चीन-अमेरिका की लड़ाई में भारत का फायदा, एडवांस्ड टेक्नॉलजी में चीन का बनेगा विकल्प!
रंजीत कुमार
आपके कंप्यूटर या स्मार्टफोन में जो सेंट्रल प्रॉसेसिंग यूनिट (CPU) है, उसे इनका दिमाग कहा जाता है। इसमें जो मेमरी चिप लगाई जाती है, उसका साइज घटकर 0.7 नैनोमीटर तक रह गया है। यानी एक मीटर का अरबवां हिस्सा। इंसानी बाल की मोटाई भी इससे कई गुना ज्यादा होती है। CPU के अत्यधिक पतला होने से प्रॉसेसर बेहद छोटा हो जाता है। साथ ही, इसमें कहीं अधिक डेटा स्टोर होता है। इससे बैटरी की खपत भी घटती है। अमेरिका ने ऐसे ही 0.7 नैनोमीटर वाले सेमीकंडक्टर चिप्स बनाने वाली लिथोग्राफी मशीन का चीन को निर्यात नहीं करने की सलाह नीदरलैंड को कुछ समय पहले दी। वैसे तो चीन ने भी इस साइज की मेमरी चिप्स बनाने का दावा किया है, लेकिन अभी तक वहां इसका औद्योगिक इस्तेमाल नहीं दिखा है। चीनी कंपनियां फिलहाल 22 नैनोमीटर के चिप्स ही बनाती हैं। आखिर, चीन पर पश्चिमी देशों की इस सख्ती का क्या मतलब है?
तकनीक पर पाबंदी
0.7 नैनोमीटर चिप्स का इस्तेमाल सुपरकंप्यूटरों को अधिक सक्षम बनाने में किया जा सकता है। इसीलिए अमेरिका ने चीन को एडवांस्ड सेमीकंडक्टर चिप्स बनाने वाली तकनीक और मशीनों के निर्यात पर रोक लगाई है।
इन मेमरी चिप्स का इस्तेमाल अंतरिक्ष, रक्षा व इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में भी होता है। अमेरिका को डर है कि इनकी बदौलत चीन उच्च तकनीकी उत्पादों के क्षेत्र में उससे आगे निकल सकता है।
इसलिए अमेरिका ने चीन को खुद एडवांस्ड टेक्नॉलजी देना तो बंद किया ही, सहयोगी देशों से भी इस पाबंदी पर अमल सुनिश्चित करने की अपील की।
अमेरिका के इस कदम से चीन में मेमरी चिप्स बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी यांग्चे मेमरी टेक्नॉलजी कॉरपोरेशन का धंधा चौपट होने लगा है। इसके साथ, चीन में जो एडवांस्ड टेक्नॉलजी से चलने वाले कारखाने हैं, उन पर भी इस पाबंदी का बुरा असर हुआ है।
क्यों हुई सख्ती
सेमीकंडक्टर चिप्स तो सिर्फ एक चीज हुई। चीन को इसी तरह के कई अन्य उच्च तकनीक वाले प्रॉडक्ट्स के निर्यात पर भी पिछले कुछ महीनों में रोक लगाई गई है।
कुछ साल पहले आशंका जताई गई थी कि चीन 5-जी की दूरसंचार तकनीकी क्षमता वाले मोबाइल फोन और अन्य दूरसंचार उपकरणों के जरिये प्रतिद्वंद्वी देशों के संवेदनशील आंकड़े हासिल कर सकता है। इसलिए तब अमेरिका और इसके साथी यूरोपीय, एशियाई देशों ने चीन की हुवावे, जेडटीई जैसी कंपनियों को अपने यहां प्रतिबंधित कर दिया था।
यह दोनों खेमे के बीच टेक्नॉलजी वॉर की शुरुआत थी, जो पिछले कुछ महीनों में काफी तेज हुई है।
इस युद्ध को चीन और अमेरिका के बीच चल रही सामरिक और कूटनीतिक होड़ का ही विस्तार कहा जा सकता है।
भारत का फायदा
दरअसल, चीन आसपास के समुद्री इलाकों में दबदबा स्थापित करना चाहता है। इसके लिए उसने जो आक्रामक तेवर अपनाया है, उसके खिलाफ अमेरिका सहयोगी देशों के साथ लामबंदी में जुट गया है। अमेरिका का मानना है कि चीन पर लगे तकनीकी प्रतिबंध से वहां काम कर रही कई अमेरिकी कंपनियां भी प्रभावित हो सकती हैं। वहीं, चीन में ऐसे उपकरणों की सप्लाई रुकने से उसके और सहयोगी देशों की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ सकता है। इसलिए ये भारत को चीन का विकल्प बनाना चाहते हैं।
अमेरिका चाहता है कि एडवांस्ड टेक्नॉलजी सिर्फ सहयोगी देशों के साथ साझा की जाए। इस वजह से अमेरिका की वाणिज्य मंत्री गीना रैमैंडो ने भारत के साथ सेमीकंडक्टर के क्षेत्र में सहयोग का समझौता किया है।
भारत ने अन्य देशों के साथ भी इसी तरह के द्विपक्षीय सहयोग और निवेश की संभावनाओं पर चर्चा शुरू की है। इसी कड़ी में ताइवान की फॉक्सकॉन ने भारत में कुछ अरब डॉलर की लागत से सेमीकंडक्टर यूनिट लगाने का ऐलान किया है।
सेमीकंडक्टर के अलावा कई तरह के रेयर अर्थ यानी दुर्लभ खनिजों के उत्पादन और सप्लाई के लिए भी अमेरिका और उसके साथी देश भारत को चीन के विकल्प के तौर पर देख रहे हैं। इसका लाभ उठाने के लिए भारत ने जापान, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय देशों के साथ द्विपक्षीय सहयोग समझौतों के अलावा बहुपक्षीय स्तर पर भी सहयोग संधियों को व्यवहार में लाने की पहल तेज की है।
बहुपक्षीय आधार पर चार देशों वाले क्वॉड के सदस्य देशों के बीच क्रिटिकिल एंड इमर्जिंग टेक्नॉलजी ग्रुप का गठन किया गया है। इसकी बैठकों में भारत को संवेदनशील तकनीक वाले उत्पादों के केंद्र बनाने के बारे में भी चर्चा हुई है।
दरअसल, हिंद-प्रशांत को लेकर चीन बहुत आक्रामक है। इस इलाके में उसकी मनमानी रोकने के लिए अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत ने क्वॉड का गठन किया। इसके सदस्य देश भारत को भरोसेमंद साझेदार मानते हैं। इसलिए उन्होंने एडवांस्ड टेक्नॉलजी के क्षेत्र में भारत को मजबूत बनाने की पहल शुरू की है। इससे भारत के समक्ष सुनहरा मौका बना है। कभी सोवियत खेमे में शामिल माने जाने और स्वतंत्र परमाणु कार्यक्रम चलाने के कारण भारत पिछली सदी के उत्तरार्ध में कई तरह के तकनीकी प्रतिबंधों का शिकार रहा है। इससे उसकी ग्रोथ पर बुरा असर पड़ा। लेकिन बदले भू-राजनीतिक समीकरण में उसके लिए हालात माकूल हो गए हैं।
अमेरिका, जापान से पंगा
अस्सी और नब्बे के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ के मुकाबले चीन को खड़ा करने के इरादे से अमेरिका, जापान और यूरोपीय देशों ने न केवल चीन में उच्च तकनीक उत्पादों वाले कारखाने खोले बल्कि चीनी कंपनियों को ऐसी टेक्नॉलजी भी दी। अमेरिकी तकनीक की बदौलत ही चीन बड़ी सैन्य और आर्थिक ताकत बना। आज वही चीन अमेरिका और जापान को आंखें दिखा रहा है। इसलिए अमेरिका आज भारत को खड़ा करना चाहता है। भारत को इसका फायदा उठाना चाहिए। इससे उसे 2047 तक विकसित देश बनने का सपना पूरा करने में मदद मिलेगी।