भारत के छात्रों की राजनीति एक बार फिर गरमा रही है। जे.एन.यू. में कुछ दिनों पूर्व जो कुछ देखने को मिला था अब कुछ वैसा ही डी.यू. में देखने को मिला है-जहां कुछ छात्रों ने देशविरोधी नारे लगाये हैं, जिसका ए.बी.वी.पी. ने विरोध किया है। कम्युनिस्ट दलों के नेताओं सहित सभी धर्मनिरपेक्ष दलों ने न्यूनाधिक छात्रों के देशविरोधी आचरण की एक बार पुन: पैरोकारी की है, और उनके कार्य को ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ से जोडक़र देखने की भूल की है। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निश्चित रूप से हमारे संवैधानिक मौलिक अधिकारों में सम्मिलित हैं। हमें अपने इस संवैधानिक मौलिक अधिकार का प्रयोग करने का स्वयं को जितना अधिकार है उतना ही दूसरे को भी अधिकार है। साथ ही दूसरे के इस संवैधानिक मौलिक अधिकार का सम्मान करना हमारा कत्र्तव्य भी है। परंतु हमें स्मरण रखना चाहिए कि संवैधानिक मौलिक अधिकारों को प्रदान करते समय ही हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारे मौलिक अधिकारों की सीमा रेखा भी खींची है। जिसके चलते जहां हमें संवैधानिक मौलिक अधिकार प्राप्त हैं-वहीं उन पर राष्ट्रहित में कुछ प्रतिबंध भी हैं। हमारी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं है। हम अपनी सरकार की आलोचना कर सकते हैं, किसी प्रधानमंत्री में या उसकी सरकार में दोष ढूंढ़ सकते हैं, पर हम अपने देश में कमी नहीं निकाल सकते और ना ही देश की एकता और अखण्डता को तार-तार करने वाली गतिविधियों में सम्मिलित होकर कोई भाषणादि ही दे सकते हैं। इस प्रकार हमारे संविधान निर्माताओं ने देश और राष्ट्र को निर्विकार माना है और व्यक्ति की भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मर्यादित कर दिया है। ऐसी स्थिति भारत में ही नहीं है, अपितु विश्व के हर लोकतांत्रिक देश में है। कोई भी देश अपने नागरिकों को अपने ही देश को तोडऩे की अनुमति नहीं देता।
जे.एन.यू. के पश्चात अब डी.यू. में जिस प्रकार आजादी के नारे लगाये गये हैं उनसे पता नहीं चलता कि ये छात्र अंतत: किससे आजादी चाहते हैं? क्या जिसका अन्न खाते हैं और हवा पानी प्रयोग करते हैं उसी मातृभूमि से ये अपनी आजादी चाहते हैं? यदि ऐसा है तो यह तो निश्चय ही देश के विरूद्घ युद्घघोष और विश्वासघात है। ऐसे विश्वासघात को और अधिक जारी रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
वास्तव में देश के कम्युनिस्टों ने छात्र राजनीति को देश में उग्र और आंदोलनात्मक बनाने का कार्य किया है। इन लोगों ने भारत के छात्रों को भारत की संस्कृति और इतिहास से काटकर अपनी विचारधारा के प्रति समर्पित बनाने का राष्ट्रघाती कार्य किया है। हमारे विद्यालयों में छात्रों को एक पूर्ण मानव बनाने की प्रक्रिया का पालन किया जाता रहा है। यह कार्य प्राचीनकाल से गुरूकुलों के माध्यम से होता आया है। कोई भी छात्र अपने छात्र जीवन में पूर्ण मानव या परिपक्व नहीं हो पाता है। विश्व विद्यालय से बाहर आने पर भी यद्यपि उसे ‘दीक्षित’ कर दिया जाता है-परंतु उस दीक्षा का अभिप्राय भी यही होता है कि गुरू ने विद्याध्ययन काल में जिस मानवभक्ति, देशभक्ति और ईशभक्ति की त्रिवेणी में तुझे बार-बार स्नान कराया है, उसे बाहर जाकर भूलना नहीं है, अपितु इस त्रिवेणी के संक्षिप्त सार रूप अर्थात प्रेमरस को संसार में जाकर सबके ऊपर बरसाना है। जिससे कि संसार के सभी लोग एकता के सूत्र में आबद्घ हों, और अपना सर्वांगीण विकास कर सकें।
भारत के लोग परम्परा से देशभक्त रहे हैं। इन्हें दोगले लोगों के दोगले चरित्र कभी पसंद नहीं आये हैं। जिन लोगों ने दोगले पन से इन्हें भ्रमित करने का प्रयास किया है उन्हें इन लोगों ने ‘जयचंद’ के रूप में पहचाना है। इतने बड़े विचारकों और अपनी विचारधारा के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखने वाले कम्युनिस्टों के प्रति हमारे देश के लोगों ने कभी भी आत्मीय भाव का प्रदर्शन नहीं किया। इसका कारण यही रहा है कि हमारे देशवासियों को कम्युनिस्टों का चरित्र दोगला और अविश्वसनीय दिखाई दिया है। इन लोगों ने अपनी विचारधारा के नाम पर करोड़ों लोगों का रक्त बहाया है-जिसे भारत की जनता भूल नहीं सकती। रूस को कम्युनिस्ट आंदोलन से लोकतंत्र की डगर पर लौटना पड़ गया, क्योंकि उसने देख लिया था कि यह विचारधारा कितनी खोखली है? जिस चीन में यह विचारधारा काम कर रही है वह भी अपने देश के मानवाधिकारों के प्रति कितना संवेदनशील है-इसे सारा संसार भली प्रकार जानता है। तिनानमिन चौक की घटना को घटित हुए अभी अधिक वर्ष नहीं हुए हैं, जिस पर आंदोलन कर रहे छात्रों पर चीन की सरकार ने निर्ममतापूर्वक अत्याचार किये थे। तब हमारे कम्युनिस्टों ने उस आंदोलन को चीन की कम्युनिस्ट सरकार द्वारा कुचलने का समर्थन किया था, जिसके पीछे उनका तर्क था कि किसी भी संगठन को देश विरोधी कार्य करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। यद्यपि उन छात्रों ने अपने आंदोलन देश तोडऩे की बजाय अपनी सरकार के क्रूर दमनचक्र के विरोध में किया था।
हमारा मानना है कि देश के शिक्षार्थियों को राजनीति की दलदल में फंसाने के स्थान पर राष्ट्रनीति का मनोहारी पाठ पढ़ाना चाहिए। उन्हें एक विचारधारा का पोषक और दूसरी विरोधी न बनाकर देश सेवा के प्रति संल्पित व्यक्ति बनाना चाहिए। उनकी ृदृष्टि में राष्ट्र हो, उनकी सृष्टि में राष्ट्र हो, उनकी चिंतन में राष्ट्रसेवा की मचलन हो और उनके कार्य व्यापार में राष्ट्र के प्रति अटूट समर्पण हो। वह राष्ट्रनीति के पोषक हों और मानवतावाद के पुजारी हों। जो शासक राष्ट्रविरोधी या जनविरोधी कार्य करे उसकी विवेकपूर्ण पड़ताल करने की उनकी बुद्घि सदा तर्कसंगत निर्णय लेने वाली हो। ऐसे छात्र जिस आचार्य कुल में बनने लगते हैं वे अपने राष्ट्र के वास्तविक निर्माता होते हैं।
हमारे धर्मनिरपेक्ष शासक जिस प्रकार भारत विरोधी साहित्य पढ़ाकर और इस देश की एकता और अखण्डता को तार-तार करके इसे मिटा देने वाली शिक्षा-संस्कृति को अब तक बढ़ाते हुए छात्रों को पढ़ाते रहे हैं-वह निंदनीय भी है और चिंतनीय भी है। इसमें हमारे छात्रों का दोष कम है और उन्हें ऐसी शिक्षा दिलाने की युक्ति करने वालों का दोष अधिक है। जे.एन.यू. और डी.यू. के डी.एन.ए. को हमें इसी प्रकार समीक्षित करना चाहिए।
मुख्य संपादक, उगता भारत