‘निरुक्त’ और ‘निघंटु’ के रचयिता महर्षि यास्क भारत के ही नहीं विश्व के एक अद्भुत शब्दशास्त्री के रूप में प्रसिद्ध हैं। आजकल विद्यालयों के पाठ्यक्रम से यास्क आचार्य जैसे विद्वानों को बहुत दूर कर दिया गया है और भाषा को केवल अभिव्यक्ति का माध्यम मान लिया गया है। फिर चाहे वह कितनी ही गरिमाहीन और टूटी फूटी क्यों ना हो? आजकल के तथाकथित शिक्षा शास्त्रियों के द्वारा किए जा रहे इस प्रकार के आचरण से भाषा की गरिमा को ठेस पहुंची है। इसके साथ-साथ भाषा की वैज्ञानिक परंपरा भी बाधित हुई है। हमारे देश में जिस प्रकार हिंदी भाषा आजकल के तथाकथित शिक्षा शास्त्रियों के इस प्रकार के अत्याचार का शिकार हुई है, वह तथ्य किसी से छुपा नहीं है।
महर्षि यास्क ने ‘निरुक्त’ और ‘निघंटु’ के माध्यम से शब्द की अर्थ मीमांसा को प्रकट करने का भागीरथ परिश्रम कर अपने नाम को अमर किया है। संसार की एक सामान्य धारणा है कि मनुष्य प्राचीन काल में जंगली रूप में घूमता था। उसका ज्ञान विज्ञान से किसी प्रकार का कोई परिचय नहीं था। इस प्रकार की अवधारणा को पश्चिमी जगत ने प्रमुखता से प्रतिपादित किया है। इसके विपरीत भारत की मान्यता रही है कि ईश्वरीय वाणी वेद को ग्रहण करने वाले मानव के आदि पूर्वज अर्थात अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नामक चार ऋषि ज्ञान – विज्ञान के सूर्य थे। यह परमपिता परमेश्वर द्वारा रची गई अमैथुनी सृष्टि थी। उसके पश्चात जब मैथुनी सृष्टि आरंभ हुई तो ज्ञान-विज्ञान की उस शुद्ध परंपरा को धीरे-धीरे जंग लगने लगा। इस प्रकार वेदों की परंपरा को मैथुनी सृष्टि के आरम्भ होने पर भी ऋषियों ने संभाल कर रखा, पर एक समय ऐसा आया कि वेदों के शब्दों का अर्थ लगाने के लिए उनकी व्याख्या की आवश्यकता पड़ने लगी। इसका कारण केवल एक था कि मानव का शुद्ध ज्ञान-विज्ञान तो यथावत था, परंतु उसके समझने वालों या समझाने वाला का धीरे-धीरे अभाव होने लगा। इससे पता चलता है कि मनुष्य जन्मजात ज्ञान-विज्ञान में निष्णात नहीं होता । उसे ज्ञान-विज्ञान में निष्णात होने के लिए संपर्क ,संबंध और माध्यम की आवश्यकता होती है। जिसके लिए आवश्यक है कि वह पूर्ण पारंगत गुरु का आश्रय प्राप्त करे।
जब मनुष्य जाति का ज्ञान-विज्ञान का मानसिक स्तर क्षीण होने लगा तो शब्दों के अर्थ की मीमांसा करने वाले विद्वानों की आवश्यकता अनुभव हुई। इन मीमांसाकारों ने अपनी विद्वत्ता के उत्कृष्ट प्रदर्शन के माध्यम से भारत की प्राचीन वैदिक ज्ञान परंपरा को यथावत बनाए रखने का प्रशंसनीय प्रयास किया। इसके लिए शब्दों की अर्थ मीमांसा करते हुए अनेक विद्वानों ने अलग-अलग कालखंड में अनेक निघंटु ग्रंथों की रचना की। ‘निघंटु’ नामक इन ग्रंथों में से इस समय यास्क आचार्य जी का ‘निघंटु’ ही प्राप्त होता है। महर्षि ने मानवता की अनुपम सेवा करते हुए अपने इस ‘निघंटु’ नामक ग्रंथ को 5 अध्यायों में लिखकर संपन्न किया । इसमें वैदिक शब्दों की सूची प्रस्तुत की गई है। जिससे हम शब्दों का अर्थ समझने और उनका परस्पर संबंध स्थापित करने में सफल होते हैं।
निरुक्त में महर्षि यास्क के द्वारा अपनी महामेधा का परिचय दिया गया है। इस ग्रंथ के माध्यम से हमें न केवल महामेधासंपन्न भारत के अतीत के स्वर्णिम पृष्ठों को समझने का सौभाग्य प्राप्त होता है अपितु महर्षि यास्क की बौद्धिक क्षमता और उनकी वैज्ञानिक सोच व दृष्टिकोण का भी परिचय प्राप्त होता है। महर्षि यास्क द्वारा रचित ‘निरुक्त’ नामक यह ग्रंथ विश्व का एक अनूठा ग्रंथ है। इस ग्रंथ के माध्यम से महर्षि यास्क ने उत्पत्ति के आधार पर वैदिक शब्दों का बहुत ही उत्तमता से और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर विश्लेषण करने में सफलता प्राप्त की है। इस क्षेत्र में उनके बौद्धिक स्तर को कोई छू नहीं सका है। महर्षि ने शब्दों के यथार्थ भाव और अर्थ की इतनी मनोहारी व्याख्या की है कि वह इस व्याख्या के माध्यम से अपने आप को और अपने इस ग्रंथ को भाषा विज्ञान- विषयक अनुसंधान का अनुपम ग्रंथ सिद्ध करने में सफल हुए हैं।
मनोहारी व्याख्या करी, रखा यथारथ भाव।
लिखा अनुपम ग्रंथ है, भर के मन में चाव।।
महर्षि ने अपने भाषा संबंधी ज्ञान को और भी अधिक प्रमाणिक व तार्किक बनाने के के लिए अपने से पूर्व के भाषा संबंधी आचार्यों के मत अथवा विचारों को भी प्रस्तुत किया है। जिनमें शाकटायन, गालव,शाकल्य, आग्रायण आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
यदि महर्षि यास्क जैसे आचार्यों की भाषा संबंधी वैज्ञानिक परंपरा को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी भारत के विद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाता तो भाषा में आ रहे विभिन्न प्रकार के दोषों को दूर किया जा सकता था। इस प्रकार की कार्य योजना की प्रस्तुति से भाषा और बोली का अंतर स्पष्ट करके भारत की राष्ट्रीय भाषा को वैज्ञानिक पुट दिया जाता। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी के भीतर ऐसे सभी शब्दों को निकालने का भागीरथ प्रयास किया जाता जिनका हिंदी और संस्कृत से किसी प्रकार का संबंध नहीं है, पर वह हिंदी साहित्य में अपना स्थान निरंतर बनाए हुए हैं। किसी भी नदी के प्रवाह में आए अवरोधों को स्थाई मान्यता देने का अर्थ होता है कि नदी की धारा को प्रभावित किया जा रहा है। इसी प्रकार भाषा में आए दोषों को काल प्रवाह की स्वाभाविक परिणति मानकर उसे प्रगति का प्रतीक मान लिया जाना भाषा सरिता के प्रवाह को दूषित – प्रदूषित करने का मानव का पाप पूर्ण आचरण ही माना जाना चाहिए।
अपनी भाषा में कहो, अपने मन की बात।
गर्व करो निज देश पर, मतना करियो घात।।
निश्चय ही इस प्रकार के पाप पूर्ण आचरण की एकमात्र औषधि महर्षि यास्क के 'निरुक्त' और 'निघंटु' को ही माना जाना चाहिए। यदि इसके उपरांत भी हम पश्चिम की किसी भाषा की व्याकरण को संसार की शुद्धतम वैज्ञानिक व्याकरण मानकर उसके आधार पर अपनी भाषा को भूलने या उसी विदेशी भाषा के शब्दों से भरने का प्रयास कर रहे हैं तो यह अपनी भाषा को मारने का आत्मघाती प्रयास ही माना जाना चाहिए। हम अपनी उदारता का प्रदर्शन करने के नाम पर किसी भी कूड़े करकट को स्वीकार करने की मूर्खता नहीं कर सकते। स्वागत कूड़े करकट का नहीं, नए और वैज्ञानिक विचारों का होना चाहिए। नए और वैज्ञानिक विचारों से पीठ फेरकर बैठना भी मूर्खता होती है। किसी भी प्रकार की रूढ़िवादिता को पकड़े रहना अज्ञानता का परिचायक है। उदारता दिखाते दिखाते हमने कूड़े करकट को तो स्थान दिया ही है, साथ ही हमने अपने महर्षि यास्क जैसे अनेक पूर्वजों को भी विस्मृति के गड्ढे में फेंक दिया है।
निश्चय ही अब इस प्रकार की प्रवृत्ति पर रोक लगाने का समय आ गया है।
राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत