दादा बस्तीराम आर्योपदेशक
लेखक :- स्वामी ओमानन्द सरस्वती
पुस्तक :- देश भक्तों के बलिदान
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा
[यह लेख वयोवृद्ध पूजनीय पंडित बस्तीराम जी का है जिसे मैंने भालोठ ग्राम में उनके पास 2 दिन बैठकर लिखा था कुछ लोगों का कहना है कि पंडित जी सन् 57 के युद्ध के समय 17 या 18 वर्ष की आयु के थे । उन्होंने युद्ध के हालात समय अपनी आंखों से देखे हैं तथा कानों से सुने हैं। कुछ लोग उस समय कहते थे कि पंडित जी की आयु 100 वर्ष से भी कम है मेरा अनुमान है यह पंडित जी की आयु 100 वर्ष के लगभग थी । अधिक भी हो सकती है । कुछ भी हो सकता है । पंडित जी अपनी आयु पूछने पर बताते नहीं थे । अतः यह विवशता है । किंतु पंडित जी ने युद्ध की घटनाएं मुझे बहुत प्रसन्नचित्त होकर सुनाई । वे सुनाने में और मैं सुनने में बड़ा रस लेते थे। इस बड़ी आयु में भी पंडित जी की स्मरण शक्ति बहुत अच्छी थी । जो कुछ आपकी कृपा से मुझे सुनने को मिला है पाठकों के सेवा में समर्पित करता हूं]
—स्वामी ओमानंद
सम्वत् 11 में यह प्रसिद्ध हो गया था कि सेना में हिंदू सैनिकों से गाय की चर्बी लगे हुए तथा मुसलमानों से सूअर की चर्बी लगे हुए कारतूस मुख से तुड़वाए जाएंगे ।कलकत्ते में भंगी जामुन और आम के वृक्षों के नीचे सूखे हुए पत्तों को जलाने के लिए मोल ले लेता था । उसी समय सेना के कुछ घुड़सवार सैनिक उधर भ्रमण करते हुए पहुंचे । सायंकाल का समय था, वह जल की पिपासा से व्याकुल थे।उन्होंने जल पीने की इच्छा प्रकट की पास ही एक कुआं था, भंगी उनको उस कुवें में पर ले गया और समय अपने हाथ से पानी खींच कर पिलाने के लिए तैयार हो गया । किंतु वह घुड़सवार अपने आप को ऊंची जात के हिंदू समझकर भंगी को यह कहने लगे कि आप अछूत हैं, आपके हाथ का जल हम कैसे पिएंगे ? हम जल स्वंय खींचकर पी लेंगे । फिर भंगी ने कहा अब ऊंच-नीच कहां रह गया । जब आप लोग गौ की चर्बी से बने हुए कारतूस को मुख से तोड़ेंगे । मेरे हाथ से जल पीने से आपका क्या बिगाड़ेगा ? वे सैनिक यह बात सुनकर बार-बार आग्रह पूर्वक पूछने लगे क्या यह बात यथार्थ में सच्ची है ? उस भंगी ने सैनिकों को दृढ़ता पूर्वक निश्चय कराया कि यह बात मैंने स्वंय आंखों से देखी है कि कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी लगाई जाती है। फिर क्या था कारतूस वाले समाचार भारत के सभी रिशालों और पल्टनों में फैल गये। उस समय सर्वत्र यह समाचार फैलाए गए थे । उन्हीं दिनों अंग्रेज ने मेरठ में सभी सैनिकों का एक दरबार किया और फौज के अंग्रेज अफसरों ने सभी सैनिकों को यह आज्ञा दी कि चर्बी लगे हुए कारतूस सभी सैनिकों को अपने मुख से तोड़ने होंगे। उस समय तो सैनिकों ने कारतूस को तोड़ना ना तो स्वीकार ही किया और न ही इसका निषेध है ।उन्होंने कहा यह हमारे धर्म का विषय है अतः हमें विचारने के लिए समय चाहिए । अंग्रेज अफसर हट कर रहे थे और उसी समय चर्बी वाले कारतूस बलपूर्वक सब सैनिकों से उनके मुख से तुडयवाया चाहते थे। सैनिकों की इच्छा थी कि न्यून न्यून हमें 10 मई तक विचारने का समय मिलना चाहिए किंतु उन्हें समय नहीं दिया। इस विषय में मैंने मेरठ के समाचार लिखते हुए पृथक लिखा है । सब सैनिकों ने अपने समाचार बहादुर शाह के पास दिल्ली भेज दिए । ऐसा सुना जाता है कि बहादुर शाह ने आज्ञा दे दी कि अंग्रेज दिन में खलल उन्हें देश से निकाल दो।
सैनिकों को विवश होकर शीघ्रता करनी पड़ी और रविवार का दिन निश्चित करके आधे ने तो अंग्रेजों के बंगले पर हमला कर दिया और आधे सैनिकों ने शस्त्रागार (मैगजीन) पर अधिकार करने के लिए चढ़ाई कर दी । निश्चय तो यह किया गया था कि केवल अंग्रेजों को पकड़ना है, मारना नहीं । किंतु यह न हो सका। लोग अंग्रेजों के अत्याचारों के कारण बहुत दुखी थे। प्रति हिंसा व प्रतिकार की भावना जाग उठी और अंग्रेज मारे गए। इस क्रांति की आग बहुत शीघ्र भारतवर्ष में फैल गई। उसमें हरियाणा प्रांत के अनेक भागों में गुड़गांव, रेवाड़ी, रोहतक आदि में अनेक घटनाएं घटी। उनमें से एक पर जैसा पंडित बस्तीराम जी ने बताया आपकी सेवा में उपस्थित करता हूं ।
(झज्जर के नवाब)
1857 में हरयाणा में उस समय अनेक राजा राज्य करते थे । झज्जर इलाके में अब्दुल रहमान खां नवाब की नवाबी थी । झज्जर प्रान्त झज्जर, बादली, दादरी, नारनौल, बावल और कोटपुतली आदि परगनों में विभाजित था । झज्जर का नवाब जवान किन्तु भीरू प्रकृति का था । सदैव नाच-गान, राग-रंग व भोग-विलास में ही फंसा रहता था । इसके दुराचार से प्रजा उस समय प्रसन्न नहीं थी, फिर भी उसका राज्य अंग्रेजों की अपेक्षा अच्छा था । ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी नवाब के बख्शी थे । दीवान रामरिछपाल झज्जर निवासी नवाब के कोषाध्यक्ष (खजान्ची) थे । नवाब प्रकट रूप से तो दिल्ली बादशाह बहादुरशाह की सहायता कर रहा था क्योंकि हरयाणा की सारी जनता इस स्वतन्त्रता युद्ध में बड़े उत्साह से भाग ले रही थी । अतः नवाब भी विवश था किन्तु भीरु होने के कारण उसे यह भय था कि कभी अंग्रेज जीत गए तो मेरी नवाबी का क्या बनेगा । इसलिए गुप्त रूप से धन से अंग्रेजों की सहायता करना चाहता था । अपने दीवान मुन्शी रामरिछपाल द्वारा 22 लाख रुपये इसने अंग्रेजों को सहायता के लिए गुप्त रूप से भेजने का प्रबन्ध किया । मुन्शी रामरिछपाल ने ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी को जो एक प्रकार से झज्जर राज्य के कर्त्ता-धर्त्ता थे, यह भेद बता दिया । ठाकुर स्यालुसिंह ने मुन्शी रामरिछपाल को समझाया कि नवाब तो भीरु और मूर्ख है । अंग्रेजों को रुपया किसी रूप में भी नहीं मिलना चाहिये । हम दोनों बांट लेते हैं । उन दोनों ने ग्यारह-ग्यारह लाख रुपया आपस में बांट लिया, अंग्रेजों के पास नहीं भेजा ।
ठाकुर स्यालुसिंह ने उस समय यह कहा – यदि अंग्रेज जीत गए तो नवाब मारा जायेगा, हमारा क्या बिगाड़ते हैं, यदि अंग्रेज हार ही गये तो हमारा बिगाड़ ही क्या सकते हैं । नवाब के भीरु और चरित्रहीन होने का कारण लोग यों भी बताते हैं कि नवाब अब्दुल रहमान खां किसी बेगम के पेट से उत्पन्न नहीं हुआ किन्तु वह किसी रखैल स्त्री (वेश्या) का पुत्र था । उसके विषय में एक घटना भी बताई जाती है । इसके चाचा का नाम समद खां था । नवाब ने अपने इसी चाचा की लड़की के साथ विवाह किया था । समदखां इससे अप्रसन्न रहता था, इससे बोलता भी नहीं था । समदखां वैसे बहादुर और अभिमानी था । एक दिन नवाब ने अपनी बेगम को जो समदखां की लड़की थी, चिढ़ाने की दृष्टि से यह कहा कि समदखां की औलाद की नाक बड़ी लम्बी होती है । उसी समय बेगम ने जवाब दिया – जब मेरा विवाह (वेश्यापुत्र) आपके साथ हो गया तो क्या अब भी समदखां की औलाद की नाक लम्बी रह गई ? नवाब ने इसी बात से रुष्ट होकर बेगम को तलाक दे दिया । समदखां नवाब से पहले ही नाराज था, इस बात से वह और भी नाराज हो गया । वह नवाब से सदैव रुष्ट रहता था और कभी बोलता नहीं था । उन्हीं दिनों अंग्रेज फौजी अफसर मिटकाफ साहब जो आंख से काना था, किन्तु शरीर से सुदृढ़ था, छुछकवास अपने पांच सौ सशस्त्र सैनिक लेकर पहुंच गया और झज्जर नवाब की कोठी में ठहर गया । वहां नवाब झज्जर को मिलने के लिए उसने सन्देश भेजा । झज्जर का नवाब मिटकाफ साहब से मिलने के लिए हथिनी पर सवार होकर जाना चाहता था । उसकी ‘लाडो’ नाम की हथिनी थी, उसने सवारी के लिए उसे उठाना चाहा किन्तु हथिनी हठ कर के बैठ गई, उठी ही नहीं । नवाब के चाचा समदखां ने कहा – हैवान हठ करता है, खैर नहीं है, आप वहां मत जाओ । नवाब ने उत्तर दिया – आप नवाब होकर भी शकुन अपशकुन मानते हैं ? समदखां ने कहा हमने तेरे से बोलकर मूर्खता की । नवाब हथिनी पर बैठकर छुछकवास चला गया । मिटकाफ साहब ने वहां नवाब का आदर नहीं किया । नवाब हथिनी से उतरकर कुर्सी पर बैठना चाहता था किन्तु मिटकाफ ने नवाब को आज्ञा दी कि अपका स्थान आज कुर्सी नहीं अपितु काठ का पिंजरा है, वहां बैठो । नवाब को काठ के पिंजरे में बन्द करके दिल्ली पहुंचा दिया गया । वहां झज्जर के नवाब को और बल्लभगढ़ के राजा नाहरसिंह तथा लच्छुसिंह कोतवाल को जो दिल्ली का निवासी था, फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया ।
बहादुरशाह के विषय में उन दिनों एक होली गाई जाती थी । यह होली ठाकुरों, नवाबों, राजे-महाराजों के यहां नाचने वाली स्त्रियां गाया करतीं थीं ।
टेक –
मची री हिन्द में कैसो फाग मचो री ।
बारा जोरी रे हिन्द में कैसो फाग मचो री ॥
कली –
गोलन के तो बनें कुङ्कुमें, तोपन की पिचकारी ।
सीने पर रखा लियो मुख ऊपर, तिन की असल भई होरी ।
शोर दुनियां में मचो री हिन्द में कैसो फाग मचो री ॥
बहादुरशाह दीन के दीवाने, दीन को मान रखो री ।
मरते मरते उस गाजी ने, दीन दी देन कहो री ॥
दीन वाको रब न रखो री, हिन्द में कैसो फाग मचो री ॥
नवाब झज्जर के पकड़े जाने पर उसका चाचा समदखां और बख्शी ठाकुर स्यालुसिंह कई सहस्र सेना लेकर काणोड के दुर्ग (गढ़) को हथियाने के लिए आगे बढ़े । रिवाड़ी की तरफ से राव तुलाराम, राव श्री गोपाल और गोपालकृष्ण सहित जो रामपुरा के आसपास के राजा थे, बड़ी सेना सहित काणोड के गढ़ की ओर बढ़े । काणोड वही स्थान है जिसे आजकल महेन्द्रगढ़ कहते हैं । अंग्रेज भी अपनी सेना सहित उधर बढ़ रहे थे । जयपुर आदि के नरेशों ने अपनी सात हजार सैनिकों की सेना जो नागे और वैरागियों की थी, अंग्रेजों की सहायतार्थ भेजी । नवाब झज्जर और राव तुलाराम की सेना दोनों ओर से बीच में घिर गई । नारनौल के पास लड़ाई हुई, हरयाणे के सभी योद्धा बड़ी वीरता से लड़े । राव कृष्णगोपाल और श्री गोपाल वहीं लड़ते लड़ते शहीद हो गये । राव तुलाराम बचकर काबुल आदि के मुस्लिम प्रदेशों में चले गये । सहस्रों वीर इस आजादी की लड़ाई में नसीरपुर की रणभूमि में खेत रहे ।
युद्ध के पश्चात् शान्ति हो जाने पर अंग्रेजों ने भीषण अत्याचार किये । अंग्रेज सैनिक लोगों को पकड़ पकड़ कर सारे दिन तक इकट्ठा करते थे और सायंकाल 3 बजे के पश्चात् सब मनुष्यों को तोपों के मुख पर बांध कर गोलियों से उड़ा दिया जाता था । ठाकुर स्यालुसिंह को भी परिवार सहित गिरफ्तार करके गोली से उड़ाने के लिए पंक्ति में खड़ा कर दिया । उस समय एक अंग्रेज जो जीन्द के महाराजा का नौकर था, जो पहले झज्जर भी नवाब के पास नौकरी कर चुका था, वह ठाकुर स्यालुसिंह का मित्र था । वह झज्जर आया हुआ था । उसने ठाकुर स्यालुसिंह को अपने परिवार सहित पंक्ति में खड़े देखा । उसने ठाकुर साहब से पूछा क्या बात है ठाकुर साहब ? ठाकुर साहब ने उत्तर दिया मेरे साथ अन्याय हो रहा है । नवाब ने तो मुझे अंग्रेजों का वफादार समझकर मेरी गढ़ी को |कुतानी में तोपों से उड़ा दिया और आज मैं नवाब का साथी समझकर परिवार सहित मारा जा रहा हूं । यदि मैं अंग्रेज का शत्रु था तो मेरी गढ़ी नवाब द्वारा तोपों से क्यों उड़ाई गई और मैं नवाब का शत्रु हूं तो मुझे क्यों परिवार सहित गोली का निशाना बनाया जा रहा है ? यह सब सुनकर उस अंग्रेज की सिफारिश पर स्यालुसिंह को छोड़ दिया गया और उसे निर्दोष सिद्ध करने का प्रमाण देने के लिए वचन लिया गया । वह घोड़े पर सवार हो नंगे शरीर ही दिल्ली, चौधरी गुलाबसिंह बादली निवासी के पास पहुंचा । वह उस समय अंग्रेजों की नौकरी करता था । पहले ठाकुर स्यालुसिंह ने बादली से चौ. गुलाबसिंह को निकाल दिया था । फिर भी ठाकुर स्यालुसिंह के बार बार प्रार्थना करने पर चौ. गुलाबसिंह ने सहायता करने का वचन दे दिया और उसने ठा. स्यालुसिंह की गवाही देकर अपकार के बदले में उपकार किया । ठा. स्यालुसिंह का एक भाई ठा. शिवजीसिंह सेना में दानापुर में अंग्रेजों की सेना में सूबेदार था, उसने भी ठा. स्यालुसिंह की सहायता की । इस प्रकार ठा. स्यालुसिंह का परिवार बच गया । ठाकुर साहब के परिवार के लोग आज भी कुतानी व धर्मपुरा आदि में बसते हैं । उन्हीं में से ठा. स्वर्णसिंह जी आर्यसमाजी सज्जन हैं, जो धर्मपुरा में भदानी के निकट बसते हैं ।
झज्जर मे नवाब की नवाबी को तोड़ दिया गया और भिन्न-भिन्न प्रान्तों में बांट दिया गया, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है । अंग्रेज कोटपुतली को जयपुर नरेश को देना चाहते थे किन्तु उनके निषेध कर देने पर खेतड़ी नरेश को दे दिया गया ।
बहादुरगढ़ में भी उस समय नवाब का राज्य था । सिक्खों की सेना जो 12 हजार की संख्या में थी, बहादुरगढ़ डेरा डाले पड़ी थी । हरयाणा के वीरों ने इसे आगे बढ़ने नहीं दिया । सिक्खों की सेना ग्रामों से भोजन सामग्री लूटकर अंग्रेजों की सहायता करती थी । उस समय कुछ नीच प्रकृति के मुसलमान भी चोरी से जनाजा (अर्थी) निकालकर मांस, अन्न, रोटी छिपाकर अंग्रेज सेना को बेच देते थे । उस समय एक-एक रोटी एक-एक रुपये में बिकती थी, जल भी बिकता था । कोतवाल लच्छुसिंह ने इस बात को भांप लिया । उस ने उन नीच मुसलमानों को जो काले पहाड़ पर घिरी हुई अंग्रेजी सेना को अन्न मांस बेचकर सहायता करते थे, पकड़वा कर मरवा दिया । अंग्रेजों ने इसी कोतवाल लच्छुसिंह, नरेश नाहरसिंह तथा नवाब झज्जर को इन्दारा कुंए के पीपल के वृक्ष पर बांधकर फांसी दी थी ।
सन् 1857 के युद्ध के बाद बहादुरगढ़, बल्लभगढ़, फरुखनगर, झज्जर आदि की रियासतें समाप्त कर दीं । लोहारू, पटौदी, दुजाना की रियासतें रहने दीं । इसके बाद 1858 में हरयाणा को आगरा से निकाल कर सजा के तौर पर पंजाब के साथ जोड़ दिया । दिल्ली को कमिश्नरी का हैडक्वार्टर बना दिया । सिरसा और पानीपत के जिले तोड़कर उन्हें तहसील बना दिया गया ।
(कुतानी की गढ़ी)
ठाकुर स्यालुसिंह अपने छः भाइयों सहित निवास करते थे । यह झज्जर के नवाब के बख्शी थे अर्थात् वही सर्वेसर्वा थे । नवाब क्या, यही ठाकुर स्यालुसिंह राज्य किया करते थे । इसने नवाब की फौज में हरयाणा के वीरों को भर्ती नहीं किया, आगे चलकर इस भूल का फल भी उसे भोगना पड़ा । उसने सब पूर्वियों को ही फौज में भरती किया, वह यह समझता था कि यह अनुशासन में रहेंगे । एक पूर्वीय सैनिक को ठाकुर स्यालुसिंह ने लाठी से मार दिया था, अतः सब पूर्वीय सैनिक उस से द्वेष करने लगे थे । एक दिन काणोड के दुर्ग में नाच गाना हो रहा था । एक पूर्वीय सैनिक ने ठाकुर स्यालुसिंह पर अवसर पाकर तलवार से वार किया । तलवार का वार पगड़ी पर लगा और ठाकुर साहब बच गये किन्तु इस पूर्वीय को ठाकुर साहब ने वहीं मार दिया । पूर्वीयों ने दुर्ग का द्वार बंद कर दिया और द्वार पर तोप लगा दी और टके भरकर तोपें चलानी शुरू कर दीं । उस समय ठाकुर स्यालुसिंह के साथ 11 अन्य साथी थे । ठाकुर हरनाम सिंह रतनथल निवासी ने तोपची को मार दिया । इस प्रकार बचकर ये लोग अपने घर चले गए । ठाकुर स्यालुसिंह अपनी ससुराल पाल्हावास में जो भिवानी के पास है, जहां इसके बाल-बच्चे उस समय रहते थे, चला गया । किन्तु पीछे से सब पूर्वियों ने कुतानी की गढ़ी पर चढ़ाई कर दी । नवाब ने पूर्वी सैनिकों को ऐसा करने से बहुत रोका, उसने यह भी कहा कि तुम ठाकुर के विरुद्ध मेरे पास मुकद्दमा करो, मैं न्याय करूंगा, किन्तु वे किसी प्रकार भी नहीं माने । नवाब ने कुतानी के ठाकुरों के पास भी अपना सन्देश रामबख्श धाणक खेड़ी सुलतान के द्वारा भेजा कि गढ़ी को खाली कर दें । इस प्रकार यह सन्देश तीन बार भेजा किन्तु गढ़ी में स्यालुसिंह का भाई सूबेदार मेजर शिवजीसिंह था । वह यही कहता रहा कि स्यालुसिंह के रहते हुए हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । किन्तु रात्रि को पूर्वीय सैनिकों ने सारी गढ़ी को घेरकर तोपों से आक्रमण कर दिया । ठाकुर शिवजीसिंह ने अपनी मानरक्षा के लिए छः ठाकुरानियों को तलवार से कत्ल कर दिया । दो लड़कों का भी वध कर दिया । किन्तु वह अपनी मां का वध नहीं कर सका । उसकी मां ने स्वयं अपना सिर काट लिया और यह कहा कि मैं यदि पकड़ी गई तो कलकत्ता तक सब ठाकुर बदनाम हो जायेंगे । कुतानी की गढ़ी के सब लोग गांव छोड़कर भाग गये । कुतानी के ठाकुरों की हवेली आज भी टूटी पड़ी है । तोप के गोलों के चिन्ह अब तक दीवारों पर हैं । गढ़ी उजड़ अवस्था में पड़ी है ।
(फरुखनगर)
फरुखनगर के नवाब ने भी इस स्वतन्त्रता के युद्ध में भाग लिया था । नवाब का नाम फौजदार खां था । फरुखनगर का बड़ा अच्छा ‘दुर्ग’ था । नगर के चारों ओर भी परकोटा बना हुआ था, जो आजकल भी विद्यमान है । इस नवाब को भी गिरफ्तार करके फांसी पर लटका दिया । नवाब हिन्दू प्रजा को भी अपने पुत्र के समान समझता था । एक बार हिन्दुओं ने मिलकर नवाब से प्रार्थना की कि पशुओं का वध नगर में न किया जाये क्योंकि इससे हमारा दिल दुखता है । नवाब ने उनकी प्रार्थना मान ली और पशु वध बंद कर दिया । इसी कारण चारण, भाट, डूम इत्यादि उसके विषय में गाया करते थे – जुग जुग जीओ नवाब फौजदार खां ।
पांच पुत्र पाचों श्रीश पांचों गुणनागर ।
नख तुल्लेखां मुखराज करैं जो वंश उजागर ॥
नवाब फौजदार खां ईश्वर का बड़ा भक्त था । वह सत्संग करने के लिए एक बार भरतपुर गया । रूपराम ब्राह्मण, महाराजा भरतपुर का मन्त्री तथा महाराजा भरतपुर की महारानी गंगा भी ईश्वरभक्त थी, और भी वहां अनेक ईश्वरभक्त रहते थे । नवाब हाथी पर चढ़कर सत्संग करने के लिए ही रानी और मन्त्री के पास गया था । उसने महाराजा भरतपुर को अपने आने की कोई सूचना पहले नहीं भेजी थी । अतः वह पकड़कर जेल में डाल दिया गया । उन्हीं दिनों महारानी गंगा के यहां पुत्र उत्पन्न हुआ । नवाब को प्रातःकाल हाथी पर चढ़कर भ्रमण करने की आज्ञा मिली हुई थी । एक दिन वह भ्रमण के लिए जा रहा था तो महारानी के महल को देखकर पूछा कि यह महल किसका है ? किसी ने उत्तर दिया – यह महारानी गंगा का महल है । नबाब कवि था, उसने उसी समय कहा –
गंगा गंगा सब कहें यह गंगा वह नाय ।
वह गंगा जगतारणी यह डोबे धारा मांह ॥
महारानी गंगा उस समय महल पर थी, उसने उसे सुनाने के लिए ही यह कहा था । उसने भी यह सुन लिया । रूपराम मन्त्री का भी महल मार्ग में आया । नवाब के पूछने पर किसी ने बताया कि यह मन्त्री रूपराम का महल है । नवाब ने उसी समय कविता में कहा –
रूपराम तब तें सुना जब तें पड़ो न काम
काम पड़े पायो नहीं तां में रूप न राम ॥
पुत्रोत्सव की प्रसन्नता में राजा ने दो सौ कैदियों को छोड़ने की आज्ञा दी । रूपराम ने दो सौ कैदियों में से सर्वप्रथम नवाब को छोड़ दिया । भरतपुर के महाराजा ने पीछे सूचना भेजी कि नवाब को न छोडे किन्तु वह पहले ही रूपराम के द्वारा छोड़ा जा चुका था । मंत्री रूपराम ने राजा के पास सूचना भेजी कि नवाब तो सत्संग करने के लिए आया था, बिना आज्ञा के नहीं आया । राजा की आज्ञा से वह एक मास तक भरतपुर में रहकर सत्संग करता रहा । राज्य की ओर से अतिथि के रूप में उसकी सेवा की गई । वह सत्संग करके सहर्ष फरुखनगर लौट गया ।
(बराणी के ठाकुर)
ठाकुर नौरंगसिंह छोटी बोन्द के निवासी थे । उनको ऊण ग्राम के पास फौजी अंग्रेज मिटकाफ साहब, जो काणा था, मिल गया । नौरंगसिंह ने उसको हलवा इत्यादि खिलाकर खूब सेवा की और फिर उसे सुरक्षित ऊँट पर बिठाकर भिवानी और हिसार पहुंचा दिया । इस सेवा के बदले उस अंग्रेज ने एक पत्र लिखकर ठाकुर साहब को दे दिया । उसी पत्र को देखकर जोन्ती के पास ठाकुरों को भूमि देना चाहा किन्तु ठाकुर के निषेध करने पर नवाब की भूमि में से 10 हजार बीघे जमीन छुछकवास के बीड़ में से देनी चाही, ठाकुर साहब ने कहा कि यह जमीन बहुत अधिक है । बड़ी कठिनता से 4 हजार बीघे जमीन स्वीकार की जहां आजकल बराणी ग्राम बसा हुआ है । कुछ जमीन 400 बीघे इनके संबन्धियों को खेतावास में दी गई । इसी प्रकार की सेवा से छुछकवास के पठानों को 6 हजार बीघे भूमि का बीड़ दिया । मौड़ी वाले जाटों को भी इसे प्रकार की सेवा के बदले भूमि दी गई ।
(रोहट गांव)
छोटे थाने वाले भागे हुए अंग्रेजों को ढ़ूंढ़-ढ़ूंढ़ कर मारते थे । एक दिन नहर की पटरी पर एक अंग्रेज अपने एक बच्चे और स्त्री सहित घोड़ा गाड़ी में आ रहा था, यह नहर का मोहतमीम था । इसके तांगे से एक अशर्फियों की थैली नीचे गिर गई । स्त्री स्वभाव के कारण वह अंग्रेज स्त्री उसे उठाने के लिए उतरकर पीछे चली गई । थाने ग्राम के निवासी पहले ही पीछे लगे हुए थे । उन्होंने वह थैली छीन ली और उस अंग्रेज स्त्री को न जाने मार दिया या कहीं लुप्त कर दिया । आगे चलकर रोहट ग्राम का रामलाल नाम का ठेकेदार उसे मिला जो इसे जानता था । उसने उस मोहतमीम को बचाने के लिए बच्चे सहित घास के ढ़ेर में छिपा दिया, बाद में अपने घर ले गया । थाने ग्राम के लोगों को यह कह दिया कि तांगा आगे चला गया, उसी में अंग्रेज है । वह ग्राम में कई दिन रहा । फिर उसको ग्राम के बाहर उसकी इच्छा के अनुसार आमों के बाग में रखा । वहां वह आम के वृक्ष पर बन्दूक लिए बैठा रहता था । पचास ग्राम वाले भी उसकी रक्षा करते थे । शान्ति होने पर उसे सुरक्षित स्थान पर भेज दिया गया । रोहट ग्राम की 14 वर्ष तक के लिए नहरी और कलक्ट्री उघाई माफ कर दी गई । बोहर और थाने ग्राम के लोगों ने अंग्रेजों को मारा था, अतः इन दोनों ग्रामों को दण्डस्वरूप जलाना चाहते थे किन्तु रामलाल ने कहा था कि पहले मुझे गोली मारो फिर इन ग्रामों को दण्ड देना । रामलाल के कहने पर यह दोनों ग्राम छोड़ दिये गये । रामलाल को एक तलवार, प्रमाणपत्र और मलका का एक चित्र पुरस्कार में दिया गया । उस रामलाल ठेकेदार के लिए यह लिखकर दिया कि इसके परिवार में से कोई मैट्रिक पास भी हो तो उसे अच्छा आफीसर बनाया जाये । वह अंग्रेज ग्राम वालों की सहायता से शान्ति होने पर करनाल पहुंच गया । मार्ग में कलाये ग्राम में उसका लड़का मर गया । गाड़ने के लिए ग्राम वालों ने भूमि नहीं दी । एक किसान ने भूमि दी जिसमें उसकी कब्र बना दी गई । चिन्हस्वरूप उसका स्मारक बना दिया गया । रोहट ग्राम में सर्वप्रथम छैलू को जेलदारी मिली । सुजान, छैलू ठेकेदार और रामलाल ठेकेदार को प्रमाणपत्र दे दिया गया ।
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