बीकानेर की ओर कामरान
कामरान को खेतसी राठौड़ के सामने आधी अधूरी सफलता क्या मिल गयी थी, उसका दुस्साहस बढ़ गया और वह अब अपने साम्राज्य विस्तार की योजनाएं बनाने लगा। अत: वह बीकानेर की ओर बढऩे लगा। बीकानेर में उस समय राव जैतसी का शासन था। राव जैतसी के भीतर भी स्वतंत्रता प्रेम की भावना कूट-कूटकर भरी थी, और वह अपनी स्वतंत्रता की रक्षार्थ कोई भी बड़े से बड़ा बलिदान देने को तैयार था।
कामरान बीकानेर की ओर आगे बढ़ता आ रहा था। उसने बीकानेर के निकट आकर एक तालाब के पास अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया। उसने वही किया जो राव खेतसी के साथ किया था, कि राव जैतसी के पास अपना प्रस्ताव भेज दिया। जिसके अनुसार तीन शर्तें रखी गयीं-एक तो यह कि मेरे सामने अपने हथियार डाल दो, दूसरे यह कि दस करोड़ का धन मुझे तुरंत दो और तीसरे यह कि अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ कर दो।
राव जैतसी के लिए ये तीनों शर्तें ही अपमानजनक थीं। उसने इन शर्तों को मानने से तुरंत इनकार कर दिया। राव ने शत्रु को अपने क्षेत्र से मार भगाने का संकल्प लिया और वह युद्घ की तैयारी करने लगा। उसने कामरान के लिए लिखवा भेजा कि-‘कामरान कमध भाजहन कोई’ अर्थात हे कामरान! राठौड़ लोग युद्घ से भागते नही हैं।
कामरान ने की मारकाट
जब कामरान ने यह संदेश राव जैतसी की ओर से सुना तो दोनों पक्षों ने युद्घ की तैयारियां आरंभ कर दीं। क्रुध कामरान नीचता पर उतर आया, उसने बीकानेर के जनसाधारण को मारना-काटना और लूटना-पीटना आरंभ कर दिया। मुगल सेना अंतत: बीकानेर के दुर्ग के पास पहुंच गयी।
‘छन्द राव जैतसी’ से (सूजा बीठू) से हमें पता चलता है कि मुगलों ने बीकानेर के दुर्ग के पास पहुंचकर भयंकर उत्पात मचाना आरंभ कर दिया, मुगलों ने बीकानेर की जनता को अपने राजा के विरूद्घ भडक़ाने का प्रयास किया, परंतु बीकानेर की देशभक्त जनता ने अपने राजा के विरूद्घ एक शब्द भी नही बोला और वह अपने राजा के साथ पूर्ण निष्ठा के साथ आकर खड़ी हो गयी। राजा भी अपनी प्रजा का रक्षक बनकर उसके साथ खड़ा हो गया।
राव जैतसी एक पराक्रमी हिंदूवीर था, अत: मुगलसेना का सामना करने के लिए वह स्वयं दुर्ग से बाहर आ गया। राजा अपने स्वरूप नामक अश्व पर सवार था। उसने अपनी एक सैन्य टुकड़ी को प्रजा की रक्षार्थ पीछे छोड़ दिया था। राजा को अपने सैन्य बल के साथ बाहर निकलता देखकर मुगल सेना उस पर गिद्घ की भांति झपट पड़ी।
राजपूतों ने बनाई संयुक्त सेना
राजपूताने के कई देशभक्त राजाओं की सेना भी राव जैतसी के साथ थी। इस संयुक्त सेना का नेतृत्व बीसर के राव सांगा राठौड़ के हाथों में था। राव सांगा राठौड़ अपने ‘गवालेर’ नामक अश्व पर सवार था। वह भी अपनी शूरवीरता और साहस के लिए उस समय प्रसिद्घ था। अत: इस युद्घ में भारत की प्रतिष्ठा बचाना एक प्रकार से स्वतंत्रता के इस महायोद्घा के लिए अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था।
राव सांगा राठौड़ बड़ी वीरता से युद्घ में कूद गया। उसके साथ में रामसिंह, रतनसिंह, डूंगरसिंह और देद जैसे अन्य पराक्रमी योद्घा भी थे जो अपनी-अपनी वीरता का प्रदर्शन अन्य अनेकों युद्घों में समय-समय पर कर चुके थे। यद्यपि आज का युद्घ उन युद्घों से विशेष था और पहले के युद्घों से कई अर्थों में अलग भी था, परंतु इसके उपरांत भी ये सारे के सारे योद्घा उस युद्घ में अपने पराक्रम के प्रदर्शन के लिए अपने नायक के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़े हो गये। यह युद्घ 26 अक्टूबर 1534 ई. को लड़ा गया था। कहा जाता है कि मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की चौथ को (दिन शनिवार) राव जैतसी की देशभक्त सेना ने ‘जयश्रीराम’ का घोष करके शत्रु पर आक्रमण कर दिया।
मच गया मुगल सेना में हाहाकार
राव जैतसी की सेना के प्रबल प्रहार के विषय में (पुस्तक : ‘छंद राव जैतसी रो’ सूजा बीठू) लिखा है कि इस प्रकार के आक्रमण को देखकर मुगल सेना में हाहाकार मच गया। मुगलों ने युद्घ से पूर्व हिंदू लोगों की अनेकों नारियों और अनेकों गायों को बंदी बना लिया था। इसलिए युद्घ क्षेत्र में हमारे सैनिक पूर्ण पराक्रमी भाव के साथ उतरे थे। ‘जयश्रीराम’ का घोष होता और चारों ओर से दुगुने वेग से हिंदू सेना मुगल सेना पर प्रहार करती जान पड़ती। हिंदू योद्घा मुगल सेना के लिए प्राण लेवा संकट बन गये थे। मुगलों ने इस युद्घ में तोपों का प्रयोग किया और अनेकों हिंदू योद्घाओं को वीरगति दिला दी। परंतु इसके उपरांत भी हमारे योद्घाओं के साहस के सामने मुगल सैनिकों का रूकना असंभव हो रहा था।
राठौड़ सेना ने मुगल सेना के लिए गंभीर चुनौती प्रस्तुत की। उन्हें निकलकर भागने का अवसर नही मिल पा रहा था। मुगल सेना की अगुवाई में ईराकी सैनिक थे, जिन्हें हिंदू योद्घाओं ने कुछ देर के संघर्ष के पश्चात ही समाप्त कर दिया। युद्घ का दृश्य दर्शनीय हो उठा था, चारों ओर रोमांच बरस रहा था और उस दिन का आकाश भी हमारे योद्घाओं की वीरता को देखकर रोमांचित हो उठा था।
अंत में कामरान को अपने दुस्साहस का फल मिल ही गया। हिंदू योद्घाओं की वीरता के समक्ष उसकी सेना के पैर उखड़ गये और वह स्वयं लाहौर की ओर भाग गया। राठौड़ ने अपनी उन सभी गायों और हिंदू स्त्रियों को ससम्मान मुक्त कराया, जिन्हें मुुगलों ने बलात् कैद कर लिया था।
सूजाबीठू ने लिखा है :-
सहधणी भोमि बाइरूसीत
देवता राउ पाडडू दईल ।। 395।।
कवि कह रहा है कि राठौड़ इस भूमि का स्वामी बना जैसा कि राम अपनी सीता की रक्षार्थ दैत्य का संहार करते समय बन गये थे।
हमारी राष्ट्रीय एकता का एक और प्रमाण
भारतीयों की फूट का रोना रोने वालों के लिए एक और शुभ सूचना इसी कवि की पुस्तक से मिलती है कि इस युद्घ में जैसलमेर, आम्बेर, सीकर, सिरोही, आबू, सांचौर, गूगल अजमेर, बूंदी, अमरकोट, सिंध, जालौर खेड़, मारवाड़ बिलाड़ा मारवाड़ आदि क्षेत्रों से सैनिक गये थे। स्पष्ट है कि इन लोगों की दृष्टि में गायों का और हिंदू स्त्रियों का बलात् अपहरण किया जाना राष्ट्रीय सम्मान को चुनौती देना था, जिसे इन देशभक्तों ने स्वीकार किया और चुनौती देने वालों के लिए जब स्वयं एक चुनौती बनकर युद्घ क्षेत्र में उतरे तो चुनौती देने वालों का कहीं अता-पता न चला, उनकी तोप धरी की धरी रह गयीं और युद्घक्षेत्र में हिंदुओं ने अपनी गौरवमयी विजय प्राप्त की।
अतिथि सत्कार के लिए देखिये प्राण
भारत में ‘अतिथि देवो भव:’ की परंपरा रही है। अतिथि को सम्मान देने वालों ने कितनी ही बार अपने प्राणों की या तो आहुति दे डाली या प्राणों को संकटों में डाल लिया। अतिथि के लिए प्राण देने के भी कितने ही उदाहरण हमारे इतिहास में लोगों के भरे पड़े हैं।
राणा सांगा और जयमल
एक बार राणा सांगा अपने प्राणों को संकट में फंसा देखकर भागे जा रहे थे, उनका जयमल से युद्घ हो रहा था। जयमल भी राणा का पीछा करता जा रहा था, वह पीछे-पीछे था और राणा सांगा आगे ही आगे भागे जा रहे थे। राणा को बचने का कोई उपाय नही सूझ रहा था। वह किसी प्रकार राठौर बीदा के यहां पहुंच गये।
राठौर बीदा ने देखा कि राणा की अवस्था बड़ी ही दयनीय बनी हुई थी उन्होंने राणा का कुशलक्षेम पूछा। राणा ने शीघ्रता से अपनी स्थिति पर प्रकाश डाला और राठौर बीदा से उसके राज्य में शरण मांगी। राठौर बीदा ने शरणागत की रक्षा को अपना धर्म मानकर राणा को शरण देने की बात स्वीकार कर उन्हें बड़े सम्मान भाव से अपने किले के राजभवन की ओर बढ़ा।
पर यह क्या? पीछे से एक कडक़ती आवाज आयी-ठहरिये! सांगा भागने का प्रयास मत करो, और मुझसे संघर्ष करो। यह आवाज स्वयं जयमल की थी। जयमल राणा सांगा का अंत कर देना चाहता था। इसलिए आज वह राणा को किसी भी मूल्य पर छोडऩा नही चाहता था। राणा यद्यपि कई गंभीर घावों से घायल थे और उनके शरीर से रक्त बह रहा था, परंतु शत्रु की चुनौती भरी ललकार को सुनकर तुरंत वहीं रूक गये। दोनों की तलवारें फिर एक दूसरे का अंत करने के लिए चलने लगीं।
जब बीदा ने देखा कि उनके शरणागत को इनका शत्रु उन्हीं के घर में मार डालना चाहता है, तो उन्होंने अपना धर्म पहचानने में तनिक सी भी देरी नही की। उसने आगे बढक़र राणा को युद्घ से पीछे धकेल दिया और जयमल से स्वयं युद्घ करने लगा। यद्यपि जयमल ने उसे युद्घ से हटने को भी कहा, परंतु उसने स्पष्ट कर दिया कि राणा इस समय मेरे अतिथि हैं और अतिथि की रक्षा अवश्य की जानी चाहिए, इसलिए अब युद्घ में मेरे लिए पीछे हटना किसी भी प्रकार से असंभव है।
जयमल ने राठौड़ बीदा का यह वक्तव्य सुनकर उसी से संघर्ष करना आरंभ कर दिया। राणा सांगा ने जब देखा कि उसके लिए बीदा अपने प्राण तक दे देना चाहता है, तो उन्होंने उसे हटने का आग्रह किया कि तू हटजा, मैं स्वयं ही अपने शत्रु से लोहा लूंगा। मैं अब भी इसका अंत करने की क्षमता रखता हूं। राठौर ने इस पर कहा कि राजकुमार (उस समय तक राणा सांगा को मेवाड़ का सिंहासन प्राप्त नही हुआ था) मैं यह भली प्रकार जानता हूं। पर आप इस समय मेरे अतिथि हैं, इसलिए मेरा कत्र्तव्य आपकी प्राण रक्षा है, जिसे आप मुझे निर्वाह करने दें।
राणा सांगा के लिए बीदा जयमल से संघर्ष करने लगा। राणा सांगा दूर खड़े होकर युद्घ को देखनेलगे। दोनों ओर से तीखे प्रहार एक दूसरे पर हो रहे थे। जब बीदा ने देखा कि राणा सांगा के लिए उसका युद्घ उसकी अपेक्षा के विरूद्घ जा सकता है अर्थात वह जीत नही सकता और उसका प्राणांत भी होना संभव है, तो उसने राणा सांगा को वहां से सुरक्षित निकल भागने का संकेत करते हुए कह दिया कि अब मेरा समय निकट है। अत: आप शीघ्रता से सुरक्षित स्थान के लिए प्रस्थान करो।
तब पुन: राणा सांगा ने वहां से निकलने में तनिक सी भी देरी नही की। जयमल ने बीदा को छोडक़र राणा सांगा का पीछा करना चाहा। पर बीदा ने जयमल को आगे से घेर लिया और उसे युद्घ के लिए फिर ललकारा। वह तो अपने प्राणों को संकट में डालकर अपने अतिथि की प्राण रक्षा करने पर उतारू था। इसलिए बीदा का सोचना था कि राणा सांगा को भागने का उचित अंतराल दे दिया जाए। कुछ देर के युद्घ के पश्चात जयमल ने जब अपने भरपूर प्रहार के साथ बीदा को धरती पर गिरने के लिए विवश किया तो बीदा ने कह दिया कि अब तुम यहां से आगे जा सकते हो, मेरा जो कत्र्तव्य था, वह मैंने पूरा कर लिया है।
बीदा ने धरती पर गिरकर कुछ समय में अपनी जीवन लीला समेट ली। जयमल आगे बढ़ गया पर उसके पश्चात उसे राणा का पता नही चला। इस प्रकार एक शूरवीर की रक्षा करके भारत की ”अतिथि देवो भव:” की गौरवमयी परंपरा का पालन कर इतिहास बना दिया।
भारत के विद्यालयों में नैतिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के लिए यह प्रसंग अति सुंदर है। (संदर्भ : राजपूतों की गौरव गाथा)
वीर ठाकुरसी राठौड़
मुगलकाल में मुगलों के खजाने को लूटकर देश की स्वतंत्रता के लिए काम में लाने के अनेकों उदाहरण हैं। खजानों को लूटने के पश्चात अक्सर युद्घ हुए हैं। इन खजानों को लूटने की इन घटनाओं में यह भी देखा जा सकता है कि अक्सर राज परिवारों के लोग सम्मिलित रहे। स्पष्ट है कि राजघरानों के लोग पेशेवर डाकू नही थे। इसलिए उनकी इस लूट का उद्देश्य देश धर्म और स्वतंत्रता की प्राप्ति ही था।
ऐसी ही एक घटना है। बादशाह अकबर का खजाना कश्मीर और लाहौर से दिल्ली जा रहा था। खजाने को बीच में ही भटनेर के एक मछली नामक गांव में लूट लिया गया। इसमें बीकानेर के राव कल्याणमल के भाई वीर ठाकुरसी का हाथ था। जिसने भटनेर दुर्ग को एक मुस्लिम शासक फिरोज क ो मारकर 1549 ई. में जीता था। जब अकबर को अपने खजाने की लूट की जानकारी हुई तो उसने वीर ठाकुरसी को दंडित करने के उद्देश्य से निजामुलमुल्क के नेतृत्व में एक सेना भटनेर भेजी। निजामुल मुल्क की सेना का सामना करने से पूर्व ठाकुरसी ने अपने परिवार को उस दुर्ग से सुरक्षित बाहर निकाल दिया। जब उसने देखा कि निजामुलमुल्क की सेना का सामना करने से पूर्व ठाकुरसी ने अपने परिवार को उस दुर्ग से सुरक्षित बाहर निकाल दिया। जब उसने देखा कि निजामुलमुल्क दुर्ग के अत्यंत निकट आ गया है तो उसने वीर हिंदू परंपरा का निर्वाह करते हुए शत्रु के समक्ष किसी प्रकार की याचना आदि न करके युद्घ करने का निर्णय लिया। वीर ठाकुरसी के साथ एक हजार तपे तपाये देशभक्त हिंदू सैनिक थे, जिन्हें लेकर वह अकबर की सत्ता को चुनौती देने और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने के उद्देश्य से किले से बाहर आ गया। दोनों पक्षों में युद्घ आरंभ हो गया। बचने की कोई संभावना न जानते हुए भी राजपूत मुगल सेना से बड़ी निर्भीकता से लड़े। एक-एक करके कटते गये पर किसी ने भी युद्घ क्षेत्र से भागना उचित नही समझा। सब के सब देश की स्वतंत्रता के लिए युद्घ क्षेत्र में ही हुतात्मा हो गये। स्वयं ठाकुरसी ने भी इस युद्घ में वीरगति प्राप्त की। ठाकुरसी के पश्चात भटनेर का दुर्ग अकबर के आधिपत्य में चला गया। ठाकुरसी के लिए कहा जाता है कि उसने शीश कटने के पश्चात भी हवा में तलवारें चलायीं और कई शत्रुओं को मार गिराया। विश्व इतिहास का अनुपम उदाहरण है यह।
(संदर्भ : ‘बीकानेर राज्य का इतिहास-‘ गौरीशंकर ओझा एवं ‘मैडीवल हिस्ट्री ऑफ राजस्थान’ प्रथम, राजवी अमरसिंह पेज 249)
राव चंद्रसेन राठौड़, जोधपुर
अकबर ने चित्तौड़ (1567 ई.) विजय से चार वर्ष पूर्व ‘1563 ई.’ में जोधपुर पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना भेजी थी। उस सेना का नेतृत्व अकबर ने हुसैन कुली नामक व्यक्ति को दिया था। उस समय जोधपुर पर राव चंद्रसेन राठौड़ का शासन था। चंद्रसेन एक स्वाभिमानी और वीर शासक था। परंतु उसका भाई अकबर से मिल चुका था, जो कि अब हुसैन कुली के साथ आकर स्वयं भी युद्घ करने के लिए आतुर खड़ा था। तब चंद्रसेन ने युद्घ न करके अपने भाई को सोजत की जागीर देकर शांति स्थापित करना ही उचित समझा। फलस्वरूप कुछ समय के लिए जोधपुर में शांति स्थापित हो गयी।
पर इस शांति से हुसैन कुली को शांति नही मिली। वह देखता रह गया कि उसे तो कुछ मिला नही और दोनों भाईयों ने परस्पर ही मित्रता करके उसका मूर्ख बना दिया है। इसलिए हुसैन कुली ने अगले वर्ष 1564 ई. में ही जोधपुर को पुन: घेर लिया। तब चंद्रसेन ने जोधपुर का दुर्ग छोडक़र भाद्राजून के लिए प्रस्थान किया। इस पर मारवाड़ के सरदारों ने मुगलों से घमासान युद्घ किया और अपने शासक चंद्रसेन के चले जाने के पश्चात 300 लोगों ने अपना बलिदान मां भारती की स्वतंत्रता के लिए दिया। इस युद्घ में अमर हुए इन बलिदानियों के बलिदान के उपरांत भी जोधपुर चंद्रसेन के हाथों से निकल गया और वहां मुगलों की पताका फहराने लगी।
कहा जाता है कि 1570 ई. में चंद्रसेन ने नागौर में अकबर से भेंट की। उस भेंट में अकबर ने चंद्रसेन को अपना मनसबदार बनाकर जोधपुर उसे देने का प्रस्ताव रखा। जिसे स्वाभिमानी चंद्रसेन ने अस्वीकार कर दिया। इस भेंट के पश्चात चंद्रसेन तो भाद्रजून चला गया, परंतु अकबर का मन खिन्न हो गया। उसने अपने प्रस्ताव को चंद्रसेन द्वारा अस्वीकार किये जाने को अपना अपमान समझा। इसलिए अकबर ने भाद्राजून पर चढ़ाई करने के लिए एक सेना भेज दी।
सेना की सूचना मिलते ही चंद्रसेन वहां से निकलकर सिवाना चला गया। सिवाना दुर्ग में रहकर वह युद्घ की तैयारी करने लगा। 1574 ई. में हुसैन कुली को अकबर के द्वारा पुन: चंद्रसेन को परास्त करने के लिए भेजा गया, क्योंकि चंद्रसेन भी मुगलों का काफी विरोधी हो चुका था। हुसैन ने अपने विशाल सैन्य बल के द्वारा सोजत पर अधिकार कर लिया तब वह सिवाना की ओर बढ़ा तो मार्ग में रावल सुखराज ने उसे रोक लिया और उसका प्रतिरोध करते हुए रावल ने युद्घ की घोषणा कर दी। रावल सुखराज ने बहुत से मुगलों को दोजख की आग में भेज दिया। राठौड़ों ने प्रबल प्रतिरोध किया परंतु युद्घ में हार गये। तब हुसैन सिवाना की ओर आगे बढ़ा।
पताई राठौड़ की वीरता
हुसैन के आक्रमण की सूचना पाकर चंद्रसेन तो पहाड़ों पर चला गया, परंतु दुर्ग की सुरक्षा का दायित्व पताई राठौड़ को दे गया। पताई राठौड़ ने अदभुत शौर्य का परिचय दिया। उस वीर ने मुगल सेना से निरंतर 2 वर्ष तक युद्घ किया। राठौड़ के इस प्रबल प्रतिरोध से दुखी होकर अकबर ने आगरा से फिर एक सेना भेज दी। परंतु राठौड़ों का साहस अब भी नही टूटा और उन्हें इस बार भी सफलता नही मिली। तब अकबर को और अधिक क्रोध आया। उसने जलाल खां के नेतृत्व में फिर एक सेना भेजी। राठौड़ों ने उस जलाल खां को भी मार डाला। तब 1576 ई. में शाहबाज खां को सिवाना भेजा गया। इसके साथ भी राठौड़ों का भयानक संघर्ष हुआ। परंतु इस बार राठौड़ असफल रहे।
चंद्रसेन की वीरता को नमन
इस प्रकार 14 वर्ष तक चंद्रसेन से मुगलों को निरंतर चुनौती मिलती रही। बड़े संघर्ष से अकबर को सिवाना प्राप्त हुआ, परंतु उस सिवाना को देने से पहले हमारे हिंदू वीरों ने जिस प्रकार हजारों की संख्या में अपने बलिदान दिये, हमारे इतिहास के लिए वह बलिदान पावन धरोहर है। हमें अकबर की विजय को ही ध्यान में नही रखना चाहिए अपितु स्वतंत्रता की रक्षार्थ किये गये हजारों बलिदानों को भी नमन करना चाहिए। एक छोटे से राज्य के लोगों द्वारा 14 वर्ष तक अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना छोटी बात नही है। पर मुगलों को 1579 ई. में चंद्रसेन ने पहाड़ों से निकलकर सोजत के पास मारवाड़ के थाने से खदेड़ दिया। उसी क्षेत्र में 1580 ई. में उसका देहांत हो गया। (संदर्भ : ‘राजस्थान में राठौड़ साम्राज्य’-भूरसिंह)
क्रमश: