मत रम मन संसार में, सपनेवत् संसार
बिखरे मोती-भाग 175
गतांक से आगे….
सहज नहीं कूटस्थ व्रत,
दुर्लभ पूरा होय।
शक्ति शान्ति सुकून तो,
फिर पीछे-पीछे होय ।। 1101 ।।
व्याख्या :-
भगवान कृष्ण ने गीता के छठे अध्याय के आठवें श्लोक में इसकी व्याख्या करते हुए कहा है-‘कूटवत तिष्ठतीति कूटस्थ:‘ अर्थात जो कूट (अहरन) की तरह स्थित रहता है, उसको कूटस्थ कहते हैं। कूट (अहरन) एक लौह पिण्ड होता है, जिस पर लोहा, सोना चांदी आदि अनेक रूप में गढ़े जाते हैं, किंतु वह हमेशा एक रूप ही रहता है। ऐसे ही सिद्घ महापुरूष के सामने तरह-तरह की परिस्थितियां अथवा विषमताएं आती हैं, किंतु वह कूट की तरह ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है, निरपेक्ष रहता है, निश्चल रहता है। पाठकों की सुविधा के लिए कूटस्थ का अर्थ और भी सरल शब्दों में बताना समीचीन रहेगा-जो परिवर्तन करता है किंतु स्वयं परिवर्तन में नहीं आता है, जो सबको गति और दिशा देता है, किंतु स्वयं गति और दिशा से निरपेक्ष रहता है, जो सब में रमा हुआ है किंतु फिर भी दिखाई नहीं देता है-वह कूटस्थ है। जो साधक अपने विवेक से उसे देख लेता है, वह शांति, शक्ति और आनंद से भरपूर हो जाता है। ध्यान रहे, कूटस्थ व्रत का पालन करना कोई ‘खालाजी का घर नहीं‘ अर्थात आसान कार्य नहीं है। यह अध्यात्म की ऐसी उच्चतम अवस्था है-जिसे कोई बिरला साधक ही प्राप्त कर पाता है। ऐसा व्यक्ति अथवा साधक परमपिता परमात्मा के दिव्य गुणों से तदाकार हो जाता है, सामान्य आत्मा से दिव्यात्मा हो जाता है, ज्योति-परमज्योति से मिलकर एकाकार हो जाती है, अर्चि धवल प्रकाश बन जाती है।
मत रम मन संसार में,
सपनेवत् संसार।
करना रमण तू ईश में,
यह गीता का सार ।। 1102 ।।
व्याख्या :-
हे मनुष्य! तू अपने मन को संसार की मोह-माया में मत फंसा, क्योंकि तृष्णा ऐसी दलदल है-इसमें जितना हिलते जाओगे उतने ही फंसते जाओगे। संसार के रिश्ते सपने जैसे क्षणभंगुर हैं, पानी हैं। एक मात्र सच्चा रिश्ता तो आत्मा का परमपिता परमात्मा से है। इसलिए अपने मन को सर्वदा परमपिता परमात्मा में रमा ताकि उसके दिव्य गुण तेरे आचरण में भासने लगें। ज्योति उस परम ज्योति के दिव्य स्वरूप को धारण कर ले। यही गीता का सार है। ”संसार में रहो-किंतु संसार के बनकर नहीं, अपितु भगवान के बनकर रहो।” भाव यह है कि संसार रूपी नदी में तैरना है , बहना नहीं अर्थात डूबना नहीं है। भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए गीता के अठारहवें अध्याय के 57 वें श्लोक में कहते हैं-‘मंचित: सततं भव‘ अर्थात ‘हे पार्थ! यदि मेरा सामीप्य पाना चाहते हो, मुझसे सदा जुड़े रहना चाहते हो तो निरंतर मेरे में चित्तवाला हो जा, भाव यह है कि मेरे साथ अटल संबंध कायम कर ले।‘
एक मात्र भगवान का चिंतन करने से उसमें रमण करने से अहम टूटने लगता है। राग-द्वेष समाप्त होने लगते हैं। समता (अर्थात बुद्घि योग) स्वत: ही आने लगती है, किंतु याद रखो, भगवान का निरंतर चिंतन तभी होगा-‘जब मैं भगवान का हूं और भगवान मेरे हैं‘-इस प्रकार की अहंता (मैंपन) भगवान में लग जाएगी।
क्रमश: