भारत के 50 ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 19 महान आयुर्वेदाचार्य ऋषि जीवक
महात्मा बुद्ध के जीवन काल में जीवक नाम के एक महात्मा रहते थे। आयुर्वेद के महान ज्ञाता जीवक उस समय के एक महान चिकित्सक माने जाते थे। अनेक असाध्य रोगों की चिकित्सा उनके पास उपलब्ध थी। इसके उपरांत भी बड़ी बात यह थी कि धन, कोठी, कार, बंगला की उन्हें कोई किसी प्रकार की इच्छा नहीं थी। चिकित्सा को सेवा का एक माध्यम मानकर बड़ी सादगी और विनम्रता के साथ लोगों का उपचार करते थे – जीवक। अपने व्यवसाय के प्रति समर्पण के इस पवित्र भाव ने ही उन्हें यश और कीर्ति से मालामाल कर दिया था। इसी में उन्हें संतोष था।
यह भी एक संयोग ही था कि जीवक की माता उस समय पाटलिपुत्र की एक प्रमुख गणिका हुआ करती थीं। उस समय भारत वर्ष में जातिवादी प्रथा नहीं थी। कर्म के आधार पर लोग व्यक्ति का मूल्यांकन किया करते थे। यही कारण था कि जीवक की माता क्या करती थी ? इस पर लोगों ने कभी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने जीवक की विद्वता और अपने कर्म के प्रति समर्पण के उनके भाव को सदा सम्मान दिया।
सत्कर्म करो, सत्कर्म करो – कर्म ही प्रबल है जग में।।
कर्म के कारण पूजा जाता जो भी जन जन्मा जग में।
कहा जाता है कि जीवक की माता ने उन्हें जन्म लेते ही कूड़ेदान में फेंक दिया था। इसका कारण यही रहा होगा कि माता को लोक लाज का डर सताया होगा। एक नवजात शिशु के इस प्रकार कहीं कूड़े के ढेर में पड़े होने का समाचार लोगों ने राजकुमार अभय को दिया। राजकुमार अभय बहुत ही धर्म प्रेमी थे। उन्हें जैसे ही किसी नवजात शिशु के इस प्रकार कूड़ेदान में पड़े होने का समाचार मिला तो उन्होंने उस शिशु को अपने राजगृह में मंगवा लिया। राजकुमार ने उस शिशु का नाम जीवक रखा और उसके लालन-पालन का पूर्ण ध्यान रखते हुए उसे वे सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई जो एक शिशु के लिए अपेक्षित होती हैं। राजकुमार अभय ने जीवक नाम के बालक के लालन पालन में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी।
बालक जीवक को जब अपने जन्म के विषय में जानकारी हुई कि वह किसी गणिका के पुत्र हैं और उन्हें जन्म के समय उनकी मां ने किसी कूड़ेदान में फेंक दिया था तो उन्हें राजगृह में रहते हुए लज्जा अनुभव होने लगी। यद्यपि राजकुमार की ओर से उनका भली प्रकार लालन-पालन किया जा रहा था , पर जीवक को वहां रुकना उचित नहीं लग रहा था। यही कारण था कि एक दिन वह बिना किसी को बताए राजमहल को छोड़कर चले गए।
उस समय तक्षशिला ज्ञान विज्ञान के केंद्र के रूप में अपना कीर्तिमान स्थापित कर रहा था। बालक जीवक ने भी तक्षशिला विश्वविद्यालय के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। उसके भीतर ज्ञान पिपासा थी, जिज्ञासा थी और कुछ कर गुजरने की विशेष प्रतिभा थी। ज्ञान पिपासा, जिज्ञासा और प्रतिभा – ये किसी भी व्यक्ति को चैन से नहीं बैठने देती हैं। ये व्यक्ति को पंख लगाती हैं और उसे ऊंची उड़ान भरने के लिए प्रेरित करती हैं ।
बालक जीवक प्रतिभा की उड़ान भर चुका था और अब उसे उसकी प्रतिभा की उड़ान के पंख तक्षशिला विश्वविद्यालय तक ले आए थे। वहां पर रहते हुए जीवक ने कई वर्षों तक निरंतर आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की और गहन अनुसंधान करते हुए वे आयुर्वेद में पारंगत हो गये। निरंतर कई वर्ष तक विद्याध्ययन करते हुए अब जीवक की परीक्षा की घड़ी आ चुकी थी। उनके गुरु जी ने जीवक की परीक्षा के लिए एक विशेष शर्त रखी। गुरुजी ने कहा कि तक्षशिला के आसपास के जंगल में उगने वाली वनस्पतियों में से कोई ऐसी वनस्पति खोज कर लाओ जो किसी रोग की औषधि ना हो। गुरुजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर जीवक ने एक योजन तक तक्षशिला के आसपास के जंगल को छान मारा। पर उन्हें कोई भी ऐसी वनस्पति नहीं मिली जो कि किसी रोग की औषधि ना हो या जो औषधीय गुणों से भरपूर ना हो।
वास्तव में प्राचीन काल में हमारे गुरुकुलों में दी जाने वाली शिक्षा में परीक्षा का यही आधार हुआ करता था। विद्यार्थियों के भीतर की प्रतिभा की जानकारी लेने के लिए गुरुजन कोई ना कोई ऐसी ही शर्त लगाया करते थे जिससे बच्चे के भीतर की पूर्ण प्रतिभा मुखरित होकर बाहर आए, अथवा उसकी जानकारी प्राप्त की जा सके। किसी भी विषय में 33% न्यूनतम अंक लेने के पश्चात उसे अगली कक्षा के लिए भेज देना परीक्षा का कोई उचित आधार नहीं है।
परीक्षा का आधार उचित है पड़ताल करो गहरी-गहरी।
मत बहको और मत बहकाओ बन बुद्धिमता के प्रहरी।।
जीवक ने लौटकर अपने गुरु जी को स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि “गुरुजी ! उन्हें पूरे जंगल में कहीं पर भी कोई ऐसी वनस्पति नहीं मिली जिसमें कोई न कोई औषधीय गुण ना हो।” गुरुजी भी अपने इस मेधावी छात्र से यही सुनना चाहते थे। उन्हें अपने छात्र के मुख से ऐसे शब्द सुनकर असीम प्रसन्नता की अनुभूति हुई।
इसके पश्चात गुरु जी ने उन्हें परीक्षा में उत्तीर्ण घोषित किया। तत्पश्चात जीवक अपने गुरु जी से विदा लेकर साकेत अर्थात आधुनिक अयोध्या पहुंचे। तत्कालीन अयोध्या के एक सुप्रसिद्ध व्यापारी की पत्नी पिछले 7 वर्ष से असाध्य रोग से पीड़ित थी। जब उस व्यापारी को यह जानकारी हुई कि एक आयुर्वेदाचार्य इस नगर में पधारे हैं तो उन्होंने जीवक से अपनी पत्नी के उपचार के लिए निवेदन किया। जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उस व्यापारी की पत्नी का इससे पहले कई चिकित्सकों के द्वारा उपचार किया जा चुका था, पर किसी को भी उनके रोग पर विजय प्राप्त नहीं हुई थी। इसके विपरीत उसकी स्थिति और अधिक गंभीर होती जा रही थी। व्यापारी भी निराश हो चुका था।
जीवक ने उसने महिला का उपचार करना आरंभ किया और उसे शीघ्र ही पूर्णतया स्वस्थ कर दिया। उस समय जीवक के पास यात्रा के लिए न तो कोई साधन था और नहीं भोजन पानी आदि की व्यवस्था के लिए धन की व्यवस्था थी। उस व्यापारी ने अपनी पत्नी के सफल उपचार से प्रसन्न होकर जीवक को पर्याप्त धनराशि पुरस्कार के रूप में प्रदान की। व्यापारी ने जीवक को यात्रा के लिए रथ , दास और दासी देकर अपने यहां से पूर्ण सम्मान के साथ विदा किया।
अब जीवक ने अपने रथ को सीधे राजगृह की ओर दौड़ा दिया।
उन्हें राजकुमार अभय की दयालुता और उपकार भावना का रह रहकर स्मरण आता था। यही कारण था कि वह अब अपने प्राणदाता राजकुमार अभय से मिलकर उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहते थे। उन्होंने व्यापारी से प्राप्त सारे धन को राजकुमार अभय को सौंप दिया। उस समय राजकुमार अभय के पिता राजा बिंबसार भी गंभीर रोग से पीड़ित थे। उन्हें भी किसी योग्य चिकित्सक की आवश्यकता थी। यह एक शुभ संयोग ही था कि जिस समय राजा उस रोग से पीड़ित होकर जीवन की निराशा निशा में प्रवेश कर चुके थे उसी समय आशा की एक गहरी किरण के रूप में जीवक का राजगृह में प्रवेश हुआ। राजकुमार अभय ने जीवक को अपने पिता की भगंदर जैसी गंभीर बीमारी के विषय में बताया तो जीवक ने राजा बिंबसार का भी उपचार करना आरंभ कर दिया।
कहा जाता है कि जीवक ने राजा की गंभीर बीमारी का पता लगाकर उसके लिए एक लेप तैयार किया और राजा एक बार के लेप करने से ही स्वस्थ हो गए। राजा अपने आप को स्वस्थ देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। वह इस बात को लेकर आश्चर्यचकित भी थे कि जिस बीमारी को वह और उनके राजवैद्य तक असाध्य मान चुके थे, उसका सफल उपचार जीवक ने कर दिया था। राजा ने प्रसन्न होकर जीवक को उपहार में कई प्रकार के रत्न और आभूषण प्रदान किए । इसके साथ-साथ उन्हें अपना राजवैद्य और महात्मा बुद्ध का चिकित्सक भी नियुक्त कर दिया।
जीवक द्वारा जब राजा बिंबसार की सफल चिकित्सा की गई तो उनका यश दूर-दूर तक फैल गया। सर्वत्र उनकी कार्यनिष्ठा की चर्चा होती थी और आयुर्वेद के माध्यम से जिस प्रकार वह नि:स्वार्थ भाव से लोगों का उपचार कर रहे थे उसकी भी प्रशंसा सर्वत्र होने लगी थी। एक बार की बात है कि उज्जैन के राजा भी किसी अज्ञात और गंभीर बीमारी की चपेट में आ गए। तब उन्होंने भी अपनी इस गंभीर बीमारी के उपचार के लिए जीवक को बुला लिया। बताया जाता है कि उस राजा को घी से बहुत घृणा थी। जब जीवक ने राजा का उपचार करना आरंभ किया तो उन्होंने उनकी औषधि में घी का भी प्रयोग किया। स्वस्थ होने पर जब राजा को यह पता चला कि उन्हें औषधि में घी दिया गया है तो वह अत्यंत क्रुद्ध हुए। तब तक जीवक उस राजा के राजभवन से बाहर निकल चुके थे।
राजा ने अपने सैनिक भेजकर जीवक को बंदी बनाकर अपने समक्ष उपस्थित करने का आदेश दिया। सैनिकों ने राजभवन से दूर निकल चुके जीवक का पीछा किया और उसे पकड़कर बंदी बनाने में सफल हो गए। जिस समय सैनिकों ने जीवक को गिरफ्तार किया था उस समय वह बहेड़ा खा रहे थे। उन्होंने राजा के द्वारा भेजे गए सैनिकों को संकेत से बैठने का निर्देश दिया। सैनिकों को भी यह विश्वास था कि जीवक अब उनकी गिरफ्त से भागने वाला नहीं है। फलस्वरूप वे इस आशा से बैठ गए कि जैसे ही जीवक बहेड़ा खा लेगा तो वे उसे गिरफ्तार कर लेंगे। तब जीवक ने राजा के उन सैनिकों को भी बहेड़ा खाने के लिए दिया।
जीवक द्वारा दिया गया बहेड़ा खा लेने के पश्चात राजा के उन सैनिकों की स्थिति बिगड़ने लगी। सैनिकों को दस्त होने लगे और भयंकर पेट-दर्द से वह अत्यंत व्याकुल हो गए। उन्होंने आचार्य जीवक से प्राण-रक्षा की अपील करनी आरंभ की। सैनिकों को यह लग रहा था कि यदि उन्हें सही उपचार नहीं मिला तो उनके प्राण भी जा सकते हैं। जीवक ने उनकी बिगड़ी हुई स्थिति को सुधारने के लिए एक शर्त लगा दी।
जीवक ने कहा कि वे उन्हें स्वस्थ तो कर देंगे पर सैनिकों को उन्हें बिना गिरफ्तार किए ही अपने राजा के पास लौटना होगा। राजा के उन सैनिकों ने अपनी प्राण रक्षा के लिए जीवक की इस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया। जब जीवक ने यह समझ लिया कि अब यह सैनिक उसे गिरफ्तार नहीं करेंगे और चुपचाप अपने राजा के पास लौट जाएंगे तो उन्होंने उन सैनिकों को एक ऐसी औषधि प्रदान की, जिसके लेने से वे सैनिक तुरंत स्वस्थ हो गए।
उधर उज्जैन-नरेश जीवक की औषधि से पूर्ण स्वस्थ हो चुके थे। अब राजा को यह भी पता चल गया था कि उसने जीवक को गिरफ्तार करने के लिए सैनिकों को भेजकर अच्छा नहीं किया।
जब सैनिक राजा के पास लौटे तो उन्होंने भी राजा को अपने साथ बीती हुई घटना का सारा सच यथावत बता दिया। राजा को सैनिकों के साथ हुई घटना के बारे में सुनकर और भी अधिक आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हुई। सैनिकों से उनकी आपबीती सुनकर राजा को और भी अधिक पश्चात्ताप हुआ । तब प्रायश्चित के सागर में डूबे राजा ने उस अवस्था से उबरने के लिए बहुमूल्य वस्तुएँ जीवक को उपहारस्वरूप भेजीं। जीवक साधु स्वभाव के थे। उन्हें अपेक्षा से अधिक किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती थी। एक वीतराग योगी की भांति वह जीवन जी रहे थे। जिसके चलते सांसारिक ऐश्वर्य और भोग सामग्री उन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते थे।
वीतराग योगी जैसा जीवन जीवक जीता था।
अनुकूल पदारथ को ही खाता और पीता था।।
जीवक का यह सिद्धांत था कि वह पास कुछ नहीं रखते थे। यही कारण था कि उज्जैन के राजा ने जितने भर भी उपहार उनके लिए भेजे थे उन्होंने वे सभी उपहार महात्मा बुद्ध को भेंट कर दिए। महात्मा बुद्ध उस समय लोकोपकार का कार्य कर रहे थे। ऋषि जीवक ने उनके लिए यह सारे उपहार इसीलिए भेजे थे कि उनके पास जाने से इनसब का सदुपयोग हो जाना संभव था।
वे जानते थे कि अपेक्षा से अधिक वस्तुओं के संग्रह से उनमें मोह बढ़ता है जो कि विनाश का कारण बनता है।
ऋषि जीवक औषधीय चिकित्सा के साथ शल्य चिकित्सा में भी पारंगत थे। कहा जाता है कि एक बार महात्मा बुद्ध भी उदर रोग से गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। तब इस महान आयुर्वेदाचार्य ने महात्मा बुद्ध के उदर रोग का भी उपचार किया था। उनके उपचार के उपरांत महात्मा बुद्ध भी पूर्णतया स्वस्थ हो गए थे। ऋषि जीवन की यह विशेषता थी कि वे निर्धन लोगों का निशुल्क उपचार किया करते थे और धनिक लोगों से प्राप्त धनराशि को वेब लोक कल्याण के लिए बांट दिया करते थे।राजा बिंबसार के पश्चात वे अजातशत्रु के भी राजवैद्य बने थे। यह भी मान्यता है कि आयुर्वेदाचार्य जीवक के प्रभाव में अजातशत्रु ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। बौद्ध ग्रंथों और समकालीन साहित्य से यह भी पता चलता है कि जीवक बाल रोग चिकित्सा में भी निपुण थे।
निश्चय ही हमको अपने प्राचीन ऋषियों के जीवन से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।
राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत