भारत के 6 दर्शनों में सांख्य दर्शन का विशिष्ट स्थान है। इसके रचनाकार कपिल मुनि जी हैं। सांख्य दर्शन का अध्ययन करने से इस महान ऋषि के चिंतन और चिंतन की पवित्रता का सही – सही पता चल जाता है। महाभारत जैसे ग्रंथ में इस महान ऋषि को सांख्य के वक्ता के रूप में स्थान दिया गया है। इनकी महानता और महत्व को स्पष्ट करते हुए पुराणों में इन्हें अग्नि का अवतार और ब्रह्मा का मानसपुत्र भी कहा गया है। श्रीमद्भगवत के अनुसार कपिल विष्णु के पंचम अवतार माने गए हैं। मानस पुत्र होने का अभिप्राय है कि वे ब्रह्मा के समान मेधा संपन्न थे।
कपिल मुनि ने भारत की वैदिक संस्कृति के अनुसार चिंतन प्रकट करते हुए संसार का उपकार किया। कहा यह भी जाता है कि कपिलवस्तु का नाम कपिल मुनि जी के नाम पर ही रखा गया। इससे यह भी अनुमान लगाया जाता है कि कपिल ऋषि का जन्म स्थान कपिलवस्तु ही था। कुछ विद्वानों ने इतिहास के साथ अत्याचार करते हुए तिथि क्रम को बिगाड़ने का प्रयास किया है। जिसके फलस्वरूप कपिल ऋषि का जन्म ईसा से 700 वर्ष पहले लिखा गया है। हमारा मानना है कि यदि कपिल ऋषि के बारे में महाभारत में भी उल्लेख मिलता है तो उनका महाभारत युद्ध से अर्थात अब से सवा 5 हजार वर्ष पूर्व ही जन्म होना निश्चित होता है।
कपिल मुनि के नाम से , बसा कपिला धाम।
कपिलवस्तु कहते जिसे, दुनिया भर में नाम।।
सांख्य दर्शन तत्वज्ञान के द्वारा मोक्ष प्राप्ति करने का विधान करता है। यह दर्शन कर्मकांड के विपरीत ज्ञान कांड को महत्व देता है। श्वेताश्वर उपनिषद में सांख्य दर्शन के सिद्धांतों को लेकर ही विषय को प्रस्तुत किया गया है। सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष के बारे में स्पष्ट किया गया है कि प्रकृति सत, रज, तम – इन तीन गुणों से निर्मित होती है। त्रिगुण की साम्यावस्था को प्रकृति माना जाता है और इनके वैषम्य को सृष्टि कहा जाता है।
सत्यव्रत सिद्घान्तालंकार जी लिखते हैं-”गुण-गुणों में बरतते हैं-इसका क्या अर्थ है? शास्त्र के अनुसार जड़ प्रकृति में तीन गुण हैं-सत्व, रज और तम। इसी प्रकार चेतन मनुष्य में भी तीन गुण हैं-सत्व, रज और तम। हमारी सत्वगुणी प्रवृत्ति प्रकृति के सत्वगुणी विषयों में बरतती है, हमारी रजोगुणी प्रवृत्ति प्रकृति के रजोगुणी विषयों में बरतती है। हमारी तमोगुणी प्रवृत्ति प्रकृति के तमोगुणी विषयों में बरतती है। इस प्रकार हमारे गुण प्रकृति के गुणों में बरतते हैं, प्रकृति ही प्रकृति से खेलती है, मैं ‘आत्मा’ कर्त्ता रूप में कुछ नहीं करता, सब कुछ करने वाली प्रकृति है, वही कर्त्री है।
प्रकृति का यह खेल बरबस चल रहा है, हम चाहें या न चाहें प्रकृति हम से जो चाहती है वही करवा रही है। स्वभाव अत्यन्त प्रबल है, वही सब कुछ कराता है मैं-आत्मा कुछ नहीं करता। जब यह ज्ञान हो जाता है जब मैं अपने को कर्म का करने वाला ही मानना छोड़ देता है, तब कर्म के फल में आसक्ति का प्रश्न ही जाता रहता है। मनवा मूर्ख है जो अपने आपको कर्त्ता मानकर व्यर्थ की घुड़दौड़ में लगा है।
मैं कुछ करता हूं नहीं , करता है कोई और।
मेरो मन मूरख भयो, मचा रहा घुड़ दौड़ ।।
सातवलेकरजी ने गीता की अपनी ‘पुरूषार्थ बोधिनी’ टीका में लिखा है-‘कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है, रेता से क्यों नहीं बनाता? क्योंकि मिट्टी में घड़ा बनाने का गुण है, रेता में नहीं, कुम्हार ही घड़ा बनाता है, डॉक्टर क्यों नहीं बनाता? क्योंकि कुम्हार में घड़ा बना सकने का गुण है, डॉक्टर में यह गुण नहीं है। मिट्टी का गुण और कुम्हार का गुण मिलकर घड़ा बनता है, न सिर्फ मिट्टी के गुण से और न सिर्फ कुम्हार के गुण से घड़ा बन सकता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि एक के गुण दूसरे के गुणों के साथ मिलकर यह संसार चल रहा है, इसमें मिट्टी कहे कि मैंने घड़ा बनाया या कुम्हार कहे कि मैंने बनाया-दोनों का यह अहंकार मिथ्या है। इसलिए समझदारी इसी में है कि कोई अपने को ‘कर्त्ता’ न समझे, कर्तव्य का घमण्ड त्याग दे और गुणों द्वारा गुणों के हेलमेल से यह सब हो रहा है-ऐसा माने और 'मैं' कर रहा हूं-ऐसा कहकर आसक्त न होवे।”
महर्षि कपिल यह स्पष्ट करते हैं कि हमें जो कुछ दिखाई दे रहा है वह सृष्टि में नया नहीं है। यह सब कुछ प्रकृति के पांच तत्वों से ही निर्मित है। जब तक प्रकृति अपनी साम्यावस्था में रहती है, तब तक यह सृष्टि शून्य में रहती है ,जैसे ही प्रकृति में वैषम्य उत्पन्न होता है वैसे ही सृष्टि का निर्माण आरंभ हो जाता है। जब हम ईश्वर को सच्चिदानंद स्वरूप कहते हैं तो उसमें सत ,चित, आनंद – यह तीन शब्द समाविष्ट होते हैं। ‘सत’ का अभिप्राय जड़ प्रकृति से है, ‘चित’ का अभिप्राय चेतन जीव से है और ‘आनंद’ का अभिप्राय ईश्वर से है। सत् के पास चेतन और आनंद नहीं हैं। जीव के पास सत् है पर आनंद नहीं है। इस प्रकार चेतन जीव में सच्चिदानंद का एक गुण है दूसरा नहीं है ,इसीलिए वह बीच में अटक और लटक रहा है । जबकि परमपिता परमेश्वर में सत, चित और आनंद तीनों हैं ।इसीलिए उसको सच्चिदानंद स्वरूप कहा जाता है।
यजुर्वेद ने इसका वर्णन एक मंत्र में बड़े रोचक ढंग से किया है।
वहां पर कहा गया है कि :-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समान वृक्षम परिषष्वजाते ।
तयोरन्य पिप्पलम स्वादवत्तनश्नन्नन्य अभिचाकशीति
ऋग्वेद 1/164/20
भावार्थ—
‘दो पक्षी हैं। साथ साथ रहते हैं। परस्पर मित्रता भी है। एक ही वृक्ष पर दोनों का निवास है ।उनमें से एक उस वृक्ष के फलों को भोग करता है । दूसरा फलों को न खाता हुआ अपने मित्र को अच्छी प्रकार देखता रहता है ।’
इसलिए जीव जगत में आकर फंसता है, क्योंकि वह प्रकृति के भोग में पड़ जाता है। इसी कारण से जीव ईश्वर को भूल जाता है। रजस और तमस के कारण अंधकार में भटक जाता है।
इस मंत्र में जिन दो पक्षियों को बताया गया है ,वह जीवात्मा और परमात्मा रूपी ही दो पक्षी है। जीवात्मा प्रकृति रूपी वृक्ष के फलों को भोगा करता है। परंतु परमात्मा भोक्ता नहीं है ।वह सर्व दृष्टा रूप में हम सब को देख रहा है। जीव ही पाप पुण्य करता है। जीव ही पाप और पुण्य का कर्म भोग भोक्ता है। इसलिए जीव आत्मा साक्षी नहीं बल्कि परमात्मा साक्षी है। यद्यपि आचार्य कपिल अपने सांख्य दर्शन में ईश्वर को स्वीकार नहीं करते।
सांख्य दर्शन के आचार्य कपिल का कहना है कि प्रकृति जड़ है, पुरुष चेतन, प्रकृति कर्ता है, पुरुष निष्क्रिय। प्रकृति के मोहजाल में फंस कर मनुष्य यह अहंकार पाल लेता है कि जो कुछ हो रहा है उसे मैं कर रहा हूं। इसी से उस पर कर्म का बंधन अपना शिकंजा कस लेता है। पुरुष अपना बिंब प्रकृति में देखने का अभ्यासी हो जाता है। फलस्वरूप वह दुख भोगता है। संसार के इस मोह बंधन से और प्रकृति के मोहजाल से निकल जाना मनुष्य मात्र के जीवन का उद्देश्य है। इसके लिए आवश्यक है कि पुरुष निर्लिप्त भाव से रहने और जीवन जीने की कला में पारंगत हो। इसी को अज्ञान जनित कर्म बंधन से छूट जाना कहा जाता है। अपने आपको खोजना और अपने आप को पा लेना ही कैवल्य या मोक्ष है।
खोजो अपने रूप को , जपो नाम दिन रैन।
पालोगे निज रूप को, पड़ेगा मन को चैन।।
आज के संसार के लोग अज्ञान जनित कर्म बंधन में फंसे हुए मारामार कर रहे हैं ।मोक्ष के बारे में सोचने तक का समय उनके पास नहीं है। इतने बड़े संसार में जब भौतिकवाद के कर्म बंधन में फंसे हुए लोग पथभ्रष्ट और धर्म भ्रष्ट हुए दु:खों की एक अंधेरी सुरंग में जा रहे हों, और इसी को जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मान रहे हो, तब पता चलता है कि आचार्य कपिल का ज्ञान इनके लिए कितना मूल्यवान हो सकता है?
आचार्य कपिल के अनुसार मोक्ष देने वाली शक्ति पुरुषोत्तम है।
इस पुरुषोत्तम को वैदिक वांग्मय में अन्यत्र परम पुरुष या ईश्वर कहा गया है।
सांख्य के विषय में हमें यह समझना चाहिए कि त्रिगुणात्मिका प्रकृति, पुरुष(परमात्मा और जीवात्मा) से भिन्न है, यह ज्ञान अथवा विचार ही ‘संख्या’ है। सांख्यशास्त्र के अनुसार पच्चीस तत्त्व हैं – प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्चतन्मात्र, ग्यारह इन्द्रियाँ, पञ्चमहाभूत और पुरुष । वास्तव में यह 25 तत्व ऐसे बीज हैं जिन्हें लेकर एक एक शब्द पर ही एक विस्तृत लेख लिखा जा सकता है, कहिए कि पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। इन सब तथ्यों को एक ग्रंथ में समाविष्ट करने वाले आचार्य कपिल को बारंबार नमन। हमें इस बात पर गर्व करना चाहिए कि ऐसा महान ऋषि हमारा पूर्वज है।
बीज में बरगद है, बस यही तो दर्शन है।
बीज नहीं तो कुछ नहीं, यह वेद का चिंतन है।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत