प्रणय विक्रम सिंह
कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो समाज को अपने स्थापित जीवन मूल्यों के प्रति पुनः दृढ़ होने को मजबूर कर देती हैं। कुख्यात माफ़िया सरगना अतीक अहमद और उसके हर गुनाह में बराबर के शरीक अशरफ की हत्या एक ऐसी ही घटना है।निर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय, बुरे काम का बुरा नतीजा, पाप और पुण्य का हिसाब यहीं होता है, हर रावण का वध सुनिश्चित है जैसी अनेक कहावतें सड़क पर खून से लथपथ पड़े अतीक के बेजान जिस्म को देखकर बरबस याद आने लगीं।
कल तक पुलिस को ‘गद्दी की गर्मी दिखाने’ की धमकी देने वाला दुर्दांत अतीक आज अतीत बनकर तमाम कहानियों, नसीहतों और किस्सों का हिस्सा बन गया है।
दरअसल अतीक अहमद जैसे दुर्दांत अपराधी निर्दोष लोगों के खून से होली खेल कर ही अपनी जिंदगी के तमाम ख्वाहिशों में रंग भरते हैं। अतीक के लिए कानून कठपुतली और देश, मानवता और सच्चाई महत्वहीन थे।
101 नामजद FIR, 54 मुकदमें, दहशत के कारण बयानों से मुकरते गवाह, पुलिस चार्ट के मुताबिक लगभग 144 सदस्यीय गिरोह, दहशत इतनी कि हाईकोर्ट के 10 न्यायाधीशों ने अतीक से जुड़े मामलों की सुनवाई से खुद को अलग कर लेने में ही खैरियत समझी, ISI से लेकर दाऊद इब्राहिम, अबू सलेम जैसे देश विरोधी लोगों से उसके गहरे ताल्लुकात उसकी दागदार जहनियत, आतंकी तबीयत और कट्टर मजहबी मिजाज का फसाना कहते हैं।
विचारणीय है कि अतीक कोई हालात की मार से उपजा अपराधी नहीं बल्कि बेशुमार दौलत और बेइंतिहा ताकत की चाह में जरायम की दुनिया को खुशी-खुशी कबूल करने वाला वहशी क्रिमिनल था।
धर्मनगरी प्रयागराज में महज 17 साल की उम्र में पहला कत्ल कर अधर्म का अलंबरदार बनने वाले अतीक के वहशीपन की गवाही तो उसके शहर की सड़कें आज भी देती हैं। बसपा विधायक राजू पाल की दिनदहाड़े सरेआम हत्या फिर अस्पताल जाकर उसकी लाश पर कई राउंड गोलीबारी पूरे समाज में अपने नाम की दहशत फैलाने की उसकी चाहत का खौफनाक प्रदर्शन था। यह कत्ल तो वो राजूपाल के घर पर भी करा सकता था लेकिन उससे नाम की दहशत नहीं फैलती।
दरअसल समाज के रसूखदार लोगों के मुंह से कांपती आवाज में अपने नाम को सुनना उसकी चाहत थी। मतलब जितनी ज्यादा दहशत उतनी ज्यादा दौलत, उतनी ही ज्यादा ताकत। 05 बार विधायक, 01 बार सांसद और ₹11000 करोड़ का आर्थिक साम्राज्य उसके दहशत के कारोबार का ही हासिल था।
गौरतलब है कि ऐसे बहुत सारे माफिया सरगना रहे हैं जिन्होंने एक मुकाम हासिल करने के बाद अपने बेटों और परिवार के लोगों को अपराध के दलदल में धंसने नहीं दिया। अपनी ताकत, दौलत और रसूख का इस्तेमाल कर उन्हें सही ‘धंधे’ में स्थापित कर दिया। लेकिन अतीक को तो पुश्तैनी अपराधी बनने का शौक था। तभी वो अपने परिजनों की दहशत के कारोबार में लॉन्चिग करता था। कुख्यात अपराधी चांद बाबा की हत्या से खुद को, विधायक राजूपाल की हत्या से अपने भाई अशरफ को और अधिवक्ता उमेश पाल के कत्ल से अपने बेटे असद को लॉन्च किया। मतलब वो जरायम की दुनिया में परिवारवाद का पोषक और हिमायती था। ऐसे में परिवारवादी सियासी पार्टी की सरपरस्ती उसको हासिल होना लाज़मी था।
प्रदेश के लोकतांत्रिक इतिहास के बदनुमा दाग ‘गेस्ट हाउस कांड’ में प्रमुख भूमिका निभाने वाले अतीक की अपने समुदाय का पोस्टर ब्वाय बनने की लालसा उसके हर कार्य में दिखाई पड़ती थी। लेकिन साल 2015 में तो तब हद ही हो गई जब अतीक अहमद ने अपने मोहल्ले कसारी-मसारी में रहने वाले हिंदुओं को मकान खाली करने का आदेश दे दिया। ख़ौफ़ और सियासी रसूख के चलते घर मालिकों की फरियाद को स्थानीय पुलिस ने अनुसना कर दिया था लेकिन सत्ता के गलियारे के अनेक वरिष्ठ राजनेताओं के हस्तक्षेप के बाद यह मामला बड़ी मुश्किल से सुलझ पाया था।
ध्यान से सुनिए, आज भी प्रयागराज की फिजाओं में पार्षद अशफाक कुन्नू, व्यापारी अशोक साहू, सभासद नस्सन, भाजपा नेता अशरफ, विधायक राजूपाल, अधिवक्ता उमेशपाल आदि की गूंजती असहाय चीखें और दर्दमंद कराहें अतीक की वहशियत की ख़ौफ़नाक दास्तानें सुनाती हैं।
43 साल बाद उसे एक मामले में मिली सजा विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के लिए उपलब्धि से कम नहीं थी। यह योगी सरकार की अपराध के प्रति जीरो टॉलरेंस नीति का ही प्रतिफल था। दीगर है कि हर रात की सुबह होना दस्तूर है। घने अंधेरे की मियाद बहुत लंबी नहीं होती है। अतीक अहमद के बेटे असद और शूटर गुलाम का एनकाउंटर उसकी ही एक झांकी है।
दिनदहाड़े हत्या कराने के शौकीन अतीक और अशरफ की रात के अंधेरे में हुई हत्या की निष्पक्ष जांच के लिए उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अगुवायी में एक जांच आयोग का गठन हो चुका है, 02-03 माह में रिपोर्ट भी आ जायेगी लेकिन शनिवार की रात को हुआ ये ‘लंका कांड’ तमाम हिदायतें भी देता है। मसलन ‘ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती है’, इस सत्यापित भाव को स्वीकार करते हुए सभी को आचरण करना चाहिए। और हर रावण के पूरे खानदान का अंत नियति है। प्रयागराज का ‘लंका कांड’ उसी नियति का परिणाम है। अतः रावण बनने से पहले हजार बार सोच लेना चाहिए।
यह घटना नसीहत देते हुए कह रही है कि ‘ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है। ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा।।’
शायद आज अतीक और अशरफ के परिजन उन असहाय परिवारों के दुःख को समझ पा रहे होंगे जिन्हें इन दोनों दुर्दांत भाइयों के वहशीपन ने लील लिया था। यही दर्द पहले महसूस हो गया होता तो शायद अनेक जिंदगियां तबाह होने से बच जातीं।
खैर योगी सरकार में कोई भी अपराधी कानून से बच नहीं सकता है। राजू पाल और उमेश पाल के कातिल भी बच नहीं पाए और ‘लंका कांड’ करने वाले भी कानून की गिरफ्त में हैं। उन्हें और उनके आकाओं को भी इसकी पूरी कीमत चुकानी ही होगी।
ऐसे अपराधियों को प्रश्रय देने वाले राजनीतिक दलों को भी समझ लेना चाहिए कि निर्दोषों के हक और खून से सने हाथों में सियासी ताकत देने से लोकतंत्र और उनकी पार्टी को कोई भला नहीं होने वाला, उन्हें भी इसकी बड़ी कीमत चुकानी ही पड़ेगी क्योंकि ‘वक़्त हर ज़ुल्म तुम्हारा तुम्हें लौटा देगा, वक़्त के पास कहां रहम-ओ-करम होता है।।’
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