भारत के 50 वैज्ञानिक ऋषि अध्याय – 22 संसार के पहले कवि महर्षि वाल्मीकि

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संसार के सबसे पहले कवि महर्षि वाल्मीकि हैं। जिन्होंने रामायण जैसा ग्रंथ लिखकर अपने नाम को अमर किया।
वैसे तो परमपिता परमेश्वर की वेद वाणी भी काव्यमय है, पर उस काव्यात्मक धारा को संसार में सबसे पहले आगे बढ़ाने का कार्य महर्षि वाल्मीकि ने किया। उन्हें किसी जाति विशेष से सिद्ध करके देखना उनके साथ अन्याय करना होगा। वह एक ऋषि थे और ऋषि के रूप में ही उन्होंने अपने जीवन के सभी महान कार्य संपादित किए। उनकी विद्वत्ता और आध्यात्मिक ऊंचाई हम सबके लिए नमनीय और वंदनीय है। उनके द्वारा रचित ‘रामायण’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें मानवता के समस्त आधारभूत तत्व केंद्रित हो साकार हो उठे हैं। इस ग्रंथ ने मानवता को जीवंत कर दिया है। अपने एक पात्र के माध्यम से उन्होंने संसार का मार्गदर्शन कर इस ग्रंथ को अमर बना दिया। क्योंकि जब तक मानव जाति है, तब तक रामायण के भीतर समाविष्ट किए गए मानवता के आधारभूत तत्व संसार का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
तपस्वी बाल्मीकि ने उस समय नारद से पूछा था कि :-

कोन्वसमिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान् ।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञ सत्यवाक्यो दृढव्रत:।।1.1.2।।

“इस संसार में आज कौन ऐसा महान व्यक्तित्व है जो श्रेष्ठ गुणों, पराक्रम, धर्म, कृतज्ञता, सत्यता और व्रतों की दृढ़ता से युक्त रहता है ?

चारित्रेण च को युक्तस्वभूतेषु को हित:।
विद्वान: कस्मर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शन: ।।1.1.3।।

वह कौन है जो अच्छे आचरण से संपन्न है, सभी जीवित प्राणियों की भलाई के लिए दिया गया है, विद्या में सीखा है (सभी ज्ञात चीजों का ज्ञान), जो दूसरों को नहीं कर सकते हैं और विलक्षण रूप से सुंदर हैं?

आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोऽनसूयक: ।
कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ।।1.1.4।।
 
कौन (पुरुषों में) आत्मसंयमित है? क्रोध को किसने जीता है? कौन प्रतिभा से संपन्न है और ईर्ष्या से मुक्त है? वह कौन है जिसके क्रोध करने पर शत्रु तो क्या देवता भी भयभीत हो जाते हैं?
इस वर्णन से स्पष्ट है कि महर्षि बाल्मीकि की कविता फूटना तो चाहती थी ,पर वह किसी ऐसे पात्र को खोज रही थी जो उस समय लोक में यथार्थ में गुणी हो, वीर्यवान हो, धर्म के तत्व को जानने वाला हो, कृतज्ञ हो, सत्यवादी, दृढ़व्रती,चरित्र से युक्त हो, सबका हितकारी, विद्वान, समर्थ, सुंदर , आत्मवान, क्रोध पर विजय पाने वाला हो, इसके अतिरिक्त तेजस्वी और अच्छिद्रान्वेषी हो। उसे एक ऐसे पात्र की आवश्यकता थी जो जिसके युद्ध क्षेत्र में रोष से शत्रु तो क्या देवता भी भय खा जाएं ?
महर्षि वाल्मीकि की खोज भारत की उस चिरंतन वैदिक संस्कृति के उस उच्चादर्श की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है जिसमें शस्त्र और शास्त्र के समन्वय के प्रतीक महान व्यक्तित्व को ही राष्ट्रनायक माना जा सकता है। मानवता का नेतृत्व करने के लिए जिन उच्चतम गुणों की आवश्यकता होती है ,उनको महर्षि वाल्मीकि की इस जिज्ञासा में पढ़ा जा सकता है। हमारे ऋषियों के वैदिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो कोई भी मुस्लिम सुल्तान या बादशाह या अंग्रेज गवर्नर जनरल या वायसराय भारत के किसी वाल्मीकि का आदर्श नहीं हो सकता।
क्योंकि इनके भीतर एक भी ऐसा गुण नहीं है, जिसे किसी कवि के आदर्श पात्र में स्थापित करके देखा जा सकता हो।
जिन लोगों ने आदर्श गुणों से हीन किसी भी विदेशी सुल्तान या बादशाह या गवर्नर जनरल पर कविता लिखी है, उसने कविता की ऊंचाई का अपमान किया है। भारत के इस महान ऋषि के उस उच्च आदर्श को मिट्टी में मिलाने का प्रयास किया है जिसमें किसी भी गुणहीन व्यक्ति को कविता का पात्र नहीं माना जा सकता।

कोई बादशाह हो नहीं सकता राम समान इस दुनिया में।
राम अनोखे दिव्य पुरुष हैं, इस भूमंडल की बगिया में।।

महर्षि वाल्मीकि को आज के कवियों का आदर्श बनाने की आवश्यकता है। विशेष रूप से उन कवियों का जो रस श्रंगार में डूब कर समाज के युवा वर्ग को पथभ्रष्ट कर रहे हैं या जाति, क्षेत्र, वर्ग, संप्रदाय या भाषा आदि को लेकर लोगों में विखंडन और विभाजन को बल देने वाले किसी भी समाज विरोधी व्यक्ति पर जिनकी कविता फूटती है। महर्षि वाल्मीकि जी द्वारा श्री रामचंद्र जी को अपनी कविता का आदर्श पात्र बनाने की घोषणा करना इस बात का संकेत है कि यदि आपने किसी भी दृष्टिकोण से हीन, गुणहीन, मतिहीन और दिशाहीन व्यक्ति को अपनी कविता का पात्र बनाया या माध्यम बनाया तो उसके ऐसे ही चिंतन का प्रभाव समाज पर पड़ेगा। जिससे समाज में अयोग्य लोगों का सम्मान होने लगेगा और योग्य लोग दुत्कार दिए जाएंगे।
… और आज यही हो रहा है।
महर्षि वाल्मीकि के बारे में किंवदंति है कि वह कभी अपने जीवन के आरंभिक काल में एक क्रूर डाकू हुआ करते थे और उस समय उनका नाम रत्नाकर था। अपने इसी कर्म में रत रहे रत्नाकर का एक दिन कतिपय प्रज्ञाचक्षु ऋषियों से साक्षात्कार हुआ। ऋषियों के उस साक्षात्कार से रत्नाकर के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आया और वे एक क्रूर डाकू से मानवता के हित चिंतक ऋषि बन गए। यद्यपि अब इस धारणा को भी बदलने का प्रयास किया जा रहा है कि महर्षि वाल्मीकि अपने जीवन के प्रारंभिक काल में एक रत्नाकर नाम के डाकू हुआ करते थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे लेखक प्रमाणिक आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयास कर चुके हैं कि महर्षि वाल्मीकि अपने जीवन के प्रारंभिक काल में रत्नाकर नाम के डाकू नहीं थे।

मिथ्या धारणा बदल दीजिए, रत्नाकर नहीं डाकू थे।
सुसंस्कृत ,दिव्यात्मा के स्वामी वेद ज्ञान के जादू थे।।

महर्षि वाल्मीकि जी ने रामचंद्र जी महाराज पर जितना लिखा है उसकी चर्चाएं तो अक्सर आज भी हमारे भारतीय समाज में होती रहती हैं और लोग उनके जीवन से प्रेरणा लेते रहते हैं। पर भरत का चरित्र भी अपने आप में बहुत ही अनुकरणीय है। उनके बारे में हमें विशेष जानकारी आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वान स्वामी ब्रह्ममुनि जी की पुस्तक ‘रामायण की विशेष शिक्षाएं’ से मिलती है। वाल्मीकि जी ने भरत के शब्दों और उनके चरित्र को इतनी सजीवता प्रदान की है कि उन्हें पढ़ते हुए आंखों से अश्रुधारा बह चलती है। रामचंद्र जी महाराज जितने मर्यादित, धार्मिक और अपने से बड़ों के प्रति आदर व स्नेह से भरे हुए हैं उतने ही भरत भी इन गुणों से भरपूर हैं।
भरत को रामचंद्र जी के वनवास के पश्चात उनके मातुल गृह अर्थात ननिहाल से यह कहकर नहीं बुलाया गया कि उनके पिता का देहांत हो गया है और उनके भाई श्रीराम को वनवास मिल गया है अपितु उन्हें इन सारी बातों को गोपनीय रखकर किसी बहाने से बुलाया जाता है। जब भरत अयोध्या पहुंच जाते हैं तब उनके मंत्री गण उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराते हैं और उनसे राज्यभार ग्रहण करने का निवेदन करते हैं। इस पर भरत प्रसन्न नहीं होते बल्कि इतने दुखी होते हैं कि अचेत होकर भूमि पर ही गिर जाते हैं।
महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है-

‘अभिषेक्ष्यति रामं तु राजा यज्ञं नु यक्ष्यते।
इत्यहं कृतसंकल्पो हृष्टो यात्रामयासिषम्।।’

अर्थात् मेरा पिता राजा दशरथ राम का राज्याभिषेक करने के हेतु राजसूय यज्ञ करेगा यह संकल्प मन में रखकर प्रसन्न होकर मैं अपने मातुल गृह से चला था। हाय ! यह क्या हुआ ?
यह है भरत की मर्यादा ,विनम्रता और भाई के प्रति भक्ति भावना का प्रथम दृश्य। उन्होंने जिस प्रकार अपनी माता के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग किया, दासी मंथरा को भी कठोर शब्दों में लताड़ा ,उनके उन शब्दों को सुनकर भी उनके प्रति ह्रदय श्रद्धा से भर जाता है। भाई के प्रति ऐसी ही भक्ति भावना और श्रद्धा का अभिप्रकटन भरत जीवन भर करते रहे । ‘भाई भाई के प्रति द्वेष भावना रखने वाला न हो’, वेद के इस आदेश को यदि किसी ने हृदय से स्वीकार किया है तो वह भरत हैं। जो संसार के हर उस भाई को भाई के प्रति यह संदेश देते हैं जो छोटी-छोटी बातों पर भाई से लड़ता झगड़ता है या भाई के अधिकार को छीनकर उस पर अपना अधिकार करने की चेष्टा करता है।
भरत ने अपने भाई श्री राम की अनुपस्थिति में उनकी खड़ाउओं को राज्य सिंहासन पर रखकर 14 वर्ष तक शासन किया। इन 14 वर्षों में एक पल भी ऐसा नहीं आया ,जब उन्हें अयोध्या के राज्य का मोह आ गया हो। भाई का भाई के प्रति ऐसा गहरा अनुराग और समर्पण संसार के इतिहास में अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। इस अनुराग ,श्रद्धा और समर्पण को काव्यात्मक शैली में जिस उत्कृष्टता के साथ महर्षि वाल्मीकि ने प्रस्तुत किया है उससे उनकी योग्यता, हृदय की पवित्रता, निश्छलता और आध्यात्मिक क्षेत्र की उन्नति की चरमावस्था का बोध होता है।
ऐसा नहीं है कि महर्षि वाल्मीकि ने भरत को लेकर ही अपनी निश्छल भावाभिव्यक्ति दी है अपितु उन्होंने इस भावाभिव्यक्ति को हर उस स्थान पर पूरी विद्वत्ता के साथ प्रकट किया है जहां-जहां भी इसकी आवश्यकता अनुभव हुई है। रामायण के प्रत्येक पात्र को उसकी गरिमा के अनुसार शब्द देने में महर्षि वाल्मीकि सफल सिद्ध हुए हैं। उसी का परिणाम है कि रामायण एक इतिहास संबंधी ग्रंथ होकर भी हमारे लिए इतना पूजनीय बन गया कि उसे भारतवर्ष का प्रत्येक वैदिक सनातन धर्मी अपने घर में रखना गौरव की बात समझता है।
महर्षि वाल्मीकि ने संपूर्ण संसार को और संपूर्ण वसुधा के सभी लोगों को एक परिवार समझकर प्रेमपूर्ण संबंधों को सींचते रहने का अनुपम संदेश अपने ‘रामायण’ ग्रंथ के माध्यम से दिया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि जो व्यक्ति संसार के पवित्र संबंधों में आग लगाता है या उन्हें नष्ट करने का प्रयास करता है, या उन्हें कलंकित करता है या दूसरों के अधिकारों का हनन करके उस पर अपना अवैध कब्जा करता है, वह संसार के लिए रावण बन जाता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति दूसरों के अधिकारों को दिलाने का काम करते हुए उनका रक्षक बन जाता है, वह भगवान श्रीराम बन जाता है। इस अनुपम संदेश के कारण बाल्मीकि जी हमारे लिए श्रद्धा के पात्र हैं । समाज के क्षेत्र में उनका यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे लिए कल भी लाभप्रद था, आज भी लाभप्रद है और आगे भी उस समय तक लाभप्रद रहेगा जब तक यह सृष्टि चल रही है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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