ज्ञानी दित सिहं और ऋषि दयानंद संवाद बारे सत्य जाने।
सर्वप्रथम जान लें कि ज्ञानी दित सिंह सिख नहीं था जबकि दित सिहं वेदांती था।वेदांत मत आदि शंकराचार्य ने चलाया था।दुसरा दित सिहं से चर्चा का विषय सिख धर्म और वेद/ आर्य समाज भी नहीं था। फिर यह किस तरह उसे सिख बोल कर गर्व किया जा रहा है ? दित सिहं ने ऋषि दयानंद के साथ संवाद में जिन प्रश्नों का दिया है उनका उत्तर तो ऋषि दयानंद ने ऋग्वेद भाष्य भुमिका और सत्यार्थ प्रकाश में कर दिया है।इन मामूली प्रश्नों का उत्तर तो उसे हर आर्य समाजी भी दे सकता है।दित सिहं ने स्वयं एक पुस्तक लिखि “दयानंद से मेरा संवाद “और उसमें अपना पक्ष लिख कर स्वयं ही जीत घोषित कर दी जब की वहाँ जीत का निर्णय किस ने दिया यह नहीं लिखा।दित सिहं का पक्ष था कि
१-वेद ईश्वर की रचना नहीं
२-सृष्टि का कर्ता ईश्वर नहीं है।
शंकराचार्य का वेदांत मत ब्रह्म को ही सत्य मानते हैं जगत को झूठ जबकि वेदों के आधार पर ऋषि दयानंद की मान्यता है ईश्वर-जीव-प्रकृति एक दूसरे से भिन्न पृथक व स्वतन्त्र सत्ता हैं जिसको त्रैतवाद के नाम से जाना जाता है।
ऋषि दयानंद से उनके जीवन में जितने भी शास्त्रार्थ हुए वे सभी दस्तावेज़ीकरण किये हैं जिनमें दित सिंह से शास्त्रार्थ का कोई विवरण नहीं मिलता।
दित सिहं अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि वे जवाहर सिहं के साथ ऋषि को मिलने गये थे। जवाहर सिहं आर्य समाज लाहौर के मंत्री थे। जवाहर सिहं ने उन्हें बताया कि बहस की बात करना सरल है लेकिन ऋषि को जीतना कोई आसान काम नहीं है उनके आगे कोई नहीं टिक पाता जैसा कि लाहौर में प्रचारित था। इसका अर्थ यह है कि जवाहर सिहं जानते थे कि दित सिहं तुम क्या चीज़ हो जो ऋषि से बहस करने चले हो ?
दित सिंह ऋषि दयानंद से मिलने अवश्य गया होगा। जैसा ज्ञानी दित सिंह ने अपनी पुस्तक में लिखा है और दावा किया जाता है कि दित सिहं ने तीन बार ऋषि को हराया जबकि शास्त्रार्थ एक बार ही होते हैं तीन तीन बार नहीं न ही दित सिहं दावा करते हैं कि उनका ऋषि दयानंद से कोई शास्त्रार्थ हुआ बल्कि संवाद हुआ कहते है अर्थात् बातचीत हुई ।वे बार बार ऋषि के पास ग़लत प्रश्न लेकर जाते होगें और हठ में झूठी बहस करते होगें जिसका कोई सिर पैर न हो और सत्य स्वीकार नही करता होगा तो ऋषि ने कहा होगा जा भाई तुम जीते समय न बरबाद कर क्योंकि विद्वान लोग विद्वान से ही बहस करना उचित समझते हैं। दित सिहं अपनी पुस्तक “दयानंद नाल मेरा संवाद” में स्वयं ही जीत का दावा करता है जिसका कुछ एक सिख ढिंढोरा पीटते है कि उसने ऋषि दयानंद को हराया।
उनकी जानकारी के लिए ऋषि को निरुत्तर करने का दावा करने वाला दित सिहं बाद में आर्य समाज का प्रचारक बन गया।फिर सहज ही निर्णय किया जा सकता हैं कि पराजित कौन हुआ।
अगर दित सिहं सिख थे तो क्या उन्होंने ग्रंथ साहिब को नहीं पढ़ा था जहां लिखा है
१) वेद निरमए – राग रामकली महला १, ओंकार शब्द १
अर्थात् ईश्वर ने वेद बनाए
२) हरि आज्ञा होए, वेद पाप पुन्न विचारिआ. – मारू की वार डखणे, महला 5, शब्द-१ अंग 1094
ਹੇ ਹਰੀ! ਤੇਰੀ ਹੀ ਆਗਿਆ ਅਨੁਸਾਰ ਵੇਦ (ਆਦਿਕ ਧਰਮ-ਪੁਸਤਕਾਂ ਪਰਗਟ) ਹੋਏ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ (ਜਗਤ ਵਿਚ) ਪਾਪ ਤੇ ਪੁੰਨ ਨੂੰ ਨਿਖੇੜਿਆ ਹੈ ।
ईश्वर की आज्ञा से ही वेदों की उत्पति हुई, जिन्होंने पाप-पुण्य का विचार किया।
२)ओमकार ब्रह्मा उत्पति || ओमकारू किआ जिनी चित ||
ओमकार सैल जुग भये || ओमकार बैदा निरामए || श्री नानक जी, राग रामकली, मेहला 1, दखनी ओमकार की पवित्र वाणी
श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ संख्या 929
३) सामवेद, ऋग जजुर अथर्वण. ब्रह्मे मुख माइया है त्रैगुण. ताकी कीमत कीत कह न सकै को तिउ बोलै जिउ बोलाइदा. – मारू सोलहे महला-१, शब्द-१७
अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद परमात्मा की वाणी है। इनकी कीमत कोई नहीं बता सकता. वे अमूल्य और अनन्त हैं.
४) चार दीवे चहु हथ दिए, एका एकी वारी. –वसन्त हिन्डोल महला-१, शब्द-१
अर्थात् चार दीपक (चार वेद), चार हृदयों में दिए, एक-एक ह्रदय में एक-एक वेद. मनुष्य-सृष्टि के प्रारम्भ में (स्वायम्भुव-मन्वन्तर के प्रारम्भ में) अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों के हृदयों में समाधि की अवस्था परमात्मा ने चारों वेदों का प्रकाश किया.—
भूतपूर्व आर्यसमाजी भाई दित्ताराम उर्फ ज्ञानी दित्तसिंह जी, जो ऋषि दयानन्द के बलिदान के बाद आर्यसमाज छोड़ गये और ऋषि दयानंद पर उनके बलिदान के चार वर्ष बाद मनमाने आरोप लगाने लगे।
इसी दौरान अंग्रेजों ने फूट डालो राज करो नीति के तहत पंजाब को आर्यसमाजी और सिक्ख में बांटना शुरू कर दिया था। इसी के तहत सिक्ख लहर, सिक्ख रेजिमेंट, सिक्ख रिलीजन आदि प्रकल्प चलाये गये। 1907 किसान आंदोलन की सफलता के बाद इसे तेज किया गया और SGPC का गठन किया गया। उन दिनों दित सिंह ने सिख मत को अपना लिया। आज इसी भूतपूर्व आर्यसमाजी को ऋषि से बड़ा विद्वान बताने की लहर पंजाब में चल रही है।
ये कुछ ऐसा ही है जैसे आजकल स्वार्थीजन आर्य समाज को छोड़ जाते हैं फिर मनमाने आरोप आचार्यों एवं आर्य समाज पर लगाते हैं।
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