हेट-स्पीच पहले परिभाषित तो करें!

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(भारत में दशकों से आम दृश्य है कि विशेष समूहों, दलों की ओर से जाति, वर्ग, धर्म, आदि संबंधित कितने भी उत्तेजक भाषण क्यों न हों, उस पर तीनों शासन अंग चुप रहते हैं। जैसे, ब्राह्मणों के विरुद्ध अपशब्द कहना आज एक फैशन है जिस में हमारे सभी राजनीतिक दल शामिल हैं। हमारे देवी-देवताओं को गंदा कहना, किसी महान हिन्दू ग्रंथ को जलाना तक बरोकटोक चलता है। किन्तु अन्य किसी समुदाय या पुस्तक को कुछ कहते ही सभी नाराज होने लगते हैं। ऐसी चुनी हुई चुप्पियाँ और चुना हुआ आक्रोश दिखाना क्या न्याय है? क्या इस से सामाजिक सौहार्द बनता है?)

हाल में सुप्रीम कोर्ट ने घृणा-फैलाने वाले वक्तव्यों (‘हेट-स्पीच’) पर सभी राज्यों को आदेश दिया है कि वे ऐसे वक्तव्यों पर स्वयं संज्ञान लेकर प्राथमिकी दर्ज कराएं। पर कोर्ट ने स्पष्ट नहीं किया कि हेट स्पीच की पहचान या सीमाएं क्या हैं? ऐसी स्थिति में यह तंत्र को एक और हैंडल थमा देने जैसा है कि जिस किसी व्यक्ति, अखबार, संस्था, आदि को घृणा-फैलाने वाला बताकर दंडित करें। अपने आदेश में ‘रिलीजन’ और ‘सेक्यूलरिजम’ का हवाला देकर कोर्ट ने और भी अनुचित किया। मानो, हेट केवल किसी खास रिलीजन से संबंधित विषय हो! उसे कष्ट उठाकर पहले हेट-स्पीच को परिभाषित करना चाहिए।

क्योंकि यहाँ दशकों से आम दृश्य है कि विशेष समूहों, दलों की ओर से जाति, वर्ग, धर्म, आदि संबंधित कितने भी उत्तेजक भाषण क्यों न हों, उस पर तीनों शासन अंग चुप रहते हैं। जैसे, ब्राह्मणों के विरुद्ध अपशब्द कहना आज एक फैशन है जिस में हमारे सभी राजनीतिक दल शामिल हैं। हमारे देवी-देवताओं को गंदा कहना, किसी महान हिन्दू ग्रंथ को जलाना तक बरोकटोक चलता है। किन्तु अन्य किसी समुदाय या पुस्तक को कुछ कहते ही सभी नाराज होने लगते हैं।

ऐसी चुनी हुई चुप्पियाँ और चुना हुआ आक्रोश दिखाना क्या न्याय है? क्या इस से सामाजिक सौहार्द बनता है? सच तो यह है कि वोट-बैंक राजनीति की एक स्थाई तकनीक ही एक के विरुद्ध बोलकर दूसरे को लुभाना रहा है। किन्तु इस पर विधायिका और न्यायपालिका, दोनों ही बैरागी-साधु बन जाते हैं कि उन्हें इस से क्या लेना-देना!

इसी क्रम में भारतीय दंड संहिता 153-ए तथा 295-ए का उपयोग, उपेक्षा, तथा दुरुपयोग भी आता है। पहली धारा धर्म, जाति, भाषा, आदि आधारों पर विभिन्न समुदायों के बीच द्वेष, शत्रुता, दुर्भाव फैलाना दंडनीय बताती है। दूसरी धारा किसी समुदाय की धार्मिक भावना जान-बूझ कर ठेस पहुँचाने, या उसे अपमानित करने को दंडनीय कहती है। लेकिन गत कई दशकों से एक समुदाय विशेष के नेता खुल कर दूसरे समुदाय के देवी-देवताओं, महान ज्ञान-ग्रंथों, आदि का अपमान करते रहे हैं। जिन पर न्यायपाल कभी ध्यान नहीं देते।

आज यू-ट्यूब, सोशल-मीडिया, और इंटरनेट के कारण ऐसे दर्जनों भाषण सुने जा सकते हैं। सांसद, विधायक जैसे बड़े लोग भगवान राम, तथा माता कौशल्या पर गंदी छींटाकशी करते रहे हैं। वे खुले आम एक समुदाय को कायर, लाला, बनिया-बुद्धि का कहते हैं जो केवल पुलिस भरोसे बचा है, जिसे ‘दस मिनट के लिए हटाते’ ही उस की ऐसी-तैसी कर दी जाएगी, आदि। क्या इस पर न्यायाधीशों ने कभी स्वयं संज्ञान लिया? उलटे शिकायत आने पर भी न्यायपाल और कार्यपाल सब कुछ अनसुना और रफा-दफा कर देते हैं। जिस से वस्तुतः वैसी दबंगई को परोक्ष प्रोत्साहन ही मिलता है। इस से एक समुदाय में अपने दबंग होने, और दूसरे में अपने अपमान व नेतृत्वहीनता का दंश होता है।

दूसरी ओर, कुछ मतावलंबियों की मूल किताबों में ही दूसरे मत मानने वालों के विरुद्ध तरह-तरह की घृणित बातें, और उन्हें अपमनानित करने, उन से टैक्स वसूलने, और मार डालने तक के आवाहन लिखे हुए हैं। वे अपनी ऐसी किताबों को दैवी, पवित्र मानते हैं और दूसरों के धर्म, मत, देवी-देवताओं को ‘झूठा’ बताते हैं। तब अपने प्रति वैसी बातों, आवाहनों पर दूसरे समुदायों को आलोचना भी करने का अधिकार है या नहीं? वस्तुतः विडंबना और भी गहरी है कि शासन-सत्ताएं उन्हीं किताबों के पठन-पाठन समेत, संबंधित समुदाय को नियमित रूप से विशेष शैक्षिक स्वतंत्रता एवं अनुदान देती है। इस तरह, दूसरों के विरुद्ध नियमित घृणा फैलाने को किसी समुदाय की ‘शिक्षा’ का अंग मानकर परोक्ष रूप से राजकीय सहायता तक मिलती है। इस पर विचार करने की जिम्मेदारी किस की है? हमारे न्यायपाल, सांसद, तथा कार्यपाल, तीनों ही इस से पल्ला झाड़ते हैं। ऐसी बेपरवाही, भेद-भाव, और मनमानी यहाँ ब्रिटिश राज में भी नहीं थी!

उपर्युक्त सभी बातें राई-रत्ती परखी जा सकती हैं। किन्तु ऐसा नहीं किया जाता। बल्कि इस के लिए प्रमाणिक उदाहरणों के साथ आवेदन देने पर न्यायालय कभी-कभी आवेदक को ही जुर्माना कर देता है! दो साल पहले वासिम रिजवी की याचिका पर यही हुआ था। जब कि किसी ने नहीं बताया कि उस याचिका में कौन सी शिकायत गलत थी! तब यही संदेश गया कि उन शिकायतों को गलत बताना न्यायाधीशों के बस से बाहर था। चूँकि वे ऐसे मामले सुनना नहीं चाहते, इसलिए आवेदक को दंडित कर के सब को चेताया कि चुप रहें।

वस्तुतः, ऐसे दोहरेपन ही तीखी प्रतिक्रियाएं पैदा करते हैं। उसी की अभिव्यक्ति समय-समय पर किसी क्षुब्ध व्यक्ति के असंयत वक्तव्यों में होती है। आखिर, यदि देश के शासक, न्यायपाल, और विधिनिर्माता किसी समुदाय विशेष के प्रति सदा-बैरागी, और दूसरे के लिए सदा-संवेदनशील रहेंगे, तब कोई तो यह कहेगा ही। एक सेक्यूलर राज्यतंत्र में नियमित दो-नीतिया व्यवहार सदैव स्वीकार नहीं होगा। इसे दमन की धमकी से चुप कराने की कोशिश विपरीत फलदायी होगी।

यह शासन के तीनों अंगों में आई मानसिक गिरावट का भी संकेत है। वह अपनी आँखों के सामने घटते घटनाक्रम का आकलन करने में भी अयोग्य है। कई बार अनेक बड़ी-बड़ी घटनाओं में यह दिखा कि विभिन्न समुदायों के हितों, भावनाओं, धर्म, संस्कृति के प्रति विषम व्यवहार पर हेठी झेलने वाले समूह में असंतोष जमा होता है। उस से आपसी द्वेष बढ़ते, और हिंसा-विध्वंस तक होता है। अंततः वह चुनावी उथल-पुथल में भी व्यक्त होता है। फिर भी, हमारे नेता, बौद्धिक, तथा न्यायपाल वही दोहरापन जारी रखते हैं। कानूनी रूप से भी, और कानून की उपेक्षा करके, दोनों रूपों में।

उन्हें ध्यान देना चाहिए, कि असुविधाजनक सचाइयों को तहखाने में दबाकर लोक-स्मृति से हटा देने की संभावना अब बहुत घट गई है। नए मीडिया ने लगभग सभी सेंसरशिप विफल कर दी है। हर उचित-अनुचित, चाहे वह जिस ने भी कही या की हो, वह बिना खर्च घर-घर पहुँच सकती है। अतः अन्यायपूर्ण, अपमानपूर्ण कथनी-करनी पर दो-टूक समानता बनानी ही होगी। इस से बचने की कीमत समाज में निर्दोष लोगों को चुकानी पड़ती है। हरेक वर्ग, समूह, जाति, संप्रदाय के सामान्य लोगों को अपने समुदाय के उद्धत/मूर्ख नेताओं की चुनी हुई बयानबाजी और चुनी हुई चुप्पियों के कारण दूसरों के संदेह का शिकार होना पड़ता है। इसे केवल समदर्शी शासन ही रोक सकता है। लोगों को उपदेश या धमकी देकर दोहरापन जारी रखना कोई उपाय नहीं है।

इसलिए, हेट-स्पीच को कड़ाई और निष्पक्षता से पहले परिभाषित करें। ताकि वर्तमान या अतीत, लिखित प्रकाशित या मौखिक, किसी भी बात, किताब, या मत-विश्वास को अपवाद न बताया जा सके। ताकि केवल एक रंग के लोगों को दंडित करने, अथवा, खास रंग के लोगों को सदा छूट रहने का सुभीता न बने। विशेषकर सांसदों, विधायकों, संगठनों, संस्थाओं के द्वेषपूर्ण सांप्रदायिक या जातिवादी बयानों पर अधिक सख्ती व फुर्ती से कार्रवाई हो। तभी समाज के सभी समुदायों में भरोसा पैदा होगा। आम लोग किसी भी समुदाय के नेताओं को सहज न्यायदृष्टि से देखने के लिए तैयार रहते हैं।

अच्छा हो, हमारी संसद सभी वर्गों के विवेकशील प्रतिनिधियों को लेकर समरूप आचार-संहिता और दंड-नीति बनवाएं। जिस से शिक्षा, धर्म, तथा राजनीतिक व्यवहार पर सभी समुदायों को समान अधिकार एवं सुरक्षा प्राप्त हो। किसी समुदाय को विशेष अधिकार या विशेष वंचना न हो। किसी भी नाम पर विशेषाधिकारों का दावा खारिज हो। सभी निरपवाद रूप से मानें कि ‘‘दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो अपने लिए नहीं चाहते”। यह व्यवस्था आज न कल करनी ही होगी। शुभस्य शीघ्रम्!

डॉ. शंकर शरण, दि. ४.५.२०२३

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