भारत की सांस्कृतिक विरासत में षड्दर्शनों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। इनमें जिस दार्शनिक शैली में तत्व विवेचन किया गया है ज्ञान की प्रस्तुति की उस पराकाष्ठा के समक्ष संसार के अच्छे-अच्छे विद्वान पानी भर जाते हैं। इन षड्दर्शनों में सम्मिलित ‘पूर्व मीमांसा’ और ‘उत्तर मीमांसा’ को ‘मीमांसा’ के नाम से जाना गया है। इन दोनों दर्शनों में जिस प्रकार से वेदार्थ- विचार एवं धर्मतत्त्व-विवेचन किया गया है वह आज के प्रत्येक बुद्धिजीवी और दर्शन के जिज्ञासु विद्यार्थी को अवश्य पढ़ना चाहिए। इनके यथार्थ ज्ञान को हृदयंगम करने से अनेक प्रकार की भ्रान्तियों का निवारण होता है। महर्षि पाणिनि के अनुसार मीमांसा शब्द का अर्थ जिज्ञासा है। जिज्ञासा अर्थात् जानने की लालसा , इच्छा। वास्तव में जिज्ञासु होना जीवन की पंखुड़ियों को खिलाने की उत्कट अभिलाषा को प्रकट करता है। सर्वोत्कृष्ट को पाने के लिए सर्वोत्कृष्ट प्रयास की ही आवश्यकता होती है। हम इस बात के लिए अपने आप को बहुत अधिक सौभाग्यशाली मानते हैं कि हमारे पूर्वज अत्यंत जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे। जिज्ञासा की उनकी इसी प्रवृत्ति के कारण उन्होंने अनेक प्रकार के आविष्कार किए और अपनी ज्ञान की पराकाष्ठा को प्राप्त कर सांसारिक उन्नति के साथ-साथ पारलौकिक उन्नति अर्थात मोक्ष भी प्राप्त किया। पूर्व-मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा। इसके भीतर सोलह अध्याय समाविष्ट किए गए हैं।
जानने की इच्छा लेकर जो भी नर जग में जीता।
जीवन पंखुड़ी खिलती उसकी ,वही अमृत को पीता।।
सृष्टि के प्रारंभ में जब परमपिता परमेश्वर ने मनुष्य को बनाकर धरती पर भेजा तो निश्चित रूप से उसके समक्ष सबसे पहली जिज्ञासा यही रही होगी कि अब वह क्या करे ? इस प्रथम जिज्ञासा ने उसे अनंत की ऊंचाइयों को छूने के लिए प्रेरित किया। उसने अपने इस कर्तव्य ( धर्म ) को पहचाना कि संसार में वह किस लिए आया है और उसे यहां आकर क्या करना है ?
इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इसी इच्छा का प्रतीक है। वैदिक धर्म में आस्था रखने वाले आर्य लोगों के अतिरिक्त संसार के जितने अन्य लोग हैं वह आज तक भी इस प्रकार की जिज्ञासा को पाल नहीं सके हैं कि यह संसार में क्यों आए और उनका यहां आकर क्या कर्तव्य (धर्म) बनता है ? वे लोग कर्तव्य ( धर्म ) के स्थान पर किसी अपने आदर्श व्यक्तित्व को या अपने किसी मजहब विशेष को लक्ष्य बनाकर उसके लिए काम करने लगे । जिससे संसार में हिंसा और अपराध का बोलबाला हुआ।
पूर्व मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक महर्षि जैमिनी माने गए हैं। इस ग्रन्थ में 12 अध्याय, 60 पाद और 2731 सूत्र हैं। महर्षि जैमिनि पूर्व मीमांसा दर्शन का शुभारंभ करते हुए कहा है :-
अथातो धर्मजिज्ञासा।।
अब धर्म करणीय कर्म के जानने की जिज्ञासा है।
वेदविहित कर्म क्या हैं और वेद द्वारा निषिद्ध कर्म क्या हैं? बस, इन दोनों के बीच ही धर्म और अधर्म, कर्तव्य और अकर्तव्य का रहस्य छुपा हुआ है। वेद ने हमारे लिए जिन कर्मों को करणीय बताया है वही धर्म है और जिनको करने से निषिद्ध किया गया है, उन्हें अपनाना या करना ही अधर्म है। वेद ने हर उस कार्य को हमारे लिए करणीय माना है जो मानवता का हितसंवर्द्धन करता हो, मानवता का कल्याण करता हो और किसी भी प्राणी को कष्ट न देते हुए हमें जीवन जीने की प्रेरणा देता हो।
वेदविहित कर्मों को करना, निषिद्ध कर्म से दूर रहो।
धर्म-कर्म को करते-करते ,आनंद से नित भरपूर रहो।।
विद्वानों का सुस्पष्ट मंतव्य है कि किसी विषय पर गहराई से किए गये विचार-विमर्श को मीमांसा कहते हैं। हमारे तत्वज्ञ ऋषियों का कहना है कि मीमांसनं मींमांसा । स्पष्ट है कि धर्म क्या है ? इसको गहराई से समझना और समझाना ही पूर्व मीमांसा का मूल सार है। हमारे ऋषियों ने धर्म को हमारे जीवन का आधार बनाकर हमारे लिए स्थापित किया। ऐसा उन्होंने ईश्वर द्वारा उनके हृदय में की गई अंतः प्रेरणा के आधार पर किया। क्योंकि वह भली प्रकार जानते थे कि धर्म न केवल मनुष्य का जीवन आधार होगा अपितु वह जब तक सृष्टि रहेगी तब तक इस सृष्टि को सुव्यवस्थित करने का एक आधारभूत कारक भी होगा।
इस प्रकार धर्म सृष्टि की रीढ़ है। यदि धर्म को सृष्टि चक्र से निकाल दिया जाए तो सृष्टि एक इंच भी आगे चल नहीं पाएगी। महर्षि जैमिनी के अनुसार “चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः” अर्थात् वेद-वाक्य से लक्षित अर्थ, धर्म है । वेद धर्म ग्रंथ इसीलिए है कि वह हर पग पर धर्म की बात करता है। धर्म स्थापित रहे और सृष्टि चक्र सुव्यवस्थित ढंग से चलता रहे, सारे वेद ज्ञान का उद्देश्य यही है।
धर्म पर चलते चलते मानव, कर भगवन से प्यार।
डोर पकड़ ले , कर देगा भव से पार।।
यदि पूर्व मीमांसा में धर्म पर विचार किया गया है तो उत्तर मीमांसा में ब्रह्म पर विचार किया गया है। पूर्व मीमांसा के सूत्रों की रचना जैमिनी द्वारा की गई है। धर्म संबंधी अपने उत्कृष्ट चिंतन को अपनी मनन शक्ति के माध्यम से महर्षि जैमिनी ने जिस विद्वत्ता पूर्ण ढंग से हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है, उनकी वह शैली वास्तव में वेद की शैली है, जो बीज रूप में बहुत बड़ी बात कह देते हैं। सृष्टि में सर्वत्र सूक्ष्म ही स्थूल का आधार है। हमारा शरीर भी देखने के लिए तो हड्डियों का ढांचा है, पर वास्तव में यह बिना हड्डियों वाले आत्मा के सहारे चलता है। यदि आत्म तत्व को इससे निकाल दिया जाए तो यह मिट्टी ही रह जाएगा। इसी तत्व दर्शन को समझकर हमारे ऋषि मनीषियों ने अपना समस्त चिंतन तत्व को केंद्र में रख कर दिया है। यही कारण है कि उनकी प्रस्तुति बहुत ही संक्षेप में अर्थात बीज रूप में प्रकट होती हुई देखी जाती है।
हमारे देश में प्राचीन काल से ही यह परंपरा रही है कि जिस ऋषि या किसी विद्वान व्यक्ति के द्वारा किसी ग्रंथ की या किन्हीं सूत्रों की रचना की गई है तो उस ग्रंथ को या उन सूत्रों को उसी ऋषि या विद्वान व्यक्ति के नाम से भी संबोधित किया जाता है। यही कारण है कि पूर्व मीमांसा दर्शन के सूत्रों के जैमिनि द्वारा रचित होने से इस दर्शन काे ‘जैमिनीय धर्ममीमांसा’ भी कहा जाता है। मानव जीवन को अपने परम लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए अर्थात परम पद की प्राप्ति के लिए सीधा रास्ता दिखाने में पूर्व मीमांसा के दर्शनकार ऋषि जैमिनी का विशेष योगदान है। मीमांसा पर कुमारिल भट्ट के ‘तन्त्रवार्तिक’ और ‘श्लोकवार्तिक’ भी प्रसिद्ध हैं । मध्वाचार्य ने भी ‘जैमिनीय न्यायमाला विस्तार’ नामक एक भाष्य की रचना की है । मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का भी विस्तृत विवेचन किया गया है। इसी विशिष्टता के कारण दर्शन को ‘यज्ञविद्या’ भी कहते हैं ।
दर्शनकार ऋषि जैमिनी ने अपने इस शास्त्र को बारह अध्यायों में विभक्त किया है। जिस कारण यह मीमांसा ‘द्वादशलक्षणी’ भी कहलाता है। विद्वानों के दृष्टिकोण से यहां यह बात भी स्पष्ट कर देनी आवश्यक है कि “इस शास्त्र का ‘पूर्वमीमांसा’ नाम इस अभिप्राय से नहीं रखा गया है कि यह उत्तरमीमांसा से पहले बना । ‘पूर्व’ कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मकांड मनुष्य का प्रथम धर्म है ज्ञानकांड का अधिकार उसके उपरान्त आता है।”
जहां तक विभिन्न यज्ञों की बात है तो हमें इसे इस प्रकार समझना चाहिए कि जब कोई बढ़ई किसी वृक्ष की लकड़ी को काटकर उसका सदुपयोग करते हुए घरेलू फर्नीचर कुर्सी, मेज आदि या दरवाजे – खिड़की आदि का निर्माण करता है तो वह अपने इस कार्य के माध्यम से एक प्रकार का यज्ञ ही करता है। इसी प्रकार कच्चे लोहे को लेकर योग्य वैज्ञानिक और शिल्पकार एक सुंदर सा कपड़ा सीने की मशीन तैयार कर देते हैं। इस मशीन के माध्यम से भी लोगों का कल्याण होता है। इस प्रकार लोहे से मशीन बनाना भी यज्ञ का ही एक रूप है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत