गीता को लेकर राजस्थान की विजयराजे सिंधिया सरकार पूर्व में एक महत्वपूर्ण निर्णय ले चुकी है कि इसे मैनेजमेंट कोर्स में स्थान दिया जाए। क्योंकि आजकल का युवा वर्ग भटकाव की स्थिति में है। वह फल चाहता है पर परिश्रम से मुंह चुराता है। गीता इस स्थिति के विपरीत एक ऐसा जीवंत संदेश देती है, जिसे अपनाकर हर मनुष्य हताशा और निराशा की तन्द्रा को त्यागकर सफलता की सीढिय़ां चढ़ सकता है। यह संदेश गीता का वही शाश्वत संदेश है जिसे उसने ‘कर्मण्येवाधिकारास्ते मा फलेषु कदाचन्’ कहकर महाभारत के बीच रण में दिया था। गीता कहती है कि-‘कर्मशील बन और कर्मशील बने रहकर जीवन पथ पर आगे बढ़ता चल, और कर्म के फल के विषय में ध्यान रख कि यह तेरे अधिकार में नहीं है। कर्मफल देना तो एकअन्य सत्ता के क्षेत्राधिकार में आता है। उस सत्ता का स्मरण करता चल। इससे तू जीवनमुक्त का आनंद अनुभव करेगा।’ इसे गीता ने निष्काम कर्मयोग की संज्ञा दी है।
अब यदि आज का युवा या हमारा समाज ऐसा ही निष्काम कर्मयोगी बन जाता है तो निश्चय ही यह हमारे समाज में छायी हताशा और निराशा के कुहासे को मिटाने में सहायक होगा। ‘गीता’ ज्ञानामृत का खजाना है। उसकी वेदानुकूल शिक्षाएं भारत का ही नहीं अपितु विश्व का भी मार्गदर्शन कर सकती हैं। गीता को इस प्रकार का सम्मान दिलाने में राजस्थान राजभवन में बैठे राज्यपाल कल्याणसिंह की विशेष भूमिका है। वह भारतीय धर्म, संस्कृति और इतिहास के प्रति गहननिष्ठा रखते हैं। उन्हीं की प्रेरणा से राजस्थान के विद्यालयों में अब भारत के महान ऋषियों, विद्वानों, महान कवियों, क्रांतिकारियों और संस्कृति निर्माता महापुरूषों को स्थान दिया गया है। निश्चय ही इस कार्य के लिए राजस्थान की मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री भी धन्यवाद और बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने भारत के आत्मस्वरूप को आज की युवा पीढ़ी के सामने लाने का अभिनंदनीय प्रयास किया है। गीता के निष्काम कर्मयोग को कोटा इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रबंधन कोर्स में पढ़ाने से निश्चय ही युवावर्ग को एक सही दिशा मिलेगी और आत्महत्या की ओर बढ़ रहे युवा को आगे बढऩे और जीवन को उन्नति पथ पर अग्रसर करने की प्रेरणा मिलेगी।
वीर सावरकर ने गीता के विषय में कहा था कि सुनिश्चित तथ्य यह है कि जब कभी हिंदू उस अवस्था को प्राप्त करेंगे जब संसार को उनका आदेश सुनना पड़ेगा, तब हिंदू जाति का वह आदेश गीता के आदेशों से भिन्न न होगा। जब कोई हिंदू हिंदुत्वातीत हो जाता है और उसका हिन्दुत्व अथाह रूप ग्रहण कर लेता है तो भगवान शंकराचार्य के समान ‘वाराणसी मेदिनी’ कहकर समग्र भूमंडल में वह अपनी काशी का विस्तार देखने लगता है, अथवा संत तुकाराम के स्वर में स्वर मिलाकर गाने लगता है-”आमुचा स्वदेश भुवनत्रयमध्ये वास” मेरा स्वदेश समग्र पृथ्वी की चतु: सीमा में व्याप्त है। वही चतु: सीमा मेरे देश की सीमा है।
शिक्षा वही उत्तम होती है जो देशभक्ति भी सिखाये और ईशभक्ति भी सिखाये, जो आत्मशक्ति को प्रखरता प्रदान करे और मानसिक शक्तियों का विकास कर मनुष्य को पारिवारिक मानस से ऊपर उठाकर विश्वमानस का धनी बनाये। शिक्षा के क्षेत्र में राजस्थान की सिंधिया सरकार महामहिम राज्यपाल कल्याणसिंह की प्रेरणा से देश के अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनती जा रही है।
अब सिंधिया सरकार ने एक और फैसला लिया है जिसके अनुसार महाराणा प्रताप को महान दिखाया गया है और अकबर को एक विदेशी आक्रांता के रूप में प्रदर्शित किया गया है। सचमुच यह निर्णय भी उचित ही कहा जाएगा। यह हो ही नहीं सकता कि आप और हम महाराणा प्रताप को तो अपना महानायक मानें, उनके राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति को अपने लिए प्रेरणा का स्रोत मानें, पर अपनी वाणी से ‘अकबर चालीसा’ का जप करते रहें। महाराणा प्रताप और अकबर दोनों के विषय में यह देखना पड़ेगा कि इनमें से भारत की संस्कृति और धर्म का रक्षक कौन सा था और कौन सा भारत के इतिहास नायकों को अपना जीवनादर्श मानकर उनकी भावनाओं के अनुरूप भारत का निर्माण करने के लिए कृतसंकल्प था? कौन सा ऐसा था जो भारत के लिए संघर्ष कर रहा था और कौन सा ऐसा था जो भारत को मिटाने के लिए संघर्ष कर रहा था? जब इन प्रश्नों को निष्पक्ष रूप से कोई भी इतिहासकार हल करने का प्रयास करेगा तो पता चलेगा कि भारत के लिए जीने वाला तो महाराणा प्रताप ही था। अत: ऐसे महाराणा को भारत की युवा पीढ़ी का जीवनादर्श घोषित करना निश्चय ही प्रशंसनीय है।
देश के भीतर एक विचारधारा बड़ी तेजी से उठी और उसने हमारे युवावर्ग को ईश्वर से विमुख करने के लिए उसे नास्तिक बना दिया। इसी धर्मनिरपेक्षतावादी नास्तिकवाद ने भारत की गीता से युवा को विमुख कर दिया। परिणामस्वरूप युवा के भीतर के आनंद का स्रोत सूखने लगा। जिससे उसे हताशा हाथ लगी। नास्तिकवाद का यही परिणाम होता भी है। इसी प्रकार जिस विचारधारा ने हमारे युवा को नास्तिक बना दिया था उसी ने उसे अपने महापुरूषों और इतिहास नायकों के प्रति उदासीन अर्थात धर्मनिरपेक्ष बनाते-बनाते विदेशियों के प्रति श्रद्घालु बनाने का कार्य किया। यह भी एक प्रकार की नास्तिकता ही थी जो भारतीयों को अपने ‘राष्ट्रदेव’ के प्रति उदासीन बनाती रही।
गीता को प्रबंधन कोर्स में लाने से और महाराणा को महान मानने से धर्मनिरपेक्षता रूपी नास्तिकवाद की पड़ी चादर को फाडऩे में हमें सहायता मिलेगी। वास्तव में गीता और देशभक्ति के प्रति उदासीन बनाना ही इस देश में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा मान ली गयी है। यह धारणा सर्वथा अतार्किक है। इसे तोडऩा समय की आवश्यकता है। इसके स्थान पर यह राष्ट्रीय संस्कार बलवती होना चाहिए कि गीता ज्ञान के प्रति श्रद्घा और देश के प्रति सर्वस्व समर्पण भाव ही हमारे राष्ट्रीय जीवन की जीवन्तता का रहस्य है। इस श्रद्घा भाव और समर्पण भाव को राष्ट्रीय संस्कार के रूप में अपनी संतति को परोसने के लिए सिंधिया सरकार के निर्णय और राज्यपाल कल्याणसिंह की प्रेरणा को हमें इसी रूप में देखना चाहिए।