डा. अम्बेडकर के महान विचार
डा़ अम्बेडकर एक प्रसिद्घ
विचारक और समाज
सुधारक युग प्रवर्तक
महापुरूष थे। उन्होंने
भारत के तत्कालीन
समाज की गहन
और गंभीर समीक्षा
की थी, और
समाज में व्याप्त
छुआछूत और ऊंचनीच
की भावना को
मिटाने केे लिए
अपनी ओर से
गंभीर प्रयास किये
थे। उन्होंने विश्व
के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों
में जाकर अर्थशास्त्र
का व्यापक अध्ययन
किया था। लंदन
स्कूल ऑफ इकानामिक्स
से उन्होंने एम़ए़,
पी़एचड़ी़, डी़एस़सी़ आदि उपाधियाँ
प्राप्त की थीं।
उनका तत्कालीन भारतीय
समाज की बहुत
सी समस्याओं पर
और देश के
राजनीतिक नेतृत्व द्वारा लिये
गये निर्णयों पर
अपना स्पष्ट चिंतन
रहता था जैसे
मुस्लिम बहुल क्षेत्र
सिन्ध को बम्बई
प्रेसीडेन्सी से अलग
करना उन्होंने उचित
नहीं माना। 3 फरवरी
1928 को साइमन कमीशन भारत
आया था। सारे
देश में इसका
तीव्र विरोध हुआ।
उस समय मुस्लिम
नेता माँग कर
रहे थे कि
सिन्ध क्षेत्र को
बम्बई प्रेसीडेन्सी से
अलग कर एक
पृथक प्रान्त बना
दिया जाए।
डा़ अम्बेडकर को भी
बंबई विधान परिषद
की प्रान्तीय समिति
के लिए चुना
गया था। बंबई
प्रान्त की समिति
ने 1929 में जो
अपनी संस्तुतियाँ दी
थीं उसके अनुसार
उन्होंने दो प्रमुख
माँगें साइमन कमीशन के
सामने रखी थीं।
सिन्ध क्षेत्र को बंबई
प्रेसीडेन्सी से अलग
कर एक नया
प्रान्त बनाया जाय। बंबई
प्रान्त की 140 सीटों में
से 33 प्रतिशत स्थान
मुसलमानों के लिए
आरक्षित किये जायें
तथा उनके लिए
पृथक मुस्लिम मतदाता
मण्डल भी सुनिश्चित
हों । डा़
अम्बेडकर जी ने
इन दोनों माँगों
का विरोध किया
और अपनी रिपोर्ट
अलग से दी।
डॉ़ अम्बेडकर लिखते हैं
शायद बहुत लोग
यह नहीं जानते
कि केवल भारत
ही एक ऐसा
देश नहीं है
जहाँ मुसलमान अल्पसंख्या
में हैं, अपितु दूसरे
कई देशों में
भी मुसलमानों की
इसी प्रकार की
स्थिति है। बुल्गारिया,
अल्बानियाँ, ग्रीस, रूमानियाँ, यूगोस्लाविया
और रूस आदि
देशों में भी
मुसलमान अल्पसंख्या में हैं।
क्या उन देशों
में भी मुसलमानों
ने पृथक निर्वाचन
मण्डलों की आवश्यकता
पर बल दिया
है? जिस प्रकार
इतिहास के विद्यार्थी
जानते हैं कि
उन देशों में
मुसलमानों ने पृथक
निर्वाचन मण्डलों के बिना
ही निर्वाह कर
लिया है अतएव
मुसलमानों का पक्ष
लक्ष्य से कहीं
दूर और तर्क
से परे है।
डॉ. अम्बेडकर प्रारम्भ से
ही पृथक मतदाता
मण्डल के विरोधी
थे। साईमन कमीशन
के समय भी
उन्होंने इस नीति
का विरोध किया।
डॉ़ अम्बेडकर का
मानना था कि
भारत एक बड़ा
राष्ट्र है तथा
देश भर में
फैली हुई भाषाएँ
हमारे राष्ट्र की
विविधता और समृद्घि
को प्रकट करती
हैं। अलग–अलग
क्षेत्रों की भाषाओं
ने बड़े व्यापक
और श्रेष्ठ साहित्य
का सृजन किया
है।
सभी भाषाएँ राष्ट्र की
धरोहर हैं और
सभी हमारी अपनी
हैं, किन्तु भाषा
के आधार पर
प्रान्तों की रचना
उचित नहीं। प्रान्तों
की रचना का
आधार प्रशासन का
सरल एवं सुविधाजनक
संचालन ही होना
चाहिये।
डा. अंबेडकर का यह
भी स्पष्ट मंतव्य
था कि आर्य
कहीं बाहर से
नहीं आये। अंग्रेजों
द्वारा बड़ी चतुराई
से यह प्रचारित
किया जा रहा
था कि आर्यों
ने भारत पर
आक्रमण किया और
यहाँ प्रवेश किया।
डॉ़ साहब ने
बहुत परिश्रमपूर्वक एक
विस्तृत शोध–ग्रन्थ
लिखा। निष्कर्ष रूप
में डॉ़ अम्बेडकर
का कहना था
कि पश्चिमी विचारकों
ने योजनापूर्वक एक
षड्यन्त्र रचा और
एक परिकल्पना गढ़
दी कि आर्य
यहाँ पर कहीं
बाहर से आये
हैं और जैसा
अत्याचार अंग्रेजों ने अमेरिका,
आस्ट्रेलिया, कनाडा, अफ्रीका आदि
देशों में जाकर
वहाँ के मूल
नागरिकों पर किया
था वैसा ही
आर्यों ने यहाँ
के लोगों पर
किया है।
आर्यों ने भी
यहाँ के मूल
निवासियों को गुलाम
बनाकर शूद्रों की
श्रेणी में डाल
दिया है। डॉ़
अम्बेडकर ने पश्चिमी
विचारकों की इस
परिकल्पना को झूठ
का पुलिन्दा ही
नहीं कहा वरन्
एक धूर्ततापूर्ण प्रयास
कहा।
स्वतन्त्रता
के बाद प्रधानमन्त्री
श्री जवाहरलाल नेहरू
द्वारा विदेशनीति का जो
प्रारूप देश के
सामने रखा गया
उसको देखकर डा़
अम्बेडकर प्रसन्न नहीं थे।
सामने आते हुए
संभावित खतरे उन्हें
स्पष्ट दिख रहे
थे। इन्हीं सब
कारणों से उन्होंने
केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र
दे दिया और
इसकी पूर्व संध्या
पर संसद में
भाषण देते हुए
कहा– देश की
विदेश नीति को
देखकर मैं केवल
असंतुष्ट और व्यग्र
ही नहीं हूँ
वरन् मैं चिन्तातुर
भी हूँ।
कोई भी व्यक्ति
जो भारत की
विदेश नीति के
सम्बन्ध में एवं
दूसरे देशों के
हमारे प्रति व्यवहार
के बारे में