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इतिहास के पन्नों से

भामाशाह की जयंती 29 अप्रैल पर विशेष : क्या वास्तव में भामाशाह ने महाराणा प्रताप को कोई दान दिया था ?

महाराणा वंश के इतिहास के साथ भामाशाह का नाम बड़े सम्मान के साथ जुड़ा है। जनसामान्य में धारणा है कि महान व्यक्तित्व के स्वामी भामाशाह ने जब महाराणा प्रताप के पास कुछ भी नहीं रहा था, तब उन्हें अपना सारा खजाना देकर उनकी आर्थिक सहायता की थी। आइए , इस पर विचार करते हैं कि जनसामान्य में बनी इस धारणा में कितना सच है और वास्तविकता क्या थी ?
इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि मेवाड़, महाराणा प्रताप, महाराणा खानदान, हल्दीघाटी और मेवाड़ की वीर भूमि से भामाशाह का गहरा संबंध है और इन सबका वर्णन बिना भामाशाह के पूर्ण नहीं हो सकता। भामाशाह का परिवार पिछली कई पीढ़ियों से महाराणा शासकों की सेवा करता आ रहा था। भामाशाह एक वीर सेनानायक के साथ-साथ देशभक्त और स्वामी भक्त व्यक्तित्व का धनी था। उसके भीतर देश भक्ति का भाव कूट-कूट कर भरा था और इसी के साथ – साथ वह एक वीर सेनानायक भी था।

‘वीर विनोद’ से मिलती है जानकारी

उसके द्वारा महाराणा प्रताप को दिए गए दान के बारे में हमें “वीर विनोद” से जानकारी मिलती है कि महाराणा प्रताप का कोषाध्यक्ष भामाशाह एक स्वामी भक्त और देशभक्त वीर था। कई संघर्षों में वह महाराणा प्रताप के साथ रहा था। उसने अपने स्वामी महाराणा प्रताप को देश ,धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हुए देखा था। उसे यह ज्ञात था कि महाराणा प्रताप जिस उद्देश्य को लेकर इतने कष्ट उठा रहे हैं वह बिना धन के पूर्ण नहीं हो सकता। सैन्यबल के साथ-साथ अर्थ बल किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने में बहुत अधिक सहायक होता है। बिना अर्थ के सब कुछ व्यर्थ है। अकबर जैसे विदेशी शासक को भारत भूमि से बाहर भगाने के लिए बहुत बड़े आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता थी।
महाराणा प्रताप की इसी मानसिकता और समस्या को समझ कर भामाशाह ने एक योजना बनाई। अपनी इस योजना के माध्यम से वह महाराणा प्रताप की सभी आर्थिक समस्याओं का निदान खोजना चाहता था। अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए उस वीर सेनानायक ने मालवा पर चढ़ाई कर दी थी। उस युद्ध में भामाशाह ने मालवा के शासक को पराजित किया और वहां से 25 लाख रुपए अर्थदंड और इसके अतिरिक्त भी बहुत सा धन लाकर महाराणा प्रताप को दिया। भामाशाह के द्वारा लाए गए इस धन से महाराणा प्रताप की कई समस्याओं का निवारण हो जाना संभव था। इसके साथ-साथ निकट के एक शाही थाने पर भी अमर सिंह और भामाशाह सहित वीर राजपूतों ने हमला करके उसे समाप्त कर दिया था। वहां के थानेदार सुल्तान खान को अमर सिंह ने अपने बरछे से समाप्त कर दिया था।

प्राण संकट में डालकर की महाराणा की सहायता

हमें महाराणा प्रताप के बारे में यह समझ लेना चाहिए कि वह अकेले ही संघर्ष नहीं कर रहे थे अपितु उनके साथ अन्य अनेक लोग सम्मिलित थे जो उनके महान उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक के रूप में अपनी भूमिका निभा रहे थे। उन्हीं में से एक महान व्यक्तित्व के रूप में भामाशाह भी उनके साथ था। अमर सिंह और भामाशाह के द्वारा की गई छोटी-छोटी विजयों ने महाराणा प्रताप को पुनः स्थिर और स्थापित करने में सहायता प्रदान की। भामाशाह ने अपने स्वामी को जब भी संकट में देखा तभी उन्होंने अपने प्राण संकट में डालकर उनकी सहायता की। इसके पश्चात महाराणा प्रताप ने डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा पर भी अधिकार कर लिया था। “वीर विनोद” के माध्यम से मिली इस जानकारी में यह भी स्पष्ट किया गया है कि ये दोनों दुर्ग उस समय चौहानों के अधिकार में थे।

दानवीर महावीर था, नाम था भामाशाह।
देश धर्म सर्वोच्च था, था राणा की बांह।।

आजकल समाज में भामाशाह को एक व्यापारी या सेठ से आगे कुछ नहीं समझा जाता। ऐसा करके हम इस महान सेनानायक के साथ अन्याय ही कर रहे होते हैं। इतिहास में किसी भी नायक का चरित्र चित्रण करते समय उसके किसी एक पक्ष को नहीं देखना चाहिए। सभी पक्षों पर विचार करते हुए उसके जीवन की घटनाओं का उल्लेख करना चाहिए। भामाशाह जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति के साथ तो यह और भी अधिक आवश्यक हो जाता है।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस समय महाराणा उदयसिंह चित्तौड़ से अपने बीजक को लेकर उदयपुर की ओर आए थे, उस समय उन्होंने उसकी देखभाल की जिम्मेदारी भामाशाह के पिता को ही दी थी। अपने पिता की मृत्यु के उपरांत उस सारे राजकोष की देखभाल भामाशाह ही कर रहे थे। हमें भामाशाह और उनके पिता की इस बात के लिए हृदय से प्रशंसा करनी चाहिए कि इन दोनों ने बहुत ही कर्तव्य- निष्ठा के साथ उस राजकोष की रक्षा की थी। उस समय उन्होंने इस बात का पूरा ध्यान रखा था कि राष्ट्र के उस धन का अपव्यय किंचित भी ना होने पाए। जब महाराणा प्रताप धन के अभाव से गुजर रहे थे तब भामाशाह ने इस बात को गहराई से समझा कि इस समय महाराणा प्रताप के लिए बहुत बड़े स्तर पर धन की आवश्यकता है। अतः उन्होंने जितना भर भी राजकोष में धन था ,वह तो उन्हें दे ही दिया साथ ही और भी आर्थिक संसाधन जुटाने पर ध्यान देने लगे।

वह धन महाराणा का ही था

भामाशाह एक महान योद्धा भी थे। अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए उन्होंने मालवा अभियान का नेतृत्व किया। वहां से वह धन लूट कर लाए और उसे अपनी देशभक्ति और स्वामीभक्ति का परिचय देते हुए महाराणा प्रताप को विनम्रता पूर्वक दे दिया।

स्वामी को धन दे दिया , मालवा में की लूट।
राज्य का विस्तार कर, दिया दुश्मन को कूट।।

राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार ओझा जी के मतानुसार- “यह धनराशि मेवाड़ राजघराने की ही थी जो महाराणा कुंभा और सांगा द्वारा संचित की हुई थी और मुसलमानों के हाथ ना लगे, इस विचार से चितौड़ से हटाकर पहाड़ी क्षेत्र में सुरक्षित की गई थी और प्रधान होने के कारण केवल भामाशाह की जानकारी में थी और वह इसका ब्यौरा अपनी बही में रखता था|”
इतिहास का सूक्ष्मता से अवलोकन करते समय हमें तथ्यों पर विचार करना चाहिए और पत्थरों को स्थापित करने के लिए सत्य का महिमामंडन करना चाहिए।
रायबहादुर गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक ‘वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप’ में इन तथ्यों की अच्छी जानकारी दी है। उन्होंने हमें बताया है कि भामाशाह के पिता भारमल भी राणा वंश के अच्छे स्वामी भक्त थे। ये लोग खजाने के व्यवस्थापक थे। राणा उदय सिंह ने चित्तौड़ गढ़ को छोड़ते समय भामाशाह को अपने साथ लिया था।
उक्त लेखक हमें बताते हैं कि चित्तौड़ पर विक्रमादित्य के समय गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने दो चढ़ाइयां की थीं, महाराणा उदय सिंह के समय में अकबर ने आक्रमण किया। बहादुर शाह की पहली चढ़ाई के समय युद्घ से पूर्व ही राज्य की सारी संपत्ति चित्तौड़ से हटा ली गयी। जिससे बहादुरशाह और अकबर में से एक को भी चित्तौड़ विजय के समय कुछ भी हाथ नही लगा। यदि कुछ हाथ लगता तो अबुलफजल जैसा खुशामदी लेखक तो राई का पहाड़ बनाकर लिखता। परंतु फारसी तवारीखों में उसका उल्लेख न होना इस बात का प्रमाण है कि उन्हें चित्तौडग़ढ़ में कोई खजाना हाथ नही लगा था। हमारा मानना है कि उदयसिंह और विक्रमादित्य के बीच में जितनी देर बनवीर चित्तौड़ का शासक रहा उतनी देर उसने बिना खजाने के शासन नही किया होगा। अतः श्री ओझा जी के इस कथन से हम असहमत हैं कि सारा राजकोष बहादुरशाह की चढ़ाई के समय ही निकाल लिया गया था। सारा राजकोष तो राणा उदय सिंह के साथ ही गया। हां, बहादुरशाह को कोई कोष किले में हाथ नही लग पाया हो, यह तो भामाशाह जैसे कुशल व्यवस्थापक के कारण संभव है।
आज हम अपने इतिहास के इस महावीर दानवीर को उनकी जयंती के अवसर पर भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
( मेरी पुस्तक “मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा” से)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

By डॉ॰ राकेश कुमार आर्य

मुख्य संपादक, उगता भारत

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