मार्च का महीना चला गया है और अप्रैल आ गया है। कहने का अभिप्राय है कि स्कूलों की मनमानी का समय आ गया है। अब नये बच्चों के प्रवेश पर और पुराने बच्चों को अगली कक्षा में भेजने के नाम पर हर स्कूल वाला अपनी मनमानी करेगा और अभिभावकों की जेब पर खुल्लम-खुल्ला डकैती डालेगा।
हर निजी स्कूल ने अपने ढंग से बड़ी भारी फीस निर्धारित कर रखी है। यही कारण है कि स्कूल चलने के दो चार वर्ष में ही स्कूलों के स्वामियों के महल किले जैसी आकृति के खड़े होने लगते हैं। स्कूलों के भवन भी किले जैसे ही बनते हैं और बड़ी महंगी-महंगी गाडिय़ां स्कूलों के स्वामियों के पास हो जाती हैं। वास्तव में इसका कारण ये है कि निजी स्कूल स्वामियों ने शिक्षा का निजीकरण न करके व्यापारीकरण कर दिया है। शिक्षा माफिया बड़ी तेजी से सक्रिय हुआ है और इसने ‘सर्व शिक्षा अभियान’ की सरकारी नीति को केवल ढकोसला बनाकर रख दिया है। साथ ही नि:शुल्क शिक्षा देने की संवैधानिक गारंटी का भी उपहास उड़ाया है। जिससे एक समानांतर शिक्षा व्यवस्था देश में चल गयी है और भारत की शासकीय और संवैधानिक शिक्षा व्यवस्था का इस समानांतर शिक्षा व्यवस्था ने अपहरण कर लिया है। इस समय हर अभिभावक यह समझ रहा है कि यदि निजी स्कूल में बच्चों को नहीं पढ़ाया तो बच्चा विकास की गति में पीछे रह जाएगा। वह आधुनिकता को समझ नही पाएगा और नौकरी पाने से भी वंचित रह जाएगा।
इन निजी स्कूलों के संचालक मंडल के सदस्य हों चाहे इनके प्राचार्य व अध्यापक अध्यापिकाएं हों-सभी पश्चिमी संस्कृति के रंग में रंगे होते हैं। उनकी ‘फ्रेंचकट’ दाढ़ी और पहनावे से लेकर शरीर की भावभंगिमा और बोलचाल सभी में पश्चिमी संस्कृति का पुट झलकता है। पूरे विद्यालय में विषय वासना का परिवेश होता है। छात्र-छात्राएं परस्पर अश्लील हरकतें करते देखे जा सकते हैं। उनका परस्पर वार्तालाप भी कई बार गरिमापूर्ण और संस्कारित नहीं होता। इसके पीछे एक कारण ये भी है कि इन निजी स्कूलों के प्राचार्य और अध्यापक अध्यापिकाएं भी पश्चिमी वासनामयी संस्कृति के कुसंस्कारों में पले बढ़े होते हैं। ये लोग भारत की नई पीढ़ी को केवल अक्षर ज्ञान दे रहे हैं और उसकी आत्मा का परिष्कार करने के लिए इनके पास कोई कार्य योजना नहीं है। इसका कारण ये है कि ‘आत्मा का परिष्कार’ किसे कहते हैं? ये बात इन स्कूलों के प्राचार्यादि स्वयं भी नहीं जानते।
शिक्षा के निजीकरण के कारण ही शिक्षा का पश्चिमीकरण और व्यापारीकरण हुआ है। जिसके पीछे केवल एक कारण रहा है कि यदि इन निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया गया तो बच्चों को नौकरी मिल सकती है। कहने का अभिप्राय ये है कि अभिभावकों को भी नौकरी वाला बच्चा चाहिए-उन्हें आचार्य कुल से ‘द्विज’ बनकर निकलने वाले संस्कारित पुत्र-पुत्री की आवश्यकता नहीं है। इसलिए वे भी इस अस्तव्यस्त व्यवस्था के लिए दोषी हैं। व्यापारीकरण की प्रक्रिया की ओर बच्चों को धकेलने के प्रयासों में लगे स्कूलों के प्रबंधक मंडल व प्राचार्यादि बच्चों को संयुक्त परिवारों की शिक्षा नहीं दे रहे हैं। वे उन्हें एकाकी और स्वार्थी बना रहे हैं। बच्चे भी अपने अध्यापकों को एकाकी और स्वार्थी जीवन जीते देखकर वैसा ही बनने का प्रयास करते हैं। इसके अतिरिक्त निजी स्कूलों में कार्य करने वाले अध्यापक अध्यापिकाएं ट्यूशन में अधिक विश्वास करते हैं। उनको निजी स्कूल बहुत कम वेतन देते हैं। ‘पूंजी श्रम पर शासन करती है’- पंूजीवाद का यह सिद्घांत इन स्कूलों में भी लागू होता है। एक पंूजीपति अपनी पूंजी से एक प्लाट लेता है-उस पर एक भवन खड़ा करता है और उसमें फिर अपनी मनमानी करते हुए कम वेतन पर अध्यापक-अध्यापिकाएं रखता है। उन्हें एक लालच देता है कि तुम ट्यूशन कर सकते हो। इस प्रकार ‘कांटै्रक्ट बेस’ पर अभिभावकों की खाल उतारने का खेल इन निजी स्कूलों में चलता रहता है।
पाठकवृन्द! देश का संविधान समाजवादी अर्थव्यवस्था का पोषक है और देश की शिक्षा व्यवस्था पूर्णत: पंूजीवादी अर्थव्यवस्था की पोषक है। कितना बड़ा मजाक हमारे साथ हो रहा है? आप ध्यान दें कि इसी द्वंद्वभाव ने ही हमारे संविधान को पंगु बनाकर रख दिया है। इसने परम्परागत छुआछूत, ऊंचनीच को मिटाने के स्थान पर नई बीमारियों को उत्पन्न कर दिया है। इस शिक्षा से जो लोग बड़े बन जाते हैं वे छोटों को हेय दृष्टि से देखते हैं और समाज में छुआछूत व ऊंचनीच को बढ़ावा देते हैं। उनकी दृष्टि में छोटों के प्रति घृणा के भाव स्पष्ट पढ़े जा सकते हैं। हमारा संविधान तो ऐसी शिक्षा व्यवस्था की बात नहीं करता। संविधान की हत्या हो रही है और हम बैठे देख रहे हैं। अच्छा हो प्रदेश में योगी और देश में मोदी इस शिक्षा व्यवस्था को मिटाने की दिशा में कोई ठोस कदम उठायें।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।