्याय दर्शन को सूत्रबद्ध और व्यवस्थित स्वरूप देने का श्रेय महर्षि गौतम को ही जाता है। महर्षि गौतम शस्त्र विद्या में और विशेष रूप से बाण विद्या में अत्यंत निपुण थे। माना जाता है कि उन्होंने अपने जीवन काल में धनुर्विद्या पर भी कोई ग्रंथ लिखा था।
‘न्याय’ को परिभाषित करते हुए कहा गया है-
नीयते विवक्षितार्थः सिद्धिरनेन इति न्यायः।
अर्थात “जिस साधन के द्वारा हम अपने विवक्षित (ज्ञेय) तत्त्व के पास पहुँच जाते हैं, उसे जान पाते हैं, वही साधन न्याय है।”
ज्ञेय तत्व को खोजना, कहलाता है न्याय।
साधन अच्छे राखिए, पाना है यदि न्याय।।
कहने का अभिप्राय है कि जिसके द्वारा किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्धि की जा सके, जिसकी सहायता से किसी निश्चित सिद्धांत पर पहुंचा जा सके, दूध का दूध और पानी का पानी किया जा सके, उसी का नाम न्याय है। प्रमाणों के आधार पर किसी उचित निर्णय पर पहुंच जाना न्याय है। आज के न्याय शास्त्री भी उचित निर्णय पर पहुंचने के लिए किसी ना किसी प्रकार से महर्षि गौतम का ही अनुकरण करते देखे जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि ‘न्याय दर्शन’ में हमारे महर्षि गौतम का ही मौलिक चिंतन काम करता रहा हो। उनसे पहले भी अनेक ऋषि महर्षि इस क्षेत्र में कार्य करते रहे, उनके बनाए सिद्धांतों और सूत्रों को भी महर्षि गौतम ने अपने लिए संग्रहणीय माना। कहने का अभिप्राय है कि अपने पूर्ववर्ती ऋषि महर्षियों के ज्ञान चिन्तन का लाभ लेकर महर्षि गौतम ने इस दर्शन की रचना की।
वास्तव में यह तर्कशास्त्र और ज्ञान मीमांसा है। महर्षि गौतम ने अपने समय में प्रचलित न्यायसूत्रों का प्रणयन किया। उन्होंने इस आन्वीक्षिकी को क्रमबद्ध कर शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित किया।
परमपिता परमेश्वर की बनाई हुई सृष्टि में जीवों के कर्मफल के आधार पर वह जिस प्रकार न्याय करते हैं, उसी को प्राकृतिक- प्रभु प्रदत्त न्याय कहा जाता है। इसे आज तक भी हम न्यायालयों में अधिवक्ता बंधुओं को कहते सुनते हैं कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के आधार पर न्याय होना चाहिए। इसका अभिप्राय होता है कि न्याय करते समय जैसे ईश्वर तनिक भी पक्षपात नहीं करते और पक्षों के बीच न्याय करते हैं, उसी प्राकर पक्षपात शून्य स्थिति को प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत कहा जाता है। जिसमें न्याय से इतर कुछ भी करने की संभावना ही नहीं होती।
पक्षपात शून्य हो, करो विवेक प्रयोग।
निष्कर्ष धर्म अनुकूल हो, इसको कहते योग।।
जिस प्रकार ईश्वर प्रदत्त अर्थात अपौरुषेय वेद वाणी पवित्र है उसी प्रकार न्याय दर्शन की वाणी भी पवित्र है। वेद की भांति इसमें भी कहीं दोष नहीं है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि महर्षि गौतम ने जिस समय न्याय दर्शन की रचना की होगी उस समय उन्हें इसके लिखने के लिए कितना बौद्धिक परिश्रम करना पड़ा होगा ? उनका इस क्षेत्र में इतनी ऊंचाई को छूना भी किसी वैज्ञानिक की साधना से कम नहीं है। जिस प्रकार भगीरथ ने हिमालय की ऊंचाई पर अटकी-भटकी गंगा को शिव अर्थात हिमालय की जटाओं ( पर्वत की ऊंची ऊंची चोटियों ) से मैदान में लाकर बहाने का बड़ा भारी पुरुषार्थ किया था और उसे मैदान में लाकर आगे प्रवाहित होने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया था, उसी प्रकार न्याय दर्शन के सिद्धांतों को बड़े मनोयोग से सूत्रबद्ध ऋषि गौतम ने भी संसार के कल्याण के लिए आगे बढ़ने के लिए खुला छोड़ दिया। फलस्वरूप उनकी चिंतन धारा लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर आगे बढ़ने लगी।
जब हम न्याय की बात करते हैं तो इसका अभिप्राय संसार भर के न्यायालयों में चल रही मुकदमेबाजी से ही नहीं होता है अपितु इसका संबंध हमारे आंतरिक जगत में चल रहे अंतर्द्वंद से भी होता है। अंतर्द्वंद, कलह – क्लेश, काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ से मुक्ति प्राप्त करने में भी न्याय ही काम आता है। महर्षि गौतम ने न्याय दर्शन के प्रारंभ में ही स्पष्ट किया है कि ‘प्रमाण, प्रमेय ,संशय ,प्रयोजन ,दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान – इन 16 पदार्थों के तत्व ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति होती है।’
दुख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष, मिथ्या ज्ञान में से उत्तर – उत्तर पदार्थों से छुटकारा पाने पर उनके पूर्व- पूर्व पदार्थों की निवृत्ति होने पर मोक्ष होता है।
जब मनुष्य तत्वदर्शी हो जाता है तो उस स्थिति में मिथ्याज्ञान नष्ट होने लगता है। अंधेरा छंटने लगता है। दूर का दिखाई देने लगता है। आंतरिक जगत में अत्यंत ही आनंददायक स्थिति की अनुभूति होने लगती है। जब मिथ्याज्ञान नष्ट होने लगता है तो दोषों से निवृत्ति होने लगती है अर्थात उनका अभाव होने लगता है।
अंधकार भगता दूर है, नष्ट हो मिथ्या ज्ञान।
भजन सफल होता तभी मिट जाता अज्ञान।।
महर्षि गौतम के न्याय दर्शन का प्रभाव महाभारत कालीन भारतीय राजनीति पर स्पष्ट दिखाई देता है। महाभारत में महर्षि गौतम के न्याय दर्शन के पंचावयव न्यायवाक्य का प्रयोग किया गया है। शान्तिपर्व में महर्षि व्यास ने युधिष्ठिर से कहा है कि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण तथा प्रतिज्ञा आदि पञ्चावयव न्यायवाक्य प्रमेय की सिद्धि के लिए प्रयोजनीय हैं। इसी प्रकार महाराज युधिष्ठिर को जब भीष्म पितामह ने राजधर्म का उपदेश किया तो उन्होंने भी महर्षि गौतम के न्याय दर्शन के सिद्धांतों को स्पष्ट करते हुए युधिष्ठिर से कहा है कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा आगम रूप न्यायदर्शन के प्रसिद्ध प्रमाणों से परीक्षित कर अपने तथा पराये की पहचान रखना आवश्यक है।
महर्षि गौतम ने अभाव से भाव की उत्पत्ति की बात कही है, इसी को बौद्धों ने शून्यवाद की संज्ञा दी है। तत्व ज्ञान की प्राप्ति में महर्षि गौतम परमाणु का विशेष स्थान होना स्वीकार करते हैं।
उन्होंने मनुष्य की भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी न्याय सिद्धांतों को अनिवार्य माना है। यह सच भी है कि प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को न्यायशील होने और न्यायिक सिद्धांतों को अपनाने के प्रति गंभीर होना ही पड़ेगा। हम जितना ही अधिक अपने इतिहास के अनछुए पृष्ठों को देखने का प्रयास करते जाते हैं, उतना ही हमें एक से बड़ा एक अनमोल हीरा अपने अतीत के स्वर्णिम पृष्ठों पर बैठा हुआ और अपनी आभा से उन पृष्ठों को प्रकाशमान करता हुआ दिखाई देता है। ऐसे ही अनमोल हीरा न्याय दर्शन के प्रणेता आचार्य गौतम हैं, जिनकी कांति के समक्ष तत्कालीन समाज के सभी नैयायिक विस्मित होते दिखाई देते हैं।
उन्होंने अपने क्षेत्र में ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया जिससे अभी तक कोई लांघ नहीं पाया है। यही कारण है कि वह विश्व पटल पर आधुनिक काल के सभी न्यायशास्त्रियों के लिए प्रेरणा का पुंज बने हुए हैं। उनकी कीर्ति अक्षुण्ण और अमर है। उनकी कृति सभी को मार्गदर्शन देने में सक्षम है। उनका व्यक्तित्व अनोखा और निराला है। जिसके समक्ष न्याय क्षेत्र में अभी तक भी कोई टिकने की क्षमता नहीं रख पाया है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत