क्या चुनाव की सरकारी फंडिंग का वक्त आ गया
वरुण गांधी
भारत के 2009 के आम चुनाव में राजनीतिक दलों की ओर से दो अरब डॉलर खर्च हुए। यह 2014 में पांच अरब डॉलर और 2019 तक 8.6 अरब डॉलर पहुंच गया। भारत का पिछला आम चुनाव, दुनिया का सबसे महंगा चुनाव था। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुसार, भारत में इस खर्च का 10-12 फीसदी मतदाताओं को सीधे नकद भुगतान के रूप में है।
अज्ञात स्रोतों से कमाई
असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के अनुसार, 2021-22 में देश में राष्ट्रीय दलों की आय का 60 फीसदी अज्ञात स्रोतों से आया और यह राशि 2,172 करोड़ रुपये से अधिक है।
वित्तीय वर्ष 2004-05 और 2021-22 के बीच राजनीतिक दलों द्वारा 17,249 करोड़ रुपये अज्ञात स्रोतों से जुटाए गए।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (1951), धारा 29 (सी) के मुताबिक, राजनीतिक दलों के कोषाध्यक्षों को 20 हजार रुपये से अधिक के किसी भी योगदान के दस्तावेज चुनाव आयोग से साझा करने होते हैं।
1968 में इंदिरा गांधी की पहल पर राजनीतिक दलों के लिए कॉरपोरेट चंदे पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अलबत्ता, 1985 में इसे फिर से वैध ठहरा दिया गया।
कहने की जरूरत नहीं कि इस मामले में बाद में संशोधनों ने निगमों और राजनीतिक दलों की गोपनीयता को सामान्य नागरिकों के सूचना के अधिकार पर प्राथमिकता दी है। इससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की हमारी क्षमता प्रभावित हुई है। राजनीतिक दलों को अब आयकर विभाग और चुनाव आयोग को वार्षिक आय-व्यय का ब्योरा देना तो जरूरी है, लेकिन वे अपने धन के स्रोतों का विवरण देने को बाध्य नहीं हैं।
दलों के खर्च पर नियंत्रण नहीं
वहीं, चुनाव अभियान से जुड़े वित्तीय कानूनों ने उम्मीदवारों के लिए तो खर्च की सीमा तय की है, लेकिन दलों के लिए यह असीमित है। यह स्थिति राजनीतिक खर्च को लेकर कई अनिष्टकारी संशयों को जन्म देती है। कई देश इस मामले में एक भिन्न मॉडल को अपनाते हैं।
अमेरिका में चुनाव अभियान के खर्च के लिए दलों और उम्मीदवारों को वित्तीय मदद की परिभाषित सीमाएं हैं, जबकि चुनाव अभियान खर्च ऐसी किसी सीमा से मुक्त है।
नीदरलैंड में लोगों और कंपनियों को सीमित दान और पार्टी सदस्यता राशि चुकाने में कर कटौती का प्रोत्साहनकारी प्रावधान है।
भारत में भी उम्मीदवारों और दलों के खर्च की सीमा तय होनी चाहिए। साथ ही, इसमें नियमित रूप से संशोधन होते रहना चाहिए।
नहीं आई पारदर्शिता
चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लाने में चुनावी बॉन्ड रामबाण साबित नहीं हुआ है।
2018 में चुनावी बॉन्ड योजना को वित्त अधिनियम (2017) के जरिए पेश किया गया था और इसके सहारे लोगों, संस्थाओं या कंपनियों द्वारा ब्याज मुक्त चुनावी बॉन्ड की खरीद का रास्ता खोला गया था। इसमें न तो क्रेता और न ही राजनीतिक दल को यह बताने की जरूरत है कि दान किसे दिया गया है।
चुनावी बॉन्ड को धारा 29 (सी) से भी बाहर रखा गया है, जबकि कंपनियों को कुल लाभ के संबंध के बिना दान करने की इजाजत दी गई है।
अतिरिक्त संशोधनों में कंपनियों के लिए ऐसी किसी वैधानिक आवश्यकता को भी हटा दिया गया है कि वे अपनी सालाना रिपोर्ट में उन राजनीतिक दलों के नाम का जिक्र करें, जिन्हें उन्होंने दान दिया है। यह यकीनन दान के लिए अतिरिक्त शेल कंपनियों के निर्माण को प्रोत्साहित करेगा।
चुनाव की सरकारी फंडिंग
इस बीच, भारत में चुनावों की विदेशी फंडिंग भी जारी है। यह विडंबना ही है कि NGO चलाने वाले भारतीयों को विदेशी चंदा प्राप्त करने के लिए कई चक्कर लगाने पड़ते हैं, जबकि राजनीतिक दलों को कानूनन विदेशी चंदा प्राप्त करने की इजाजत है।
आखिर में हम कह सकते हैं कि चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग एक ऐसा विचार है, जिस पर गंभीरता से विचार का समय आ गया है। यह पश्चिम में पहले से व्यापक रूप से प्रचलित है।
भारत के संबंध में भी यह कोई नया विचार नहीं है। 1990 में चुनाव सुधारों पर दिनेश गोस्वामी समिति ने सिफारिश की थी- स्वतंत्र समर्थकों द्वारा चुनावी खर्च को दंडित करते हुए और राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट चंदे पर प्रतिबंध लगाते हुए चुनिंदा खर्चों के लिए राज्य वित्त पोषण करे।
यहां तक कि 1993 में CII ने उत्पाद शुल्क पर विशेष उपकर या उद्योगों द्वारा चुनाव निधि पूल में योगदान के माध्यम से चुनाव के लिए राज्य वित्त पोषण की सिफारिश की थी।
1998 से आंशिक राज्य सब्सिडी दी भी गई है। राज्य के स्वामित्व वाले टेलिविजन और रेडियो नेटवर्क पर खाली समय का आवंटन एक ऐसी ही पहल है।
1998 में चुनावों के राज्य वित्त पोषण पर इंद्रजीत गुप्ता समिति ने सुझाव दिया था कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को मुफ्त एअर टाइम साझा करने की अनिवार्यता को निजी चैनलों तक विस्तृत और इसके लिए जरूरी सब्सिडी मुहैया कराई जानी चाहिए। इन सुझावों के तहत चुनाव खर्च के लिए 600 करोड़ रुपये का एक अलग कोष केंद्र और राज्य द्वारा वित्त पोषित किया जाना था।
न रहे निजी चंदे पर निर्भरता
राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की निजी चंदे पर निर्भरता कम करने के लिए हमें चुनावों (लोकसभा, राज्य विधानमंडल और नगरपालिका चुनावों के लिए) के लिए सरकारी फंडिंग की दिशा में बढ़ना चाहिए। साथ ही पार्टी की सदस्यता को बढ़ावा देने और राष्ट्रीय चुनाव कोष में दान करने को भी प्रोत्साहित करना चाहिए। इससे ईमानदार प्रत्याशियों को बढ़ावा मिलेगा। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि भारत में हर विधायक अपने करियर की शुरुआत झूठी रिटर्न फाइलिंग से करता है। लोकतंत्र और मतदान की शुचिता के लिए इस दिशा में ठोस और ईमानदार पहल समय की मांग है।