बिखरे मोती-भाग 174
गतांक से आगे….
जो आशा को ‘ब्रह्म’ मानकर उसकी उपासना करता है, उसके सब आशीर्वाद अमोघ होते हैं, फलते हैं, किंतु आशा की गति की भी एक सीमा है। नारद ने पूछा, तो क्या भगवन! आशा से बढक़र भी कुछ है? हां है। नारद ने कहा, तो भगवन! आप मुझे उसका ही उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, प्राण आशा से बड़ा है। आशा भी तो प्राण के लिए है, जीवन के लिए है। जिस प्रकार अरे चक्र की नाभि में अर्पित होते हैं, ठीक इसी प्रकार नाम से लेकर आशा तक सब अरे प्राण रूपी चक्र में समर्पित हैं। सब कुछ प्राण के सहारे चल रहा है। प्राण के लिए चल रहा है। प्राण ही पिता है, प्राण माता है, प्राण भ्राता है, प्राण भगिनी है, प्राण आचार्य है, प्राण ब्राह्मण है। प्राण निकले तो रिश्ते भी समाप्त हो जाते हैं, जैसे यदि कोई जीवित पिता को, माता को, मित्र को, भाई को, बहिन को, आचार्य को अथवा ब्राह्मण को कुछ ऐसा कह दे जो प्राणघातक हो, तो लोग कहते हैं-धिक्कार है तुझे! तू पितृद्रोही है, मातृद्रोही है, भ्रातृद्रोही है, गुरूद्रोही है अथवा ब्राह्मण द्रोही है, मित्रद्रोही है, किंतु प्राण निकलने के बाद ससम्मान इनकी अंतिम क्रिया करता है तो लोग उस व्यक्ति की सराहना करते हैं। हमारी जीवनी शक्ति प्राण में छिपी है। इसलिए हे नारद! तू प्राण की उपासना कर किंतु प्राण की गति की भी सीमा है। नारद ने पूछा, तो क्या भगवन! प्राण से बढक़र भी कुछ है? महर्षि सनत्कुमार ने कहा, हां है। तो भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, प्राण से बढक़र आत्मा है। पिण्ड में पंचमहाभूतों का संयोजन आत्मा करता है, उन्हें अपनी चेतना से क्रियाशील रखता है और पंचमहाभूतों का अधिष्ठाता बनकर इस शरीर में रहता है। मन, बुद्घि, चित्त, अहंकार, प्राण, नाक, श्रोत्र, चक्षु इसी के कारण क्रियाशील रहते हैं। आत्मा के निकलने के बाद ये सब क्रियाशून्य हो जाते हैं। इसलिए हे नारद! अपने अंत:करण का परिमार्जन कर और पवित्र बुद्घि से आत्मा के स्वरूप को पहचान और उसे परिष्कृत कर, उसके नित्य, शुद्घ, बुद्घ मुक्त स्वभाव की उपासना कर किंतु आत्मा की भी सीमा है। वह अल्पज्ञ है -सर्वज्ञ नही। वह जन्ममरण के क्रम से आबद्घ है-मुक्त नही, वह आनंदांश है -पूर्णानंद नही, किंतु आत्मा जब परिष्कृत हो जाती है तो साधक आत्मविद् हो जाता है अर्थात आत्मज्ञानी हो जाता है, मोक्ष अथवा कैवल्य को प्राप्त हो जाता है, शोकों से तर जाता है अर्थात भवबंधनों से मुक्त हो जाता है, ज्योति आत्मा परमज्योति परमात्मा में विलीन हो जाती है। इस उत्कृष्टतम और उच्चतम अवस्था पर पहुंचने पर साधक कह उठता है-अहं ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ब्रह्म हूं, मैं महान हूं। सोहम्-सोहम् अर्थात जो तू है, वही मैं हूं।
क्रमश: