दुष्टों का विनाश करना और सज्जनों का परित्राण करना भारत की प्राचीन परम्परा है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि दुष्टों का संहार करने वाली तलवार अर्थात शस्त्र पर शास्त्र की नकेल भी होनी चाहिए । किसी भी परिस्थिति में वह तानाशाही ,निरंकुश ,स्वेच्छाचारी और नरसंहार करने वाली न बन जाए , वह निहित स्वार्थ में खून खराबा करने वाली ना बन जाए – इसके लिए पीछे से ऐसी बौद्धिक शक्ति उसके साथ काम करती थी जो उसे यह बताती थी कि यह व्यक्ति दुष्ट , राक्षस या समाज विरोधी है और यह नहीं है।
भारत की परम्पराएं बहुत पवित्र और महान हैं । इसके उपरान्त भी कुछ लोगों ने भारत में यह प्रचारित व प्रसारित कर भ्रम फैलाने का काम किया है कि यहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों में भी संघर्ष हुआ । उसका उदाहरण देते हुए परशुराम जी को बदनाम किया जाता है । इस घटना को महिमामंडित करने के लिए कुछ लोग प्रतिवर्ष परशुराम जी की जयंती मनाते हैं और क्षत्रिय समाज के विरुद्ध विषवमन करते हैं। लोगों को बताया जाता है कि परशुराम जी ने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियविहीन किया। ऐसा करके परशुराम जी के साथ न्याय नहीं किया जाता। इसके विपरीत भारत की हिंदू समाज की एकता को भंग करने का प्रयास किया जाता है। परशुराम जी कोई आतंकवादी या बुद्धि शून्य व्यक्ति नहीं थे ।वह एक ऋषि थे, जो लोक कल्याण के लिए जीवन भर कार्य करते रहे। उन पर ऐसा आरोप लगाना उन्हें आतंकवादी सिद्ध करता है और नादिर शाह ,अब्दाली, बाबर गजनी और गौरी जैसे नरसंहार करने वाले राक्षस लोगों की श्रेणी में खड़ा कर देता है।
जबकि यह घटना इस प्रकार नहीं थी । परशुराम जी ने जो कुछ भी किया था वह वैदिक परम्परा के अनुकूल किया था। उसमें दोष कुछ भी नहीं था । दोष समझाने वालों ने पैदा कर दिया है और उसे इतना विस्तार दिया जाता रहा है कि प्रत्येक वर्ष परशुराम जी की जयंती मनाकर उन्हें क्षत्रिय विरोधी सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है । जिससे दोनों वर्णों के लोग अर्थात ब्राह्मण और क्षत्रिय एक दूसरे से दूर से होते जा रहे हैं।
धरती को क्षत्रियविहीन करने का सच क्या है ?
माना जाता है कि परशुराम ने 21 बार हैहयवंशी क्षत्रियों को समूल नष्ट किया था। क्षत्रियों का एक वर्ग है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है । इसी समाज में एक राजा हुआ था सहस्त्रार्जुन। जो कि धर्म विरोधी और अपने विरोधी आचरण के लिए उस समय प्रसिद्ध हो गया था । परशुराम ने इसी राजा और इसके पुत्र और पौत्रों का वध किया था और उन्हें इसके लिए किस राजा के परिवार या वंशजों से 21 बार युद्ध करना पड़ा था।
सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त। महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है। कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी आराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था। इस अतुलित बल को प्राप्त कर सहस्त्रबाहु को अहंकार हो गया।
ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी। सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया। जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के लिये कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्त्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाएँ कट गईं अर्थात उसकी अनेकों शक्तियों का विनाश हो गया और वह मारा गया।
तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माँ रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-“मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा”। उसके बाद उन्होंने अहंकारी और दुष्ट प्रकृति के हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध किया। क्रोधाग्नि में जलते हुए परशुराम ने सर्वप्रथम हैहयवंशियों की महिष्मती नगरी पर अधिकार किया तदुपरान्त कार्त्तवीर्यार्जुन का वध। कार्त्तवीर्यार्जुन के दिवंगत होने के बाद उसके पाँच पुत्र जयध्वज, शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।
इस घटना से हमें पता चलता है कि परशुराम जी ने उन लोगों का विनाश करने का संकल्प लिया जो वेद विरुद्ध आचरण कर रहे थे , समाज विरोधी हो गए थे और न्यायशील , तपस्वी विद्वानों और ऋषियों को भी अपमानित करने का काम कर रहे थे । इस कार्य को करना वेद धर्म के अनुकूल है । कहा जाता है कि “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” अर्थात वेद की हिंसा हिंसा नहीं होती , क्योंकि वह हिंसा करने वाले को समाप्त करने के लिए की जाती है । जिस पर समाज के सभी लोगों की सहज स्वीकृति प्राप्त होती है। प्राचीन काल में भारत की ‘विधि’ यही थी। जिसे सब लोग जानते वह मानते थे। यही कारण था कि वेद विरुद्ध आचरण करने वाले और क्षत्रिय धर्म से पतित हुए हैहयवंशी शासकों का साथ उस समय के किसी भी वेदधर्मी क्षत्रिय शासक ने नहीं दिया।
इस घटना को यदि इस प्रकार बताया व समझाया जाए कि परशुराम जी के द्वारा राक्षस वृत्ति के लोगों का जब संहार किया जा रहा था तो शेष क्षत्रिय जातियों ने भी उनका इसलिए साथ दिया था कि वे भी वेद धर्म के अनुकूल व्यवस्था को बनाए रखने में विश्वास रखते थे , वह नहीं चाहते थे कि प्रजा उत्पीड़क जीवित रहे और धर्म प्रेमी , वेदप्रेमी , ब्राह्मण लोगों का या सज्जन प्रकृति के लोगों का संहार करने का काम करे – तो समाज को एक सही संदेश जाएगा कि भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही ब्राह्मण और क्षत्रिय के संयुक्त बल से किस प्रकार पापाचारियों का संहार होता रहा है और किस प्रकार इन दोनों को मिलकर पापाचारियों का संहार करना भी होता है ?
हमें परशुराम जी के बारे में भ्रांत धारणा को मिटाने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हम सब इस घटना के वास्तविक स्वरूप का प्रचार इस दिन करें। जिन मक्कार इतिहासकारों ने घटना को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया है, उनके बारे में हमें याद रखना चाहिए कि ये वही लोग हैं जो हिंदू हितरक्षक, राष्ट्र रक्षक और संस्कृति रक्षक गुरु गोविंद सिंह आदि गुरुओं को सिक्ख के रूप में दिखाते हैं, मराठा शासकों को मराठा शक्ति के रूप में दिखाते हैं ,गुर्जरों को गुर्जर के रूप में तथा राजपूतों को राजपूत के रूप में दिखाते हैं। इन सभी शक्तियों को कभी भी वह ‘हिंदू शक्ति’ नहीं कहते। इसके पीछे चाल यही है कि इन्हें अलग-अलग दिखाओगे तो हिंदू समाज एक नहीं हो पाएगा। अपनी एकता को पहचानने और मजबूत करने के लिए परशुराम जी के साथ न्याय करते हुए हम उन्हें इतिहास की अदालत से मुक्त करें और उन पर लगे हुए आरोप को मिटाने का सराहनीय प्रयास करें।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
एवं राष्ट्रीय प्रणेता : भारत को समझो अभियान समिति