राक्षसों का दमन अनिवार्य
गांधीजी ने राजनीति के सुधार की बात तो की किंतु राक्षसों के दमन का कोई भी उपदेश अपने प्रिय शिष्य जवाहर को नहीं दिया। इसलिए गांधीजी का दृष्टिकोण और गांधीवाद दोनों ही भारत में उनकी मृत्यु के कुछ दशकों में ही पिट व मिट गये। जबकि ऋषि वशिष्ठ का श्रीराम को दिया गया उपदेश आज भी सार्थक है, इसलिए भारतीय राजनीति के क्षेत्र में आदर्शों की बात को भी गांधीजी का मौलिक चिंतन स्वीकार नहीं किया जा सकता।
जहां तक उनकी अहिंसा नीति का प्रश्न है तो इस गांधीवादी अहिंसा की तो परिभाषा ही बड़ी विचित्र है। यदि एक ओर उन्होंने अपनी पत्नी को डॉक्टर से इंजेक्शन न लगवाने का कारण इसमें हिंसा होना बताया था तो दूसरी ओर उनकी अहिंसा का हृदय हिंदू हत्याओं की हो रही भरमार को भी देखकर कभी पिघला नहीं। अपितु मुस्लिमों के हाथों मरने के लिए उन्हें अकेला छोड़ दिया गया। हमारी अनाथ और असहाय माताओं, बहनों और ललनाओं पर किये गये मुस्लिमों के अमानवीय अत्याचारों को देखकर भी उनका हृदय द्रवित नही हुआ था, क्या इसलिए कि वे अहिंसा प्रेमी थे? अहिंसा की रक्षा हिंसा से ही होती है। शांति के पौधों को कभी-कभी रक्त से भी सींचना पड़ता है। शांति के लिए क्रांति की आवश्यकता हुआ करती है।
इन अकाट्य सत्यों का स्थान गांधीजी के अहिंसा में कदापि नहीं था। सन 1962 ई. में चीन के हाथों परास्त होकर हमने अपनी सामरिक और सैनिक तैयाािरयों की ओर जब ध्यान देना आरंभ किया तो तभी यह स्पष्ट हो गया कि हमने गांधीवाद से पल्ला झाड़ लिया है, क्योंकि हमारी समझ में यह बात भली प्रकार आ गयी थी कि सैनिक तैयारी के बिना राज्य की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती। सन 1965 ई. में जब हमने पाकिस्तान की पिटाई की थी तो यह गांधीवाद के जनाजे में कील ठोंककर ही की थी। फिर भी कुछ लोग हैं जो गांधीवाद के भूत को अभी भी इस देश में बनाये रखने पर उतारू हैं। वे ऐसा क्यों और किसलिए कर रहे हैं? इसे संभवत: हम और आप से बेहतर केवल वे लोग ही जानते हैं।
गांधीजी और असहयोग आंदोलन
गांधीजी की एक विशेषता गांधीजी के ‘असहयोग’ और ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ के अनूठे प्रयोग को बताया जाता है, जो कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में ब्रिटिश सरकार के विरूद्घ अपनाये थे।
वस्तुत: यह बात भी गलत है कि इस प्रकार के आंदोलन को भारत में प्रचलित करने के प्रयोग गांधीजी की अंत:प्रेरणा से किये गये थे। इसके लिए भी हमको इतिहास के पन्नों को पलटना पड़ेगा। सही उस समय पर जाकर हमको रूकना है जहां गांधीजी मां के स्तनों का दूध पीकर पालने में झूल रहे थे अर्थात सन 1869 ई. में खड़े होकर हम देखें कि उस समय क्या हो रहा था? कौन व्यक्ति था जो उस समय भारतीय अस्मिता की रक्षार्थ भारत के यौवन में नवचेतना का संचार कर रहा था? किसकी हुंकार थी जो वृद्घों की रगों में भी नव स्फूर्ति उत्पन्न कर रही थी? किसकी ललकार थी जो विदेशी शासन की रातों की नींद को हराम कर रही थी? निस्संदेह असहयोग आंदोलन का सूत्रपात करने वाले यह महान व्यक्तित्व के धनी ‘पंजाब-केसरी गुरू राम सिंह कूका जी’ थे। जिनके वीरतापूर्ण कृत्यों से पंजाब में ‘कूका आंदोलन’ का सूत्रपात हुआ।
इस महान देशभक्त का जन्म सन 1824 ई. में भैणी नगर जिला लुधियाना पंजाब में हुआ था, जबकि देहांत अंग्रेजों की जेल में रहते-रहते और देशहित में यातनाएं सहते-सहते सन 1885 ई. में हुआ था। लगभग बिल्कुल यही समय था जब महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज इस देश की सोयी हुई हिंदू जनता का महान कार्य करते हुए देश में समग्र क्रांति की नींव रख रहे थे, अथवा पृष्ठभूमि तैयार कर रहे थे। दूसरे कांग्रेस का जन्म 1885 ई. में ही हुआ था। जबकि गांधी जी का जन्म सन 1869 ई. में हुआ था। अब आप विचार करें सन 1869 ई. से सन 1885 ई. के मध्य काल को गुरू रामसिंह जी का काल यदि कहें तो इस काल में उन्होंने जो कार्य किये उन्हें गांधीजी के बचपन और कांग्रेस के जन्म से पूर्व काल में किया हुआ ही आप सिद्घ करेंगे।
कूका आन्दोलन
गुरू रामसिंह जी ने उस समय देश में ‘असहयोग आंदोलन’ का सूत्रपात किया और अंग्रेजों के प्रति हर क्षेत्र में और हर स्तर पर देश की जनता को असहयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी न्यायपद्घति, रेल, तार डाक, कपड़े आदि सभी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी अपनाने के लिए भारत की जनता को प्रेरित किया। इनकी ऐसी गतिविधियों और देशभक्ति के कृत्यों को देखकर अंग्रेज सरकार के पैरों तले की जमीन खिसक गयी थी। परिणामस्वरूप इन पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध लगा दिये गये। गुरूजी एक धार्मिक व्यक्ति थे, इसलिए गोरक्षा उनका पहला लक्ष्य था। इसमें गांधीजी की तरह की कोई छूट किसी संप्रदाय के लिए नहीं थी कि-‘वह चाहे तो गाय का मांस खा सकता है।’ गोरक्षा का मिशन था तो वह सिर्फ गोरक्षा का ही मिशन था। गुरूजी का आंदोलन हिंसक भी रहा उन्होंने किसी दिखावटी अहिंसा का आवरण ओढऩे के लिए कोई नाटक नहीं रचा। इनके एक शिष्य का झगड़ा मुस्लिम रियासत मालेर कोटला के मुस्लिमों से हो गया था जिन्होंने उस शिष्य को पीटा और पीटकर फिर एक गाय उसके पास लाकर हलाल कर दी गयी।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)