भारत की राजनीति में मुसलमानों को केवल ‘वोट बैंक’ के रूप में प्रयोग करते रहने की परंपरा कांग्रेस ने डाली थी। 1947 में जो मुसलमान भारत में रह गये थे-उनमें से अधिकांश के भीतर एक भय व्याप्त था कि पाकिस्तान की मांग मजहब के आधार पर की गयी थी-जिसे 1945-46 में हुए नेशनल असेम्बली के चुनावों में देश के अधिकांश मुसलमानों ने अपना समर्थन दिया था। ऐसे में भारत में रह गये मुसलमानों के सामने दो प्रश्न थे एक तो यह कि स्वतंत्र भारत के शासन की नीतियां मजहब के नाम पर बने पाकिस्तान की नीतियों के दृष्टिगत साम्प्रदायिक होंगी और यदि पाक अपने आपको मुस्लिम राष्ट्र बनाता है तो कहीं भारत अपने आपको हिंदू राष्ट्र घोषित न कर दे? दूसरे पाकिस्तान में मुसलमानों ने हिंदुओं के प्रति जिस घृणास्पद नीति का प्रयोग किया था और उनका नरसंहार किया था-उसकी प्रतिक्रिया कहीं भारत में मुसलमानों के विरूद्घ हिंदुओं की ओर से तो ना होने जा रही है, विशेषत: तब जब पाकिस्तान के निर्माण के लिए भारत के अधिकांश मुसलमानों ने उस समय अपना समर्थन दिया था।
कांग्रेस ने अपने विषय में समझ लिया था कि देश का जनमानस उसे विभाजन के लिए दोषी मानता है और स्वतंत्र भारत में जब भी पहले चुनाव होंगे तभी उसे इस प्रश्न का उत्तर देना होगा कि उसने विभाजन स्वीकार क्यों किया था? अपने आपको सत्ता में लाने के लिए कांग्रेस ने मुस्लिमों के भीतर उभर रहे उक्त प्रश्नों का उत्तर देना आरंभ किया और यह जानते हुए भी कि 1945-46 के आम चुनावों में देश के अधिकांश मुस्लिमों ने उसे नकार दिया था-और अपना मत मुस्लिम लीग की विखण्डनकारी नीतियों को बढ़ावा देते हुए ‘दो राष्ट्र’ के सिद्घांत के समर्थन में दिया था-देश के विभाजन के लिए मुस्लिम लीग को दोषी न मानकर हिंदूवादी संगठनों को दोषी बताना आरंभ कर दिया। इससे ‘पापी मुस्लिम लीग’ दोषमुक्त होने लगी और जिन्होंने मुस्लिम लीग को देश का विभाजन करने के लिए अपना मत दिया था वे भी अपने आपको दोषमुक्त मानने लगे। ‘बेगुनाहों को गुनाहगार और गुनाहगारों को बेगुनाह’ बनाती कांग्रेस के प्रति मुसलमानों की सहानुभूति उमड़ी और उन्होंने देखा कि स्वतंत्र भारत में उनके लिए यदि मुस्लिम लीग का कोई स्थानापन्न दल हो सकता है तो वह कांग्रेस है। यही कारण रहा कि उसने कांग्रेस के साथ पहले चुनाव में ही खड़ा होने का मन बना लिया। कांग्रेस ने देश को ‘हिंदू विरोधी धर्मनिरपेक्ष’ देश बनाने की तैयारी कर ली और अपनी राजनीति की इस सोच को देश के संविधान से कहलवा कर इसे इस देश की राजनीति का मौलिक संस्कार बनाने की तैयारी कर ली। आगे चलकर साम्यवादियों ने ‘हिंदू विरोधी धर्मनिरपेक्ष देश’ बनाने की कांग्रेसी सोच को अपनाकर ‘आग में घी डालने’ का कार्य किया। ऐसी परिस्थितियों में मुसलमानों का स्वतंत्र भारत में विकास और देश निर्माण में उनका स्वस्थ योगदान बाधित हुआ। एक वर्ग उन्हें संदेह की दृष्टि से देखता रहा। जबकि मुसलमानों का एक वर्ग मुसलमानों के मतों की कीमत वसूलने के लिए उन्हें नीलाम करता रहा। राजनीतिक दल उन्हें अपने अपने ‘वोट बैंक’ बनाने के लिए प्रयोग करते रहे, उनमें इस बात की होड़ मच गयी कि कौन उन्हें अपने साथ लाने में सफल रहता है? अब मुस्लिमों के लिए दो शत्रु खड़े हो गये। कठमुल्लों के रूप में एकशत्रु से तो वह पहले से ही जूझ रहे थे, जो उन्हें विज्ञान और तकनीकी शिक्षा से दूर रखकर ‘मजहबी तालीम’ तक सीमित रखने का कार्य पहले से ही कर रहा था, जिससे कि ये लोग विकास ना कर पायें और उन्हें ही अपना ‘माई बाप’ मानते रहें। अब इसी प्रक्रिया को कांग्रेस और भारत के कई अन्य राजनीतिक दलों ने अपना लिया। इन्होंने भी मुस्लिमों के बौद्घिक पक्ष का विकास न करके उनके मजहबी भावनात्मक पक्ष का दोहन करते हुए इन्हें जहां पड़े थे वहीं पड़े रहने देकर इनसे वोट लेने की जुगत भिड़ानी आरंभ कर दी। फलस्वरूप आज भी मुसलमानों के बच्चे ठेली लगाने, सब्जी या फल बेचने या कबाड़ा बीनकर लाने तक ही सीमित हैं। जबकि 70 वर्ष के दीर्घकाल में उन्हें इन कामों से ऊपर उठाकर सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हुए राष्ट्र की मुख्यधारा में लाकर उन्हें राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरित किया जाना अपेक्षित था।
भारत में हर चुनाव के समय मुस्लिम मतों को भेड़, बकरियों की भांति हांका जाता है, और उन्हीं की भांति उनकी थोक के भाव में गिनती की जाती है। सत्ता दिलाने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है। इसके लिए शाही इमाम का भी प्रयोग किया जाता है जो कि फतवा जारी कर मुस्लिम मतों का ‘धु्रवीकरण के नाम पर साम्प्रदायिकीकरण’ कराते हैं। मुस्लिमों को चुपचाप एक भय दिखाया जाता है कि यदि अमुक दल को वोट दिया गया तो तुम्हें वंदेमातरम बोलना पड़ेगा, भारत का झण्डा उठाना पड़ेगा या तुम्हारे द्वारा अधिक बच्चे पैदा करके जिस मुस्लिम देश की कल्पना की जा रही है उसमें बाधा पहुंचेगी। इससे मुस्लिम मत अक्सर उधर चले जाते हैं जिधर उन्हें नहीं जाना चाहिए। इस प्रकार की सोच और कार्यशैली से एक बात दूसरे पक्ष में एकसंदेश देती है कि यदि भारत विरोध और हिंदू विरोध के नाम पर ही वोटों का साम्प्रदायिकीकरण कर धु्रवीकरण किया जा रहा है तो निश्चय ही कहीं दाल में काला है? फलस्वरूप दूरियां सिमटने के स्थान पर और बढ़ जाती हैं।
हर चुनाव में हमें एक दूसरे के निकट आने का अवसर मिलता है, पर राजनीति हमें एक साथ बैठने नहीं देती। ऐसे में उचित होगा कि मुस्लिमों का युवा वर्ग आज तक की राजनीति के सच को समझे और यह भी समझे कि एक साथ चलने और एक साथ रहने के लिए अंतत: मार्ग कौन सा उचित है। इस बार जिन पांच प्रांतों में चुनाव हो रहे हैं, उनमें मुस्लिम युवा वर्ग में चेतना का विस्तार होता सा दिखाई पड़ रहा है। अब वह जागने का प्रयास कर रहा है और समझ रहा है कि मुस्लिम मतों का साम्प्रदायिकीकरण कर धु्रवीकरण करने वालों को इस बार मुंह की चखा दी जाए। मानता हूं कि ऐसे संकेत हल्के हैं पर जितने भी हैं वे स्वागत योग्य हैं। राष्ट्रवादी शक्तियों को मुस्लिम युवा वर्ग के इस प्रकार के संकेतों को अपना समर्थन देकर उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए और कहना चाहिए कि आपका स्वागत है।