शशिकला की सजा से तमिलनाडू में गहराता संवैधानिक संकट
सर्वोच्च न्यायालय ने शशिकला नटराजन को आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी करार दे दिया है। शशिकला को चार साल की सजा तो भुगतनी ही होगी, आगामी 10 साल तक वे तमिलनाडू की मुख्यमंत्री भी नहीं बन पाएंगीं। पहले यही सजा जयललिता समेत शशिकला व 3 अन्य लोगों को निचली अदालत ने सुनाई थी। किंतु कर्नाटक हाईकोर्ट ने जयललिता समेत सभी को बरी कर दिया था। इस फेसले की अपील शीर्ष न्यायालय में विचाराधीन थी, जिस पर मंगलवर को फैसला आ गया। इस फैसले से शशिकला के मुख्यमंत्री बनने के मंसूबों पर पानी फिर गया है। लेकिन चालाक शशिकला ने पुलिस के आगे समर्पण करने से पहले के पलानी स्वामी को विधायक दल का नेता चुनवा कर न केवल तमिलनाडू के मुख्यमंत्री ओ पन्नीर सेल्वम के समक्ष मुख्यमंत्री बने रहने का संकट खड़ा कर दिया है, वहीं राज्यपाल विद्यासागर राव को भी संवैधानिक मुश्किलों का सामना करना होगा।
तमिलनाडू में एक सप्ताह से चल रहा राजनैतिक संकट लोकतंत्र और संविधान के लिए अब तक मजाक सा बनता दिखाई दे रहा था, वह शशिकला को सजा स्वामी के नया नेता चुने जाने के बाद और गहरा गया है। मुख्यमंत्री पन्नीर सेल्वम इस्तीफा दे चुकने के बाद अब कह रहे हैं कि उनसे इस्तीफा जबरदस्ती लिया गया। फिलहाल बहुमत भी उनके साथ दिखाई नहीं दे रहा है। यह अलग बात है कि इस दौरान उनकी ताकत लगातार बढ़ रही है। लोकसभा और राज्यसभा के 11 सांसदों के साथ 11 विधायक भी उनके साथ हैं। दूसरी तरफ शशिकला के पास 129 विधायक रिजॉर्ट में बंद हैं। इन्हीं के बूते शशिकला ने नाटकीय अंदाज में पनाली स्वामी को विधायक दल का नया नेता बनवा दिया। बावजूद राज्यपाल उन्हें शपथ दिलाने के लिए बुलाते हैं अथवा नहीं यह अभी स्पश्ट नहीं है। संभव है विधायकों का राज्यपाल के सामने फ्लोर टेस्ट कराया जाए। इस बीच आशंका है कि अन्नाद्रमुक दो फाड़ हो जाए। किसी भी धड़े को बहुमत के लिए 118 विधायकों का आंकड़ा जरूरी है। यदि पनाली स्वामी के पास से 18 विधायक खिसक जाते हैं तो उनके पास 117 विधायक रह जाएंगे, जो बहुमत का आंकड़ा पूरा नहीं करते। शपथ के गतिरोध के चलते ऐसा आभास हो रहा है कि राज्यपाल पार्टी को तोडऩे के लिए ही ढिलाई बरते हुए है। हालांकि राज्यपाल को अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह निश्पक्ष ढंग से करते हुए स्वामी को शपथ दिलाने के लिए समय दे देना चाहिए। लेकिन ऐसा लग रहा है कि पिछले दिनों जो खेल उत्तराखण्ड और अरुणाचल प्रदेश में सत्ता हथियाने को लेकर खेला गया था, कमोबेश वही तमिलनाडू में दोहराया जा रहा है। यदि शपथ का मामला कुछ और दिन लंबित बना रहा तो राष्ट्रपति इसमें हस्तक्षेप कर सकते है। क्योंकि अंतत: राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में ही काम करता है।
तमिलनाडू में एआईएडीएमके के सेल्वम ऐसे किरदार रहे हैं, जो हमेशा ही आलाकमान के भरोसेमंद रहे। आलाकमान के ऐसे ही निष्ठांवान अनुयायी से यह उम्मीद की जा सकती है कि जिन्हें यदि विपरीत परिस्थिति में जरूरत पडऩे पर मुख्यमंत्री बना भी दिया जाए तो अनुकूल स्थिति का निर्माण होने पर आसानी से इस्तीफा भी लिया जा सकता है। जयललिता के मुख्यमंत्री रहते हुए तीन मर्तबा यही घटनाक्रम दोहराया जा चुका है। गोया, जब जयललिता अनुपातहीन संपत्ति के मामले में जेल गईं और बीमार रहते हुए अस्पताल में जब-जब भर्ती हुईं, तब-तब सेल्वम उनके उत्तराधिकारी बनाए गए। इस खड़ाऊँ मुख्यमंत्री ने मंत्री मंडल की प्रत्येक बैठक में प्रतीक के रूप में जयललिता का चित्र रखा और उसे ही साक्षात मुख्यमंत्री मानते हुए निर्णय लिए। सब जानते हैं कि अन्नाद्रमुक के सभी सांसद-विधायक जयललिता के न केवल पैर छूते थे, बल्कि दण्डवत भी होते रहे हैं। जयललिता के प्रति इसी दैवीय निष्ठां के चलते उनकी मृत्यु के दो घंटे के बाद ही सेल्वम को मुख्यमंत्री की 32 मंत्रियों समेत शपथ दिला दी गई थी। शशिकला यही निष्ठां पनाली स्वामी में देख रही हैं।
66 करोड़ की अनुपातहीन संपत्ति के मामले में जब जयललिता के ठिकानों पर छापे पड़े थे, तब गेहूं के साथ घुन की तरह उनकी करीबी व राजदार रहीं शशिकला को भी पिसना पड़ा था। मसलन शशिकला, उनकी भतीजी इलावरासी, भतीजे और जयललिता के दत्तक पुत्र सुधाकरण के यहां भी छापे डाले गए थे। इन सभी के यहां बेहिसाब अकूत संपत्ति मिली और जयललिता के साथ शशिकला समेत अन्य सभी को जेल की हवा भी खानी पड़ी थी। बाद में ये सभी बेनामी संपत्ति रखने के दोषी पाए गए और सभी को चार-चार साल की सजा तथा दस-दस करोड़ के अर्थदंड का जुर्माना भी भुगतना पड़ा। नतीजतन सितंबर 2014 में जयललिता के साथ सभी को कारागार के सींखचो के पीछे जाना पड़ा था। हालांकि निचली अदालत के इस फैसले को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने पलटते हुए सभी को बरी का दिया था। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर शशिकला पर निचली अदालत के फैसले को बहाल कर दिया है। इस फैसले से यह संदेश झलक रहा है कि भ्रश्टाचार को देश में कोई जगह नहीं है।
शशिकला इस फैसले की पहली शिकार नहीं है। उनके पहले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को 5 साल की सजा सुनाई गई थी। नतीजतन 2013 में वे सांसद बने रहने की योग्यता खो बैठे थे और 2014 के आम चुनाव में लोकसभा का चुनाव भी नहीं लड़ पाए थे। कांग्रेस के रशीद मसूद को स्वास्थ्य सेवाओं में की गई भर्ती घोटाले में 4 साल की सजा हुई और राज्यसभा सांसद का पद गंवाना पड़ा था। यही हश्र राष्ट्रिय जनता दल के सांसद जगदीश शर्मा का हुआ था। इसी तरह शिवसेना के विधायक बबनराव घोलप और द्रमुक सांसद टीएम सेल्वे गणपति को आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में सजाएं हो चकी हैं। इस कड़ी में नया नाम शशिकला का जुड़ गया है। ये सजाएं इसलिए संभव हुई क्योंकि शीर्ष न्यायालय ने जनप्रतिनिधत्व कानून की धारा आठ (4) का अस्तित्व समाप्त कर दिया था। इस धारा के खत्म होने के बाद से लोकसभा और विधानसभाओं में मौजूद दागियों को सजाएं तो हो ही रही हैं, उन्हें चुनाव लडऩे से दस साल के लिए दखल भसी किया जा रहा है।
विधायक नहीं होने के बावजूद, विधायक दल की नेता शशिकला को चुन लिए जाने की प्रक्रिया को भारतीय लोकतंत्र और संविधान की विचित्र विडंबना कहकर हम हैरान हो सकते हैं अथवा भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की चिंता के लिए ऐसी व्यवस्था को अनुचित ठहराने का रोना रो सकते हैं, लेकिन देश के मतदाता के पास इस बाला-बाला अपनाई जाने वाली प्रक्रिया में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है। जनता मतदान के जरिए विधायक चुनती है। इसके बाद विधायकों का नैतिक कर्तव्य बनता है कि वे निर्वाचित विधायकों में से ही अपना नेता चुनें। लेकिन भारतीय राजनीति में अकसर ऊपर से नेता थोप दिए जाते हैं। चारा घोटाले में जब बिहार के मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव को जेल जाना पड़ा तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कमान सौंप दी थी। जबकि वे न तो विधायक थीं और न ही पढ़ी-लिखी थीं। उनकी योग्यता महज इतनी थी कि वे लालू की पत्नी हैं। ऐसा केवल लालू व जयललिता ने किया हो, ऐसा नहीं है, जिस तरह से नेहरू की राजनीतिक विरासत इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अब राहुल गांधी संभाल रहे हैं, कमोवेश इसी वंष-परंपरा को करुणानिधि देवीलाल, विजयाराजे सिंधिया और मुलायम सिंह ने आगे बढ़ाया है। क्षेत्रीय दल इसी कुनबापरस्ती के चलते भाई-भतीजों, बेटे-बेटियों और पत्नी व बहुओं को आगे बढ़ा रहे है।
बहरहाल तमिलनाडू के भविष्य का स्वामी, पनाली स्वामी या पन्नीर सेल्वम उन्हें नित नई चुनौतियों का सामना करना होगा। करुणानिधि की द्रमुक अन्नाद्रमुक को तोडऩे की चालें चलने लगी है। भाजपा भी इस कोशिश में है कि उसे दक्षिण भारत के इस महत्वपूर्ण राज्य में खाली हुई जमीन पर पैर रखने को जगह मिल जाए या अन्नाद्रमुक पर उसका इतना दबाव बन जाए कि वहां के सांसदों का उसे राज्यसभा में समर्थन मिलने लग जाए ? वैसे भी व्यक्ति केंद्रित क्षेत्रीय दलों की यह प्रमुख समस्या होती है कि उनके नेतृत्वकर्ता की मृत्यु के बाद दल के समक्ष अस्तित्व का संकट गहरा जाता है। इसी संकट का उभार शशिकला के नेता चुने जाने के बाद से स्पश्ट रूप से देखने में आ रहा है। बहरहाल तमिनाडू के मुख्यमंत्री सेल्वम रहे या स्वामी दोनों के ही समक्ष अन्नाद्रमुक का असली नेता के रूप में खुद को साबित करने के साथ पार्टी के जानाधार को बनाए रखने की भी बड़ी चुनौती पेष आएगी।