मानसिक रोगियों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की चिंता नई नहीं है। इसके पहले भी न्यायालय देश में बढ़ रहे मानसिक रोगियों को लेकर अपनी चिंता जता चुका है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस बार के आदेश में मानसिक रोगियों के पुनर्वास की बात भी कही गई है। कोर्ट ने माना है कि ऐसे कई रोगी स्वस्थ होने के बाद भी मानसिक चिकित्सालयों में पड़े रहते हैं और उन्हें वहीं अपना शेष जीवन बिताना पड़ता है। दरअसल, यह तथ्य अदालत के संज्ञान में आया था कि बरेली के मानसिक चिकित्सालय में भर्ती साठ लोग पूरी तरह से स्वस्थ होने के बाद भी वर्षों से अस्पताल में पड़े हुए हैं। वजह यह कि इनका कोई ठौर-ठिकाना नहीं है। इस मामले के मद््देनजर ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि केंद्र सरकार को ऐसे लोगों के पुनर्वास पर ध्यान देना चाहिए। बात सिर्फ बरेली या उत्तर प्रदेश की नहीं है। पिछले अठारह से बीस सालों में मानसिक रोगों की वजह से 1,89,378 लोगों ने आत्महत्याएं की हैं। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान संस्थान के नए आंकड़ों के मुताबिक, देश में बीते एक साल में पैरालिसिस और मानसिक रोगों से प्रभावित 8,409 लोगों ने आत्महत्या की, जिनमें महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों के लोग शामिल हैं।
अवसाद मानसिक अस्वस्थता का एक रूप है जिसका असर व्यवहार, व्यक्तित्व, सोचने और विचार करने की क्षमता, आत्मविश्वास और संबंधों पर पड़ता है। वर्ष 1990 में भारत में चार फीसद लोग किसी न किसी तरह के मानसिक रोग से ग्रस्त थे। यह संख्या वर्ष 2013 में बढ़ कर दोगुनी यानी जनसंख्या का आठ फीसद हो गई। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के मुताबिक भारत में लगभग सात करोड़ लोग मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं। यहां सिर्फ तीन हजार मनोचिकित्सकों की उपलब्धता है, जबकि जरूरत लगभग बारह हजार की और है। देश में अ_ाईस हजार मनोचिकित्सा सामाजिक कार्यकर्ताओं की जरूरत है, जबकि महज साढेÞ तीन सौ के आसपास ऐसे कार्यकर्ता मौजूद हैं। देश में मानसिक स्वास्थ्य की नीति बनाने में अक्सर गंभीर विकारों की ही फिक्र की जाती है और आम मानसिक बीमारियों को नजरअंदाज किया जाता है, जबकि ये सामान्य मानसिक रोग ही बाद में गंभीर मानसिक रोग की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं। अत: जरूरी है कि बड़े-बड़े निजी अस्पतालों के स्थान पर समुदाय केंद्रित मानसिक स्वास्थ्य व्यवस्था बने। देश में मानसिक रोगों के शिकार दस में एक ही व्यक्ति को उपचार मिल पाता है, शेष नौ को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। यहां तक कि सामान्य पारिवारिक और सामाजिक जीवन से ऐसे पीडि़तों को पूरी तरह से बहिष्कृत कर दिया जाता है।
देश में प्रति 4.1 लाख की जनसंख्या पर एक मनोचिकित्सक उपलब्ध है। इनमें से भी ज्यादातर महानगरों और बड़े शहरों में केंद्रित हैं। हमारे स्वास्थ्य के कुल बजट में से डेढ़ फीसद से भी कम हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य के लिए खर्च होता है। देश में छोटे-बड़े मिलाकर कुल 443 मानसिक चिकित्सालय हैं। इनमें से अधिकतर काफी बदतर स्थिति में हैं। वर्ष 1982 में भारत में जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू किया गया था। वर्ष 2015-16 तक यह कार्यक्रम महज 241 जिलों तक पहुंच पाया। जहां पहुंचा भी, वहां इसका क्रियान्वयन बेहद लचर रहा है। मानसिक चिकित्सा में दवाओं से उपचार पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, जबकि वास्तव में परामर्श, समझ विकास, समाज में पुनर्वास, मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा पर सबसे ज्यादा पहल किए जाने की जरूरत है। देश में वर्ष 1997 से- सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद से- इस विषय पर थोड़ी-बहुत चर्चा होनी जरूर शुरू हुई, पर समाज आधारित मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम एक हकीकत नहीं बन पाया है। देश में वर्ष 2014 में मानसिक स्वास्थ्य नीति बनी और इसके साथ ही मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधेयक संसद में आया। इस विधेयक में भी मानसिक रोगियों के साथ होने वाले दुव्र्यवहार और हिंसा को रोकने के कोई खास प्रावधान नहीं थे। इस तरह के रोगियों का पुनर्वास भी एक चुनौती बना हुआ है।
केंद्र सरकार ने लोकसभा में बीते साल स्पष्ट किया कि साल 2015 तक एक से दो करोड़ भारतीय गंभीर मानसिक विकारों के शिकार हैं, जिनमें सिजोफ्रेनिया और बाइपोलर डिसऑर्डर प्रमुख हैं और करीब पांच करोड़ आबादी अवसाद और चिंता जैसे सामान्य मानसिक विकारों से ग्रस्त है। यह आंकड़ा किसी निजी सर्वेक्षण एजेंसी का नहीं, बल्कि खुद भारत सरकार का है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की साल 2011 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत अपने स्वास्थ्य बजट का महज 0.06 फीसद हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है। यह बांग्लादेश से भी कम है जो अपने स्वास्थ्य बजट का करीब 0.44 फीसद इस मद में खर्च करता है। दुनिया के ज्यादातर विकसित देश अपने स्वास्थ्य बजट का छह से आठ फीसद हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य संबंधी शोध, अवसंरचना और फ्रेमवर्क पर खर्च करते हैं।
सरकार ने ‘नेशनल इंस्टीट्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज’ से राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण कराया था, ताकि देश में मानसिक रोगियों की संख्या और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग के पैटर्न का पता लगाया जा सके। इस बारे में लोकसभा में बताया गया कि यह सर्वेक्षण 1 जून 2015 से 5 अप्रैल 2016 तक चला। लेकिन सर्वेक्षण में आए सुझाव कागजों में ही सिमट कर रह गए। लेकिन अब समय आ गया है कि विशेषज्ञों के सुझावों पर तत्काल प्रभाव से अमल किया जाए ताकि देश में बढ़ रही मानसिक रोगियों की संख्या में कमी लाई जा सके।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2020 तक अवसाद विश्व में दूसरा सबसे बड़ा रोग होगा। मानसिक रोगियों की इतनी बढ़ी हुई संख्या का उपचार विकासशील ही नहीं, विकसित देशों की भी क्षमताओं से परे होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों और मानसिक रोगों की रोकथाम व इलाज के लिए उपलब्ध संसाधनों के बीच एक बड़ी खाई है। ऐसे में मानसिक रोगियों की बढ़ती संख्या भारत ही नहीं, वैश्विक स्तर पर भी चिंता का बड़ा विषय है।
देश में पैंतीस लाख से भी ज्यादा ऐसे मानसिक रोगी ऐसे हैं जिन्हें तत्काल स्तरीय उपचार और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक मानसिक बीमारियों का इलाज करवाने वालों में तीस फीसद युवा हैं। बेहतर रोजगार पाने और अति महत्त्वाकांक्षा के चलते युवा पहले तनाव, फिर अवसाद और अंतत: मनोरोगों की चपेट में आ रहे हैं। कई तरह के व्यसनों से घिर जाने और अनियमित जीवनशैली अपनाने के कारण भी युवा मानसिक रोगों के शिकार बन रहे हैं। मानसिक स्वास्थ्य हमारे सामाजिक ढांचे और सामाजिक व्यवहार से भी जुड़ा मसला है। एक दूसरे को सहारा दाने के सारे परंपरागत ताने-बाने टूटते जा रहे हैं और लोगों में अकेले पड़ जाने का अहसास बढ़ रहा है। शिक्षा से लेकर खेती तक, सारी समस्याओं का इलाज कर्ज की आसान उपलब्धता में ढूंढ़ा जा रहा है। इससे कर्जखोरी बढ़ रही है, और साथ ही तनाव भी बढ़ रहा है। परिवार टूट रहे हैं। जिंदगी की रफ्तार काफी तेज हो गई है। कम समय में ज्यादा से ज्यादा हासिल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसे में कुछ हासिल हो या नहीं, तनाव तो बढ़ेगा ही, जो आगे चलकर अवसाद में तब्दील हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को गंभीरता से लिया जाना चाहिए, वरना भविष्य में मनोरोगियों की एक बड़ी फौज देश में खड़ी हो जाएगी।