प्रवीन मोहता
इटावा का एक छात्र कानपुर के एक कोचिंग इंस्टिट्यूट में पहुंचा। लक्ष्य, IIT से बीटेक करना। एक दिन टीचर ने उस छात्र से एक सवाल किया तो वह सकपका गया। जवाब दिया, ‘अब तक आपने जो पढ़ाया, उसमें से कुछ समझ नहीं आया।’ टीचर यह सुनकर हैरान थे। काउंसलिंग में पता चला कि छात्र तो हिंदी मीडियम का है, जबकि पढ़ाई अंग्रेजी में हो रही है।
IIT में दाखिला ख्वाब है लाखों बच्चों का। इसके लिए जी-जान से तैयारी करते हैं वे। लेकिन, इस कहानी से यह भी जाहिर होता है कि फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स जान लेना काफी नहीं। इसके बाद बड़ी दिक्कत आती है भाषा की, जब 12वीं तक हिंदी मीडियम में पढ़ने के बाद अचानक सामना होता है अंग्रेजी से।
कानपुर के एक कोचिंग इंस्टिट्यूट में केमिस्ट्री पढ़ाने वाले जीडी वर्मा कहते हैं, ‘रायबरेली, इटावा, उन्नाव या उत्तर प्रदेश के किसी छोटे जिले के बच्चे तैयारी के दौरान कई मुश्किलों से जूझते हैं। 12वीं तक सब कुछ हिंदी में पढ़ते हैं वे। उसके बाद अंग्रेजी आ जाती है। हिंदी मीडियम वाले स्टूडेंट्स क्लास में काफी चीजें समझ नहीं पाते। मेरा अनुभव है कि हर साल मेरे इंस्टिट्यूट में 200 स्टूडेंट्स आते हैं और इनमें से 30-40 पढ़ाई छोड़कर चले जाते हैं। वजह, इंग्लिश फोबिया। इनमें कई तो अपने जिले और स्कूल में बहुत होशियार माने जाते हैं।’
यह तो हुआ IIT पहुंचने के पहले का संघर्ष। IIT में दाखिले के बाद भी जारी रहती है यह मुश्किल। वहां इंजीनियरिंग की पढ़ाई होती है अंग्रेजी में। एक छात्र ने आपबीती बताई, ‘मैंने हिंदी में पढ़ाई की थी और प्रफेसर तेजी से अंग्रेजी में पढ़ाते हैं। पहले सेमेस्टर में तो कई बार मुझे कुछ समझ ही नहीं आया। कई बार विषय थोड़ा ही समझ पाया। पहले साल और खासकर पहले सेमेस्टर में ऐसी दिक्कतें आम हैं।’ पहले साल के कोर्स की शुरुआत में पूरे बैच की अंग्रेजी की समझ जांचने के लिए एक टेस्ट होता है। रिजल्ट से तय होता है कि किसे कितनी अंग्रेजी सिखानी है। अंग्रेजी में ज्यादा कमज़ोर स्टूडेंट्स की क्लास सीनियर से अलग लगती है।
भाषा से जुड़ी यह समस्या नई नहीं। यूपी कैडर के रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने 1985 में IIT कानपुर में दाखिला लिया था। वह बताते हैं, ‘मैं बिहार का मूल निवासी हूं। IIT कानपुर में काफी दिक्कतें आईं। कई स्टूडेंट्स अंग्रेज़ी पृष्ठभूमि से होते थे। शुरुआत में सामान्य चीजों में ही दिक्कतें पेश आती थीं। अंग्रेजी पढ़ना भी एक संघर्ष होता है।’
तकनीकी और उच्च शिक्षा में भाषागत समस्या दूर करने के प्रयास 2020 में आई नई शिक्षा नीति में शुरू किए गए। IIT कानपुर के एक प्रफेसर बताते हैं, ‘भाषा की समस्या तो है। हर साल औसतन 10 प्रतिशत फ्रेशर्स भाषा की दिक्कत से जूझते हैं। कभी-कभी यह संख्या बढ़कर 14-15 प्रतिशत तक भी पहुंच जाती है। लेकिन, हमें भाषा की बहस से दूर रहना होगा। IIT में इंजीनियरिंग की पढ़ाई होती है, भाषा की नहीं।’ प्रफेसर आगे कहते हैं, ‘इस समस्या का एक समाधान है। जॉइंट एंट्रेंस एग्जाम में पास होने वाले बच्चों को सरकारी स्तर पर अंग्रेजी की कोचिंग मिले। इससे IIT पहुंचने के पहले ही कई समस्याएं खत्म हो जाएंगी।’
IIT कानपुर कैंपस में छात्र-छात्राओं के स्तर पर एक संस्था चलती है, हिंदी साहित्य सभा। एक छात्र ने बताया, ‘कैंपस में भाषा की काफी दिक्कत है। छात्र अलग-अलग विंग में रहते हैं। कई बार ऐसा होता है कि किसी विंग में हिंदीभाषी छात्र ज्यादा हैं। वहां कुछ गिने-चुने स्टूडेंट्स तमिल, मलयालम या कन्नड़ भाषी होते हैं। भाषा की दिक्कत बढ़ते-बढ़ते ग्रुपिंग को जन्म देती है। मतलब, दक्षिण और उत्तर के छात्रों के अलग-अलग ग्रुप। वहीं, किसी छात्र ने सामान्य अंग्रेजी भी सीख ली, तो कोर्स के दौरान उसे कोई दिक्कत नहीं आती।’
IIT कानपुर ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के स्टूडेंट्स की समस्या को सुलझाने के गंभीर प्रयास शुरू किए हैं। यहां 2021 में शिवानी सेंटर की स्थापना हुई। शिवानी सेंटर की स्थापना हिंदी की नामी लेखिका गौरा पंत शिवानी के बेटे मुक्तेश पंत ने कराई। इसके प्रभारी हैं साइकॉलजी के असिस्टेंट प्रफेसर आर्क वर्मा। प्रफेसर आर्क कहते हैं, ‘जर्मनी, फिनलैंड, फ्रांस और बेल्जियम जैसे देशों में थीसिस उनकी ही भाषा में लिखनी पड़ती है। यूरोप में कई जगह पढ़ाई स्थानीय भाषा में होती है। लेकिन, भारत के नजरिए से पूरी कवायद का दूसरा पहलू भी है। हमने अंग्रेजी को स्वीकार किया। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत ने दुनिया को सबसे ज्यादा पेशेवर दिए।’
भारतीय भाषाओं के बच्चे प्रफेसरों और साथियों से बातचीत में भी दिक्कत महसूस करते हैं। ऐसे में शिवानी सेंटर की ओर से उन्हें मदद मुहैया कराई जाती है। रेकॉर्डेड लेक्चर हिंदी और दूसरी भाषाओं में उपलब्ध कराए जाते हैं। इससे अंग्रेजी सीखने तक छात्र कोर्स में पिछड़ता नहीं। इस बहस का एक और पहलू भी है। मातृभाषा की शक्ति को समझना है, तो इस्राइल को देखिए। वहां के लोगों को अब तक 24-25 नोबेल पुरस्कार मिल चुके हैं। वे सब कुछ हिब्रू में पढ़ते हैं। अंग्रेजी तो विदेशियों से संपर्क की भाषा है। अपनी भाषा में कठिन अवधारणाओं को समझना आसान होता है। इससे रचनात्मकता और इनोवेशन को बढ़ावा मिलता है।
अब सवाल यह है कि हिंदीभाषी छात्र अपनी परीक्षाएं किस भाषा में देते हैं? प्रफेसर आर्क वर्मा बताते हैं, ‘मैं कई बार परीक्षा में निबंध जैसे विषय देता हूं। भाषा की समस्या सामने आई, तो मैंने उन्हें हिंदी में जवाब लिखने की अनुमति दे दी। कई अन्य लोग भी ऐसा कर रहे हैं। भविष्य में भारतीय भाषाओं में भी प्रश्नपत्र उपलब्ध कराए जा सकते हैं। कोई मांग आई तो परीक्षाएं हिंदी में भी कराई जा सकेंगी, लेकिन हम इसे प्रोत्साहित नहीं करेंगे। ये हमारी कोर पॉलिसी नहीं होगी। छात्रों को नौकरी करने के लिए दुनिया में कहीं भी जाना पड़ सकता है।’
पूरी बहस को IIT कानपुर के रिटायर्ड प्रफेसर हरीश चंद्र वर्मा नया मोड़ दे देते हैं। प्रफेसर हरीश को पद्मश्री भी मिल चुका है। वह कहते हैं, ‘मैंने अपने कार्यकाल में एक प्रयोग किया था। एक लेक्चर औसतन 50 मिनट का होता था। अंत में पूरे लेक्चर का सार 15-20 मिनट में हिंदी में बता दिया जाता था। IIT की समस्या दूसरी है। यहां कोर्स का सिलेबस तय नहीं। प्रफेसर अपनी रिसर्च, पसंद और इंडस्ट्री के अनुभव के हिसाब से पढ़ाते हैं। यह समस्या तो रहेगी। मेरा सुझाव है कि देश के सारे IIT के लिए भारतीय भाषाओं में कोर्स उपलब्ध करा दिए जाएं, फिर स्टूडेंट कानपुर में हो या चेन्नै कैंपस में।