डॉ. सुधा कुमारी
दक्षिण एशिया के कुछ देशों, विशेषकर भारत में लोगों के माथे पर या भौंहों के बीच विभिन्न रंगों और आकृतियों में चंदन,कस्तूरी, रोली, सिंदूर या कुमकुम का तिलक दिखाई देता है जो कभी बिंदी बन माथे पर बैठा होता है कभी खड़ी रेखा बन खिंचा होता है। सिंदूर और कुमकुम के तिलक लाल और नारंगी रंग में होते हैं, चंदन के तिलक फीके गुलाबी, लाल, पीले रंग में और रोली के तिलक लाल रंग में होते हैं। भारत के अलावा नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, मॉरिशस और अन्य देशों के हिन्दुओं द्वारा भी तिलक का प्रयोग होता है। भारत में तिलक का प्रयोग हिन्दू द्वारा अलग-अलग तरह की पूजा और विभिन्न अवसरों पर किया जाता है। तिलक का प्रयोग राज्याभिषेक, राखी, परीक्षा, अतिथि स्वागत तथा युद्ध-प्रस्थान पर करना सम्मान या आशीर्वाद का प्रतीक है और इससे लोग भावनात्मक रूप से सुरक्षित महसूस करते हैं। लाल सिन्दूर का तिलक देवी शक्ति के भक्तों द्वारा लगाया जाता है, सफेद,लाल, गुलाबी या पीले चन्दन की खड़ी रेखा या अंग्रेजी के ‘यू’ जैसा तिलकविष्णु भक्तों द्वारा और सफेद रंग में त्रिपुंडा नामक तीन खड़ी रेखाओं का तिलक शिव भक्तों द्वारा लगाया जाता है। धूप या अगरबत्ती की पवित्र राख (भभूत) की काली रेखा का प्रयोग देवी काली भक्तों या तांत्रिक द्वारा किया जाता है।
बौद्ध तिलक का प्रयोग कम ही करते हैं किन्तु बुद्ध के माथे पर तिलक अवश्य दिखता है। प्राचीनकाल में चीन में बच्चों को विद्यालय में डालने से पहले उनके माथे पर भौंहों के बीच लाल टीका लगाया जाता था जो बुद्धि चक्षु खुलने का प्रतीक था। जैन में तिलक का प्रयोग दिखाई नही देता। ईसाई लोग वार्षिक अवसर के रूप में आत्मशुद्धि, चिंतन और पश्चात्ताप का प्रतीक ‘ऐश वेडनेसडे’ मनाते हैं जिसमें सबके माथे पर राख का टीका क्रॉस की डिजायन में लगाते हैं। इसका अर्थ होता है- “हम मिटटी से बने हैं और मिटटी में ही वापस जाएंगे।” इस्लाम में तिलक-बिंदी का प्रयोग वर्जित है। उनके माथे को जमीन पर सटाकर सजदे करने के कारण कई लोगों के माथे पर एक स्याह निशान उभर आता है जो कडा हो जाता है। विदेशों में समय-समय पर नस्ल-विरोधी ताकतें उभरती रहती हैं जिनमे से एक अमेरिका के न्यू जर्सी में 1980 के दशक में ‘डॉटबस्टर्स’ नामक संगठन था। यह आतंकवादी संगठन था एशियाई लोगों को समाप्त करना चाहता था और बिंदी लगाने वाले को आक्रमण का लक्ष्य बनाता था। तिलक-बिंदी लगानेवालों के लिए वह समय बहुत खतरनाक था और अभी भी लोग उसे याद कर दुखी होते हैं।
भौंहों के बीच तिलक के पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक तर्क है। वैज्ञानिक रूप से, ललाट के इस स्थान को विचार, एकाग्रता और स्मृति का बिंदु माना जाता है। यहाँ तिलक का निशान लगाने से मानसिक शक्ति और एकाग्रता बढ़ती है। भारतीय आध्यात्म में भौंहों के बीच के स्थान को आज्ञा चक्र कहते हैं जो शरीर के सभी चक्रों में प्रमुख है। यह मानसिक शक्ति और दैहिक कार्यों का समन्वय बिंदु और आत्मा के प्रवेश और निकास का बिंदु माना जाता है। इस स्थान से ऊपर की ओर खींची गई रेखा विचारों को आध्यात्मिकता की ओर ले जाने वाली (ऊर्ध्वगामी) मानी जाती है। अतः खड़ी रेखा वाले तिलक को गोल बिंदु से उत्तम माना जाता है। अतिथियों के माथे पर तिलक लगाकर उनका स्वागत करने के पीछे यह तर्क है कि मानव शरीर ईश्वर की दी हुई अमूल्य भेंट है, इसके अन्दर स्थित आत्मा का सम्मान तिलक लगाकर किया जाता है। कुछ लोगों के अनुसार, लाल तिलक प्रथा की उत्पत्ति बलि चढ़ाने के रक्त से भी मानी जाती है।
माथे पर तिलक भारत में सर्वव्यापी है, इसके पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक तर्कहोने के कारण यह विवादहीन है। किन्तु विवाहित महिलाओं के सिर पर मांग में सिंदूर और माथे पर लाल बिंदी के पीछे कोई आध्यात्मिक या वैज्ञानिक तर्क नहीं है, पूरी तरह से सामाजिक तर्क है। हिन्दू महिला की मांग में सिंदूर की लाल खड़ी रेखा और उसके नीचे माथे पर बैठी लाल बिंदी का विस्मयादिबोधक चिह्न (!) केवल मध्य और पूर्वी भारत के बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में ही प्रयोग होता है। उत्तर-पूर्व, उत्तर,दक्षिण और पश्चिम भारत से बिलकुल गायब है यह विस्मयादिबोधक चिह्न (नोट ऑफ़ एक्स्क्लामेशन)!
हिंदी में ‘सिंदूर’ और अंग्रेजी में ‘वर्मिलियन’ नाम से पुकारे जानेवाले इस पाउडर को लाल रंग के एक खनिज सिनाबार (मरकरी सल्फाइड), सिन्थेटिक डाई,लेड ऑक्साइड जैसे जहरीले पदार्थ से बनाया जाता है। प्राचीन रोमन कला में और पुनर्जागरण काल (रिनेसां) के चित्रों में, चीनी कला और लाह के बर्तन में तथा माया संस्कृति की सजावट में इसका उपयोग किया गया था। जहरीला होने के कारण पूजा या मनुष्यों के लिए बिलकुल उपयोग नहीं होता था। सिन्दूर महिला के बालों को, गर्भस्थ शिशु को, बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, व्यवहार और किडनी को नुक्सान पहुंचाते हैं। आजकल भारतीय प्राकृतिक (नैचुरल) सिंदूर या कुमकुम बनाने के लिए हल्दी, केसर, लाइम/ नींबू/ नारंगी का रस, फिटकरी (एलम), सुहागा (बोरेक्स) और तिल का तेल उपयोग में लाये जा रहे हैं। विश्वव्यापी चेतना अभियान के कारण अब कई कम्पनियां एलर्जी या जहरीले पदार्थ के बिना सुरक्षित बिंदी ISO 9002 प्रमाणपत्र के साथ बनाने का दावा करती हैं। अतः सिन्दूर के प्रेमी सावधानी से इसका उपयोग करें।
यह स्पष्ट नहीं है कि विवाहित हिन्दू महिला द्वारा सिंदूर भरी मांग का प्रयोग कब शुरू हुआ। प्राचीन भारत में विवाह फूलमालाओं के आदान-प्रदान और पवित्र अग्नि की परिक्रमा करके किया जाता था। ‘एक चुटकी सिंदूर’ की कीमत भारतीय सिनेमा ने बताई किन्तु प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ‘एक चुटकी सिंदूर’ का उल्लेख नहीं मिलता। हाँ, धीरे-धीरे, पुराने महाकाव्यों की शादी में आज की शादी जैसा सिंदूर भरी मांग का दृश्य आ गया है। पर इससे इस प्रथा की उत्पत्ति के बारे में कोई सुराग नहीं मिलता है। संभवतः मध्ययुग में मुगल शासन के अत्याचार के कारण उन क्षेत्रों के हिंदुओं ने बाल-विवाह, विवाहित महिला द्वारा मांग में सिंदूर, घूंघट, हाथ में गुदना गुदवाना जैसी प्रथाओं को महिला की सुरक्षा के लिए अपनाया था। मुगल शासन अब सिर्फ इतिहास है। अतः उस समय की प्रथा की अब जरूरत नहीं। यह भी सत्य नहीं कि सिंदूर पति के जीवन को बढ़ाने की तावीज है क्योंकि अपनी प्यारी पत्नी की भरी मांग के बावजूद कई पुरुषों की मृत्यु हो गई है।
कुछ लोगों के अनुसार, यह नारी की सुरक्षा करता है, गलत नजरों को दूर रखता है। लेकिन यह तर्क सही नहीं लगता। भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में जहां सिंदूर भरी मांग प्रचलित है, वहाँ उसकी सुरक्षा बहुत कमजोर हालत में है। उत्तर-पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारतीय क्षेत्रों ने सिंदूर के बिना ही सुरक्षा मुद्दों को लागू किया है। जब भारत देश में सामाजिक सुरक्षा सभी के लिए उपलब्ध होगी, तब महिलाओं को अपने सिर पर रक्त के रंग के किसी विस्मयादिबोधक चिह्न (!) की आवश्यकता नहीं होगी। मांग में सिंदूर सिर्फ उस वैवाहिक सीमा का प्रतीक है जिसको लांघना उस महिला और पराये पुरुष के लिए दंडनीय है। पर विवाहित पुरुष के लिए विवाह का ऐसा कोई प्रतीक या वैवाहिक सीमा नहीं है, अतः सिंदूर भरी मांग को एक महिला के अस्तित्व पर पितृसत्ता केदबाव के रूप में देखा जाता है। इस सामाजिक विषमता के कारण आज सिंदूर का जोरदार विरोध किया जा रहा है। अब महिलाओं की मांग में सिंदूर की न कोई आवश्यकता है, न कोई आध्यात्मिक और वैज्ञानिक तर्क है, न ही इसका औचित्य है।