इस धर्मनिरपेक्षता की रक्षार्थ यदि इन्हें हमारी वीर राजपूत जाति की क्षत्राणियों के हजारों बलिदानों को भुलाना पड़े, उनके जौहर को विस्मृति के गड्ढे में डालना पड़े और उन्हें अधम कहना पड़े तो ये लोग ऐसा भी कर सकते हैं। यह अलाउद्दीन के उस प्रयास को जो उसने महारानी पदमिनी को बलात् अपने कब्जे में लेने हेतु किया था, एक रचनात्मक कदम बता सकते हैं, उसे महिमामंडित कर सकते हैं, ये कहकर कि सुल्तान रानी को लेकर चित्तौड़ से सदा-सदा के लिए अपने संबंध मधुर बनाना चाहता था।
इस धारणा की पुष्टि के लिए इनके पास बहुत सी ‘रोमिला थापर’ और ‘थापर ब्राण्ड’ बहुत से विद्वान और इतिहासकार उपलब्ध हैं। ऐसी भावना और सोच के कारण ही भारत में हिंदू नरेशों के राजभवनों, किलों, महलों और स्थलों को उपेक्षा का घुन लगा हुआ है। इस राजनीतिक उपेक्षावृत्ति के कारण रानी लक्ष्मीबाई, छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल, महाराणा प्रताप सहित कितने ही हिंदू वीरों के स्मारक स्थल समाधियां, किले एवं भवन धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे हैं। पुरातत्व विभाग और संबंधित मंत्रालय के पास इन हिंदू वीरों और राष्ट्रभवनों की समाधियों स्मारक स्थलों, किलों एवं भवनों को राष्ट्रीय स्तर के स्मारक और पर्यटक स्थल बनाने की न तो सोच है और न ही कोई कार्य योजना है।
सोचिए! कि कल को आप अपने बच्चों को कौन सी विरासत के उत्तराधिकारी बनाएंगे? राम की विरासत के या अकबर की विरासत के? हां! बहुत से स्मारकों, किलों एवं भवनों को अपने अधीन कर उन्हें राष्ट्रीय संपत्ति अवश्य घोषित कर दिया गया है, अर्थात कुछ राजाओं के वंशजों से उनके रख रखाव का अधिकार छीनकर अपने नियंत्रण में लेकर अब इन्हें मधुर विष से मारने का प्रबंध कर दिया गया है। कितनी घातक सोच है। दिल्ली में पाण्डवों का किला जो अब ‘पुराना किला’ कहलाता है-अब अपनी दीनतापूर्ण अवस्था पर आंसू बहा रहा है। अमर प्रेम के मसीहा शाहजहां के मानसपुत्र इस ऐतिहासिक स्थल पर अश्लील हरकतें करते आपको अवश्य दिखाई दे जाएंगे, किंतु कहीं भी आपको यह बताने या समझाने की व्यवस्था नहीं है कि यह वह स्थल है जहां पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया था। न ही कृष्ण जी, विदुर जी, भीष्म पितामह और गुरू द्रोणाचार्य जैसी महान विभूतियों की उपस्थिति में हो रहे किसी यज्ञ का कोई आकर्षक चित्र वहां उपलब्ध है, अर्थात इस ऐतिहासिक स्थल से जुड़ी हुई किसी भी ऐतिहासिक प्रेरक घटना का उल्लेख, चित्रण अथवा दर्शन आपको वहां नहीं होगा।
हां! इतना अवश्य मिलेगा कि यहां पर अमुक मस्जिद अमुक सुल्तान या बादशाह ने बनवाई, उसने यह किया और उसने वह किया। अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के पुत्रों की हत्या यहां अंग्रेजों ने की थी-यह भी आपको लिखा मिल जाएगा, हुमायूं ने किस प्रकार यहां अंतिम सांस ली थी-यह भी लिखा मिल जाएगा। किंतु भारत के गौरवपूर्ण अतीत के कौन-कौन से अध्याय यहां बैठकर लिखे गये-यह आपको कहीं नहीं बताया जा सकता। यह दोहरे मानदण्ड इस प्राचीन किले को खा रहे हैं। प्रतिदिन यह अपनी जर्जरता पर सूर्य की पहली किरण के साथ ही आंसू बहाने आरंभ करता है और सूर्यास्त के साथ अपनी दु:खभरी कहानी को अपने अंक में समेटकर अपनी उपेक्षा के आंसुओं को पीकर अंधेरे में खो जाता है। किंतु किसी भी छद्मधर्मनिरपेक्षी को इसके आंसू नहीं दिखाई दे रहे। इसकी होती हुई उपेक्षा, उसकी पथराई हुई आंखों में चेतना उत्पन्न नहीं कर पा रही। पाण्डवों से जुड़े हुए ऐतिहासिक स्थल बरनावा (प्राचीन नाम वारणावृत) आप जायें। आप देखेंगे कि यहां वह स्थल है जिस पर लाक्षागृह का निर्माण करके पाण्डवों को यहां मिटाने का दुर्योधन के द्वारा दुष्टतापूर्ण कार्य किया गया था। यह एक ऊंचा टीला मात्र है अब, जिस पर ‘कृष्णदत्त ब्रह्मचारी’ जी द्वारा निर्मित एक संस्कृत महाविद्यालय अपनी संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु मिट्टी के दीये की भांति प्रकाश दे रहा है।
इसके अतिरिक्त भारत सरकार की ओर से इसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने का एक बोर्ड भी लगा हुआ-आपको दिखलाई दे जाएगा। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी कोई ठोस कार्य होता हुआ आपको वहां दिखलाई नहीं देगा। क्या ही अच्छा होता कि वहां पर एकभव्य भवन का निर्माण करके उसमें उस सुरंग को दिखाया जाता जो कि महात्मा विदुर जी के सत्प्रयासों और परामर्श से बनाई गयी थी।
भीतर पांडवों को चित्रों के माध्यम से भी दिखाया जाता और बाहर एक विशाल चित्र बनवाकर उसमें इस भवन में लगी आग को दिखाया जाता। साथ ही इसमें उस गरीब भिखारिन के पांच पुत्रों को मरते हुए भी दिखाया जाता जिनके अस्थिपंजर को देखकर दुर्योधन को यह आत्म संतोष हो गया था कि पाण्डव अपनी माता कुंती सहित भस्मीभूत हो गये हैं।
भवन के भीतर कहीं महात्मा विदुर का भव्य चित्र होता, तो कहीं अपनी माता कुंती के साथ रात्रि के गहन अंधकार में निकाल कर भागते हुए पाण्डवों का चित्र इस भवन में होता। ऐसी स्थिति में विदेशी पर्यटकों को हम अपनी प्राचीन भव्य संस्कृति के भव्य दर्शन कराने में सफल होते।
हमारे प्राचीनतम इतिहास को समझने और उस पर अनुसंधान करने का एक सुनहरा अवसर विदेशियों को मिलता। लोग हमारी ओर आकर्षित होते और हमारे गौरवमयी इतिहास से परिचित होते। साथ ही दिल्ली जैसे महानगर से दूर बरनावा जैसे उपेक्षित कस्बों की ओर जब इतना ध्यान दिया जाता तो ये भी तेजी से अपना विकास करते और महानगरों पर बढ़ रहा जनसंख्या का अनुचित दबाव भी कम किया जा सकता था। किंतु धर्मनिरपेक्षता की ‘महान भावना’ हमारे इन आदरणीय नेताओं के आड़े आ गयी और भारत के ये निरीह प्राणी इस दिशा में कुछ नहीं कर पाये-बस भारत एक ‘भयंकर षडय़ंत्र’ का शिकार बनकर रह गया।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)

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