कर्नाटक में चुनावों के दौरान अपने पैरों पर अपने आप ही कुल्हाड़ी मारी कांग्रेस ने
ललित गर्ग
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव काफी दिलचस्प होने जा रहे हैं, इन चुनावों के परिणामों का असर कांग्रेस की भावी स्थितियों के साथ राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। इन चुनावों से विपक्षी एकता की प्रक्रिया में कांग्रेस की भूमिका भी तय होने की दिशाएं सामने आयेंगी। इस लिहाज से कर्नाटक चुनाव महत्त्वपूर्ण होने के साथ भविष्य की भारतीय राजनीति की दिशाओं को मोड़ देगी। कांग्रेस ने इन चुनावों से काफी उम्मीदें लगा रखी हैं, वहीं भाजपा की ओर से हर बार की तरह इस बार भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही जोरदार एवं धारदार चुनाव प्रचार कर रहे हैं। कांग्रेस ने बजरंग दल पर बैन लगाने की बात अपने घोषणा पत्र में करके जीत की ओर बढ़ते अपने कदमों पर विराम ही लगाया है। क्योंकि भाजपा इसे हिन्दू भावनाओं के मान-सम्मान से जोड़ रही है, देश में बह रही हिन्दूवादी लहर के दौर में निश्चित ही इसके नकारात्मक असर देखने को मिलेंगे। हर तरह की चहलकदमी के बावजूद यह चुनाव भी मुद्दों से भटकता हुआ दिखाई दे रहा है।
कर्नाटक में मतदान की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, विधानसभा चुनाव मुद्दों से भटक कर धार्मिक भावनाओं पर केंद्रित होता दिख रहा है। मुफ्त रेवड़ियों के चुनावी वादे दक्षिण की पुरानी परंपरा है, लेकिन अब शिव के गले के सांप और बजरंग बली भी चुनावी मुद्दा बन गए हैं। दक्षिण भारत में भाजपा का प्रवेश द्वार बने कर्नाटक को सामाजिक-आर्थिक रूप से बेहतर राज्यों में गिना जाता है, पर कटु सत्य यही है कि वहां की राजनीति जातीय बंधनों से मुक्त नहीं हो पाई है। राज्य में लिंगायत, वोक्कालिगा और कुरुबा- तीन बड़े समुदाय हैं। राजनीतिक दल इनके बीच अपनी वोट-राजनीति का सही गणित बैठा कर ही सत्ता की राह तलाशते रहे हैं। इस बार भी चुनावी परिदृश्य इसी गुणा-भाग से शुरू होता हुआ दिखाई दे रहा है। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई और पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के रूप में सबसे बड़े लिंगायत समुदाय के बड़े चेहरे भाजपा के पास हैं, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टर और पूर्व उप मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी के बगावत कर कांग्रेस में चले जाने से उसे झटका भी लगा है। कांग्रेस के पास पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के रूप में कुरुबा समुदाय तथा प्रदेश अध्यक्ष डी.के. शिव कुमार के रूप में वोक्कालिगा समुदाय के बड़े चेहरे पहले से हैं। ऐसे में माना जा सकता है कि शेट्टर और सावदी के पाला बदलने से उसे लाभ ही हुआ। इन जातिगत समीकरणों के बीच धार्मिक भावनाओं का असर भी अपना जादू दिखा दे तो कोई आश्चर्य नहीं।
कांग्रेस की स्थितियां मजबूत होने के बावजूद भाजपा कोई चमत्कार घटित कर दे, इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता। कांग्रेस भले ही येदियुरप्पा और बोम्मई के नेतृत्व वाली भाजपा सरकारों के कामकाज को मुद्दा बनाये या जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक और जंतर-मंतर पर पहलवानों के धरने उसके लिये अतिरिक्त मुद्दे हैं। लोक लुभावन वादों वाले भाजपाई घोषणापत्र के जवाब में वैसे ही या और आगे बढ़ते हुए कांग्रेसी वादे भी राजनीतिक रूप से समझ में आते हैं, पर पीएफआई के साथ ही बजरंग दल पर प्रतिबंध के वादे ने तो भाजपा को मनवांछित मुद्दा उपलब्ध करा दिया है। पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जहरीला सांप बता कर अवांछित और अशोभनीय विवाद पैदा किया, तो अब बजरंग दल और पीएफआई को एक ही श्रेणी में रख कर कांग्रेस ने चुनाव को असल मुद्दों से भटका कर भावनाओं में बह जाने या बहा लिए जाने का मौका खुद दे दिया है।
बजरंग दल का मुद्दा प्रभावी होने वाला है, क्योंकि कर्नाटक की जनता का हनुमानजी के साथ भावनात्मक एवं धार्मिक जुड़ाव है, बजरंग बली की जन्मभूमि होने का गौरव इसी प्रांत को जाता है। भाजपा तो चाहती ही थी कि ये चुनाव धार्मिक मोड़ ले, बजरंग बली का मुद्दा उछाल कर कांग्रेस ने भाजपा के लिये सहुलियत ही की है। प्रश्न है कि कांग्रेस क्यों एक बार फिर भाजपा द्वारा तैयार चुनावी पिच पर खेलने को तैयार हो गई? बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने का सपना देखने वाली कांग्रेस दरअसल अपने पूर्ण पतन का आह्वान कर रही है। बजरंग दल देशभक्त युवाओं का राष्ट्रवादी संगठन है, जो विपत्ति के समय जाति धर्म आदि नहीं देखता और देश के संकट को दूर करने में तन, मन व धन से सहयोग करता है। राजनीतिक दुराग्रह के कारण पीएफआई जैसे आतंकी संगठनों से इसकी तुलना करना जहां निंदनीय है, वहीं राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचायक है। कांग्रेस अपनी बची-खुची इज्जत भी ऐसे पूर्वाग्रही कुविचारों के कारण गंवा रही है। यह विडंबना है कि कांग्रेस आतंकवाद की बुराई करने के बजाय राष्ट्रवादी संगठनों को निशाना बनाने की ताक में है। वह शायद बजरंग दल का इतिहास भूल रही है। राम जन्मभूमि आंदोलन को सफल बनाने में इस राष्ट्रवादी संगठन की उल्लेखनीय भूमिका भला कौन नहीं जानता? कांग्रेस ने जब घोषणापत्र जारी किया तो उसमें मुफ्त की सौगातों के साथ इस एक वायदे ने सभी का ध्यान खींचा। लगता है, कांग्रेस जो दिवास्वप्न देख रही है इससे वह जितनी जल्दी बाहर निकल जाए, उतना ही उसके उन्नत राजनीतिक भविष्य के लिये बेहतर होगा।
इन चुनावों का एक अन्य पहलू यह है कि दोनों तीखी टक्कर वाले दलों ने राष्ट्रीय मुद्दों को भी पर्याप्त तवज्जो दी है। बीजेपी ने सीधे तौर पर राम मंदिर की बात भले न की हो, लेकिन समान नागरिक संहिता और एनआरसी लागू करने का वादा जरूर किया है। गौर करने की बात यह है कि कांग्रेस भी इन कथित राष्ट्रीय मुद्दों पर खासी आक्रामक नजर आ रही है। उसने अपने घोषणापत्र में हेटस्पीच के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने की बात कही है। हालांकि पीएफआई पर केंद्र सरकार पांच साल का बैन पहले ही लगा चुकी है। यही नहीं, चार फीसदी मुस्लिम आरक्षण खत्म करने की बीजेपी की घोषणा के जवाब में इसे बहाल करने की बात भी उसने कही है। पिछले कुछ समय से कथित तौर पर विभाजित करने वाले मुद्दों पर कांग्रेस के नरम रवैये में यह एक दिलचस्प बदलाव है। इन तमाम वादों के बीच सवाल सिर्फ यह नहीं कि किसका वादा कितना लुभावना है, देखने वाली बात यह भी होगी कि किसके वादों को मतदाता कितना भरोसेमंद मानते हैं और किस दल को जीत की ओर अग्रसर करते हैं।
दिल्ली में मुफ्त की संस्कृति को बल देने वाले आम आदमी पार्टी के पदचिन्हों पर चलते हुए कांग्रेस एवं भाजपा दोनों ने अपने घोषणापत्रों में मतदाताओं के अलग-अलग वर्गों को लुभाने की कोशिश की है जो स्वाभाविक होने के बावजूद राजनीतिक दशा एवं दिशा पर एक बड़ा सवाल है। लेकिन इस क्रम में मुफ्त की पेशकश करने में किसी ने भी कोई हिचक नहीं दिखाई है। जहां कांग्रेस ने 200 यूनिट मुफ्त बिजली देने, परिवार की प्रत्येक महिला मुखिया को हर महीने 2 हजार रुपये देने, बेरोजगार स्नातकों को 3000 रुपये और डिप्लोमाधारकों को 1500 रुपये प्रति माह देने जैसे वादे किए हैं, वहीं बीजेपी ने हर बीपीएल परिवार को रोज आधा किलो नंदिनी दूध देने, लोगों को सस्ता अनाज मुहैया कराने और युगादी, गणेश चतुर्थी तथा दीपावली पर तीन गैस सिलिंडर मुफ्त देने जैसे आश्वासन दिए हैं। चुनावों में मुफ्त रेवड़ियां बांटने को लेकर पिछले दिनों छिड़ी बहस को याद करें तो दोनों पार्टियों के घोषणापत्र का यह हिस्सा उसका उल्लंघन करता मालूम होता है, लेकिन दोनों ही इन वादों को कमजोर तबकों के सशक्तीकरण के अपने संकल्प से जोड़ती हैं। कुछ भी हो हर बार चुनाव में हर दल सिद्धान्तों एवं मूल्यों को किनारे करने में तनिक भी हिचकते नहीं, इन चुनावों में भी इसका हनन हो रहा है। सच भी है कि विकास के वादों और दावों के बावजूद मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग आज भी इस स्थिति में है कि कथित तौर पर मुफ्त या सस्ती चीजें उसके वोट के फैसले को प्रभावित करती हैं।