बिखरे मोती : महान बनो, किन्तु अपने आधार से जुड़े रहो :-
कभी लावा भू-गर्भ में,
कभी शिखर बन जाय।
बर्फ की चादर मिल गई,
हरियाली छुट जाय॥2264॥
प्रभु से जब भी मांगो तो इन तीनो को मांगो
दिव्य गुणो से चित मेरा,
होय सदा भरपूर।
सरस्वती हो वाक में,
आत्मा में हरि – नूर॥2265॥
लालच बुरी बलाय है
लालच में मत पाप कर,
भोगेगा तू आप।
डरना ख़ुदा के खौफ से,
एक दिन हो इन्साफ॥2266॥
देवासुर – संग्राम के संदर्भ में:-
देवासुर संग्राम है,
मन- आंगन के बीच।
कोई जीते कोई हारजा,
मिलें कीच में कीच॥2267॥
भक्ति की रंगत तो बड़ी मुश्किल से चढ़ती है:-
हृदय में मुश्किल उठे,
हरि-मिलन की हिलोर।
आ३म्- नाम का जाप कर,
होकै भाव विभोर॥2268॥
सुर और असुर की सोच के संदर्भ में :-
सरिता – सलिल बहता चले,
साथ में बहता रेत।
रेत की मंज़िल पेंद हैं,
सरिता सागार खेत॥2269॥
विशेष:-
करुणा के संदर्भ में ‘शेर :-
कभी रोती कभी हँसी,
कभी लगती शराबी सी।
मोहब्बत जिनमें होती है,
वो आँखें और होती हैं॥
नोट :- उपरोक्त ‘शेर मेरा नहीं है।
"विशेष शेर"
‘मैं’ और ‘वह’ के संदर्भ मे:-
पिंजरे में रहता हूँ ,
मगर पिंजरे से बेखबर हूँ ।
जहाँ रूहानियत का खज़ाना है,
वहीं, ‘वह’ हमसफ़र मेरा।
रूक नीड़ में रहते,
‘मैं’ को पहचाना नहीं मैने।
‘वह’ को जाना नहीं मैने,
कशिश ये रह गई दिल में।
दौलत को बेसबर हूँ ,
पिंजरे में रहता हूँ….।
कोई पूछे पता मेरा ,
तो इतना ही बता देना।
‘मैं’ राही था रुहानी राह का,
आज खाली हाथ जा रहा हूँ।
अमृत का घाट पाकर भी,
मैं प्यासा जा रहा हूँ।
- पूर्व प्रवक्ता
विजेन्द्र सिंह आर्य
तत्वार्थ – पाठको की जानकारी के लिए बताना उपयुक्त रहेगा उपयुक्त शेर में ‘मैं’ से अभिप्राय आत्मा से है
और वह से अभिप्राय परमात्मा से है,
आत्मा में ही परमात्मा का वास है ये दोनो चित रूपी नीड़ में रहते है किन्तु आश्चर्य यह है कि आत्मा का परिचय परमात्मा से नहीं हो पाता जबकि मनुष्य जीवन लक्ष्य प्रभु प्राप्ति है वह उस प्राप्ति से वंचित रह जाता है और प्रभु मिलन की प्यास पूरी नहीं होती है।