रानी सारंधा के विषय में
भारत की वीरांगनाओं में रानी सारंधा का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। सारंधा बुंदेला राजा चंपतराय की सहधर्मिणी थी। जब सारंधा छोटी ही अवस्था में थी, तभी से उसकी देशभक्ति उस पर हावी होने लगी थी। स्वतंत्रता के भाव उसमें कूट-कूटकर भरे थे, इसलिए आत्माभिमान की भी कोई न्यूनता उसमें नही थी। अपने देश और धर्म के प्रति यह बालिका पूर्णत: समर्पित थी, इसलिए जो लोग देश की स्वतंत्रता, देश के धर्म और देश की संस्कृति को मिटाकर यहां किसी अन्य धर्म-शासन की स्थापना करने के लिए संघर्षरत थे, सारंधा जन्मजात उनसे शत्रुता मानकर उत्पन्न हुई थी।
धिक्कारा भाई अनिरूद्घ को
जब सारंधा यौवन में प्रवेश कर रही थी तब उसका भाई अनिरूद्घ यवनों से हो रहे एक युद्घ से पीठ दिखाकर भाग आया था। पर अनिरूद्घ की पत्नी शीतला को उसका इस प्रकार युद्घ से भाग आना अच्छा लगा। उसे पति का वियोग और विछोह प्रिय नही था। अत: बड़े प्रेमपूर्ण ढंग से उसने युद्घ से भागकर आये पति का स्वागत सत्कार किया। परंतु सारंधा को भाई का युद्घ क्षेत्र से इस प्रकार भागकर आना एक क्षण के लिए भी उचित नही लगा। उसने भाई से स्पष्ट कह दिया कि एक क्षत्रिय को युद्घ से भागकर आना शोभा नही देता। तुमने युद्घ से भागकर आकर कुल की मर्यादा को लज्जित किया है, तुम्हारे इस कार्य को मैं धिक्कारती हूं।
सारंधा की बात शीतला को तो अच्छी नही लगी, पर अनिरूद्घ पर उसकी धिक्कार का चमत्कारिक प्रभाव हुआ और वह लौट गया-युद्घभूमि के लिए। उसके जाने के पश्चात शीतला ने सारंधा पर व्यंग्य कसा-”देखूंगी जब अपने पति को इस प्रकार युद्घ के लिए भेजोगी? अपने पति को तो तुम भी हृदय में छुपाओगी?”
मेरा पति होता तो छुरा घोंप देती
सारंधा ने स्पष्ट कर दिया कि अनिरूद्घ तुम्हारे पति थे इसीलिए छोड़ दिया, यदि देशधर्म की स्वतंत्रता से पीठ दिखाकर मेरा पति भागकर आया होता तो हृदय में छुपाकर छाती में छुरा घोंप देती। कहा जाता है कि इस घटना से प्रेरित और अपमानित होकर युद्घभूमि में पहुंचे अनिरूद्घ ने जमकर घोर युद्घ किया और उस युद्घ (महारौनी का) को जीतकर ही लौटा।
ओरछा के राजा चंपतराय से हुआ विवाह
सारंधा जब यौवन में आयी तो उसका विवाह ओरछा के राजा चम्पतराय के साथ हुआ। चंपतराय बहुत ही वीर और स्वतंत्रता प्रेमी देश भक्त राजा थे। रानी सारंधा को अपने पति की वीरता और स्वतंत्रता प्रेमी भावना पर बड़ा गर्व होता था। क्योंकि वह भी तो ऐसा ही पति चाहती थी। सारा बुंदेला क्षेत्र अपने राजा की प्रतिष्ठा करता था, और उसके पीछे खड़े होकर अपनी स्वामी भक्ति और देशभक्ति का परिचय देता था।
बादशाह शाहजहां के दरबार में चंपतराय
समय परिवर्तनशील है। परिस्थितियों का प्रवाह ऐसा बना कि सारंधा के पति चंपतराय को बादशाह शाहजहां के दिल्ली दरबार में जाने के लिए बाध्य होना पड़ा गया। चंपतराय ने अपना राज्य अपने भाई पहाड़सिंह को सौंप दिया और स्वयं अपनी रानी सारंधा सहित शाहजहां के यहां चला गया। सारंधा रानी से अलग,चंपतराय की पांच रानियां और भी थीं। चंपतराय को दिल्ली में सारी सुविधाएं प्रदान की गयीं। शाहजहां के लिए यह प्रसन्नता का विषय था कि चंपतराय जैसा शेर उसके पिंजड़े में आ गया था, इसलिए शाहजहां ने इस शेर को पिंजड़े में ही रखकर मार डालने का हर सामान और सुविधा उसे उपलब्ध करा दी।
तड़प रही थी सारंधा की आत्मा
चंपतराय और उसकी पांचों रानियां (सारंधा से अलग) सुख सुविधाओं के इस उपक्रम से अति संतुष्ट और प्रसन्न थे। परंतु सारंधा इस परतंत्रता को अपने लिए अपमान का विषय मानती थी, इसलिए उसके मन का मोर मर गया और वह बुझी-बुझी सी रहने लगी।
शाहजहां के महल में उसका अति उदारचित्त वाला पुत्र दाराशिकोह भी था, जो कि बादशाह के राजकार्यों को संभालने में सहायता किया करता था। उसकी मित्रता चंपतराय से हो गयी थी। जिससे चंपतराय को और भी अच्छा लगने लगा था। पर चंपतराय जब अपनी सारन (सारंधा) को देखते तो उसके बुझे-बुझे से चेहरे को देखकर स्वयं भी दुखी से रहते थे। वह समझ नही पा रहे थे कि अंतत: रानी सारन उदास क्यों रहती है? एक दिन उन्होंने रानी से पूछ ही लिया कि तुम इतनी उदास सी क्यों रहती हो?
सारंधा ने पहले तो अपनी व्यथा को छुपाने का प्रयास किया, परंतु अंत में उसने अपने ‘मन की बात’ कह ही दी। उसने कह दिया कि-‘राजन! ओरछा में मैं एक राजा की रानी थी, पर यहां मैं एक जागीरदार की चेरी हूं।’
वह बोली-
अवध की कौशल्या थी मैं,
जब ओरछा में था मेरा वास।
दिल्ली में हूं एक सेविका
सूने लगते हैं रनिवास।।
चेरी होकर भी खुश रहूं
स्वामी यह नही मेरे हाथ।
हे स्वतंत्रता के परमोपासक
क्यों ज्योति बुझा रहे अपने हाथ।। (लेखक)
चंपतराय की आंखें खुल गयीं
रानी सारंधा की बातों को सुनकर चंपतराय की आंखें खुल गयीं। वह समझ गया कि सारंधा के विचार कितने ऊंचे हैं। सारंधा ने धर्मपतित पति के गिरते विचारों को थाम ही नही लिया था, अपितु उन्हें अधोगामी से ऊध्र्वगामी भी बना दिया था। राजा चंपतराय के नेत्र सजल हो उठे। बड़े प्रेम से राजा ने सारंधा को गले लगा लिया।
चंपतराय पुन: ओरछा लौट आये। ओरछा के लोगों को भी लगा कि राजा ने अपने ऐश्वर्यों को त्यागकर ‘ओरछा’ आकर उचित ही किया है। रानी सारंधा भी प्रसन्नवदन रहने लगी थी। मुगल दरबार की राजनीति में आया परिवर्तन
पर उधर कुछ काल उपरांत बादशाह शाहजहां रूग्ण हो गया। तब उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का संघर्ष आरंभ हो गया। शाहजहां के पुत्र मुराद और मुहीउद्दीन दक्षिण से दिल्ली के लिए चल दिये। वर्षा के कारण चंबल का जल प्रवाह बड़ा तेज था। दोनों शाहजादों ने यहां आकर डेरा डाल दिया। नदी पार करने के लिए राजा चंपतराय से सहायता प्राप्त करने का पत्र लिखा। चंपतराय ने रानी सारंधा से परामर्श लिया और शाहजादों की सहायता के लिए तैयार हो गया। यद्यपि शाहजादों की सहायता का अर्थ था दाराशिकोह जैसे परम मित्र से शत्रुता लेना, पर सारंधा ने स्पष्ट कर दिया कि जिसने याचना की है, उसे निराश नही करना है। इसलिए उनकी सहायता करो, और शत्रु का विनाश कर दिल्ली को अपने आधीन करने की तैयारी करो।
मुगलों से युद्घ
बड़े लक्ष्य को लेकर चंपतराय की सेना ओरछा दुर्ग से निकलकर चंबल की ओर चल दी। रानी सारंधा ने अपने दो राजकुमारों व पति चंपतराय को युद्घ के लिए विदा किया। रानी के ओजस्वी विचारों से प्रेरित होकर राजकुमार और राजा चंपतराय चंबल की ओर बढऩे लगे। शाहजादों ने जब राजा की सेना को अपनी ओर आते देखा तो उनका साहस बढ़ गया। उधर शाही सेना में एक विशेष प्रकार की हलचल सी उत्पन्न हो गयी। युद्घ की विभीषिका वास्तविक युद्घ में परिवर्तित हो गयी। बुंदेलों की सहायता के लिए रानी सारंधा भी एक सेना लेकर पीछे से आ गयी।
रानी ने पलट दिया युद्घ का परिणाम
रानी वीरांगना थी और उसे अपने पति के साथ युद्घ में रहना ही अच्छा लगता था, वह नही चाहती थी कि यह अनमोल जीवन विषय वासना में यूं ही व्यतीत हो जाए। इसके विपरीत उसका सपना था कि जीवन देशधर्म के काम आये तो अच्छा है। इसलिए रानी पूरी तैयारी के साथ पीछे से आयी और उसने पश्चिम की ओर से बादशाही सेना पर इतना तीव्र प्रहार किया कि जो सेना अभी तक विजय की कहानी लिखने के निकट खड़ी थी, अब वही सेना भागने पर विवश हो गयी। रानी सारंधा ने युद्घ का परिणाम पलट दिया। लोग समझ नही पाये कि पश्चिम से सूर्योदय कराने का यह चमत्कार कैसे और किसने कर दिया। राजा भी आश्चर्य चकित था कि यह चमत्कार कैसे हो गया?
जब रानी सारंधा उसके सामने आयी और उसने घोड़े से उतरकर राजा के समक्ष अपना सिर झुकाया तो राजा चंपतराय को पता चला कि ‘सारंधा’ किसे कहते हैं?
मुंशी प्रेमचंद इस विषय में लिखते हैं :- ”अगर अनुभवशील सेनापति राष्ट्रों की नींव डालता है तो आन पर जान देने वाला मुंह न मोडऩे वाला सिपाही राष्ट्र के भावों को उच्च करता है और उसके हृदय पर नैतिक गौरव को अंकित कर देता है। उसे इस कार्यक्षेत्र में चाहे सफलता न हो, किंतु जब किसी वाक्य यासभा में उसका नाम जबान पर आ जाता है, श्रोतागण एक स्वर से उसके कीर्ति गौरव को प्रतिध्वनित कर देते हैं। सारंधा ‘आन’ पर जान देने वालों में थी।”
औरंगजेब ने दी जागीर
औरंगजेब ने इस युद्घ के पश्चात राजा चंपतराय को कृतज्ञतावश ओरछा से बनारस और बनारस से यमुना तक के क्षेत्र की जागीर प्रदान की। यह जागीर ओरछा के राजा के लिए गर्व का विषय हो सकता था, परंतु सारंधा के लिए नही। क्योंकि सारंधा ने चाहे दाराशिकोह जैसे उदार शाहजादे के विरूद्घ औरंगजेब को युद्घ में अपना समर्थन दिया हो, पर यह समर्थन उसने केवल अपना धर्म मानकर दिया था, वह इसका कोई ऐसा प्रतिकार नही चाहती थी, जिसमें उसकी स्वतंत्रता और निजता ‘पिंजड़े का पंछी’ बनकर रह जाए।
…और यही तो हो गया था। विशाल जागीर मिल जाने के उपरांत राजा चंपतराय पुन: सुख प्राप्ति के लिए भोग विलास में डूब गये। पर सारंधा की आत्मा फिर विद्रोही बनने लगी। उसकी वही उदासी पुन: लौट आयी जो दिल्ली दरबार के सम्मान को पाकर उसके आसपास डेरा डालकर बैठ गयी थी। तब उसका मौन भी कुछ बोलता था और अब फिर उसका मौन राजा चंपतराय से कुछ कहने लगा। राजा भोग विलास में मग्न रहकर भी सारंधा के मौन को लेकर चिंतित रहते थे।
वली बहादुर का घोड़ा और रानी सारंधा
बताते चलें कि युद्घ के समय औरंगजेब का एक विश्वसनीय योद्घा वली बहादुर जब गंभीर रूप से घायल हो गया तो उसका घोड़ा घायल पड़े वली बहादुर के पास ही खड़ा हुआ था। समर भूमि में रानी सारंधा ने उस घोड़े की सुंदरता को देखकर उसे अपने लिए प्राप्त कर लिया। एक दिन उसी घोड़े की सवारी करता राजकुमार छत्रसाल वली बहादुर की ओर जा निकला। बली बहादुर को भी उसकी निष्ठा के कारण औरगंजेब नेविशेष सम्मान देकर दरबार में उसकी प्रतिष्ठा में वृद्घि की थी। इसलिए वह भी उस समय का एक प्रमुख व्यक्ति था।
वली बहादुर ने जब देखा कि छत्रसाल उस घोड़े को लेकर उसकी ओर ही आ गया है तो उसने वह घोड़ा छत्रसाल से छिनवा लिया। रानी ने जब यह समाचार सुना तो वह क्रोध से तमतमा उठी। उसने छत्रसाल को धिक्कारा-”घोड़ा देकर भी जीवित लौट आया? क्या तेरे शरीर में बुंदेलों का रक्त नही है? ….तुझे अपनी वीरता का प्रदर्शन करना चाहिए था।”
इसके पश्चात स्वाभिमानी और स्वतंत्रता प्रेमी रानी घोड़े को प्राप्त कराने के लिए अपने विश्वसनीय 25 योद्घाओं क ो साथ लेकर युद्घ की मुद्रा में वली बहादुर के निवास पर जा पहुंची। वली बहादुर खां उसी घोड़े से सवार होकर औरंगजेब के दरबार में चला गया था। रानी ने भी वहीं जाने का निर्णय लिया।
रानी सिंहनी की भांति दहाड़ती हुई अपने शिकार पर दरबार में ही जाकर टूट पड़ी। रानी ने वली बहादुर खां को ऐसे कठोर शब्दों में लताड़ा कि थोड़ी देर में ही वहां घोड़े को लेकर युद्घ आरंभ हो गया। बादशाह ने रानी को समझाया भी कि एक घोड़े के लिए युद्घ मत करो, परंतु रानी ने बादशाह को स्पष्ट कर दिया कि बादशाह बात घोड़े की नही है-बात मेरी आन की है, और आन के लिए प्राण भी गंवाने में एक क्षत्रिय को तनिक सा भी विलंब नही करना चाहिए और अंत में रानी ने वली बहादुर को परास्त कर घोड़ा ले ही लिया।
सारी जागीर से हाथ धोना पड़ गया
रानी ने घोड़ा ले लिया पर सारी जागीर से उसे हाथ धोना पड़ गया। राजा चंपतराय के लिए यह सब कुछ बहुत असहनीय हो गया था, उसे लगा कि जीवन भर के पुरूषार्थ से जो कुछ पाया था-जैसे वह सारा का सारा ही हाथ से निकल गया है। अपने सामने ही जब व्यक्ति के सपनों की मृत्यु होती है तो उसे कितना कष्ट होता है-उसे केवल वही जानता है। पर चंपतराय यह भी जानता था कि रानी सारंधा के सामने इस सब बातों के लिए रोना व्यर्थ ही सिद्घ होगा। इसलिए वह चुप रहा।
औरंगजेब ने पाल ली थी शत्रुता
समय बीतने लगा। उधर औरंगजेब को रानी सारंधा की स्वाभिमानी और स्वतंत्रता प्रेमी भावना घायल कर गयी थी। औरंगजेब के लिए यह तो और भी अधिक कष्टकारी था कि एक हिंदू महिला उसे भरे दरबार में अपमानित कर गयी और उसके प्रस्ताव को सबके सामने उसने अस्वीकार कर दिया। अत: औरंगजेब ने भी रानी सारंधा को समाप्त करने की तैयारी करनी आरंभ कर दी। बादशाह ने शुभकरण नामक हिंदू सूबेदार को चंपतराय के विरूद्घ युद्घ अभियान पर भेजा। शुभकरण चंपतराय का बचपन में सहपाठी भी रहा था।
दुर्भाग्य से राजा चंपतराय के कई दरबारी भी उससे टूटकर औरंगजेब से आ मिले थे। पर राजा चंपतराय ने और रानी सारंधा ने अपना धैर्य और साहस नही खोया, उन्होंने बड़े शांतमन से युद्घ की तैयारी करनी आरंभ कर दी। दोनों पक्षों में घोर संग्राम हुआ। राजा चंपतराय युद्घ में जीत गये। यद्यपि उन्हें अपने साथियों के धोखे भी झेलने पड़े, परंतु स्वतंत्रता के लिए तो सब कुछ सहन करना पड़ता है। राजा ने अपनी शक्ति को पहचाना, इसलिए उन्होंने निर्णय लिया कि ओरछा से अब निकल जाना ही उचित होगा। अत: राजा ओरछा को छोडक़र तीन वर्ष तक बुंदेलखण्ड के वनों में छिपकर घूमते रहे।
राजा चला गया वनों की ओर
राजा को स्वाभिमान के लिए और आत्म सम्मान की रक्षार्थ महाराणा प्रताप का अनुगामी बनना पड़ गया। वैसे संकट काल में एक नही अनेकों भारतीय राजाओं ने ‘महाराणा प्रताप’ बनकर वनों में अपना समय व्यतीत किया है। संकट कब आ जाए, और कब राजसी वैभव त्यागना पड़ जाए, यह कुछ पता नही होता। संभवत: राजा के लिए भी अंत में संन्यस्त हो जाने की परंपरा इसीलिए डाली गयी थी कि वन को भी ‘उपवन’ मानो और इस संसार को भी। इसलिए हमारे राजा वन जाने को को तत्पर रहते थे। वनों से मुक्ति मिलती थी।
रानी सारंधा भी निभा रही थी साथ
चंपतराय भी मुक्ति का साधक बनकर वनों में घूम रहे थे। साथ में रानी सारंधा अपना पत्नीधर्म निभा रही थी, और कत्र्तव्य मार्ग पर चल रहे पति का उत्साहवर्धन करने में तनिक भी पीछे नही रहती थी। वह स्वतंत्रता की देवी बन गयी थी और अपने देव (पति) की आराधना को अपने जीवन का ध्येय ही मान बैठी थी।
औरंगजेब ने राजा चंपतराय को बंदी बनाने के लिए अनेकों प्रयास किये। कितने ही लोगों को इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए नियुक्त भी किया पर सभी प्रयास असफल रहे। तब अंत में चंपतराय की गिरफ्तारी का दायित्व बादशाह ने स्वयं अपने ऊपर लिया। बादशाही सेना हटा ली गयी। जिससे राजा को लगा कि संभवत: बादशाह ने हार मान ली है और अब उसके लिए कोई भय नही रह गया है।
रानी सारंधा की कूटनीति
राजा अपने किले में ओरछा आ गया। औरंगजेब ने ओरछा दुर्ग का घेरा डाल दिया। उसने ओरछा में आकर भारी विनाश मचाया। किले में भीतर लगभग 20,000 व्यक्ति बंद थे, लगभग तीन सप्ताह किले की घेराबंदी को हो गये थे। राजा की शक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होती जा रही थी। राजा इस समय ज्वर से पीडि़त थे, उन्हें एक दिन लगा कि जैसे शत्रु आज किले में आ जाएंगे। उन्होंने सारंधा के साथ विचार-विमर्श किया। सारंधा ने किले से बाहर निकल जाने का प्रस्ताव राजा के समक्ष रखा। परंतु राजा अपनी प्रजा के लोगों को इस दशा में छोडक़र जाने की रानी की सलाह से सहमत नही थे। रानी ने भी समझा कि संकट के समय अपने सहयोगियों को यूं ही छोड़ जाना उचित नही है। रानी ने अपने पुत्र छत्रसाल को बादशाही सेना के पास संधि प्रस्ताव लेकर भेजा, जिससे कि निर्दोष लोगों के प्राण बचाये जा सकें। अपने देशवासियों की रक्षा के लिए रानी ने अपने प्रिय पुत्र को संकट में डाल दिया। छत्रसाल स्वेच्छा से बादशाह के शिविर में चला गया।
बादशाह औरंगजेब का प्रतिज्ञापत्र
बादशाह ने छत्रसाल को अपने पास रख लिया और प्रजा से कुछ न कहने का प्रतिज्ञापत्र भिजवाना सुनिश्चित किया। रानी को यह प्रतिज्ञापत्र उस समय मिला जब वह प्रात:काल में मंदिर जा रही थी, उसने प्रतिज्ञापत्र पढ़ा, पढक़र उसे प्रसन्नता हुई, पर पुत्र छत्रसाल के खोने का दुख भी हुआ। रानी ने राजा को प्रस्ताव दिखाया, राजा चंपतराय को छत्रसाल के विषय में सुनकर असीम दुख हुआ, वह मूच्र्छित होकर गिर पड़े। पर सारंधा तो मां होकर भी शेरनी बनी खड़ी थी उसने राजा को संभाला।
संकट ने आ घेरा रानी को
अब रानी ने चंपतराय को अंधेरे में किले से निकालने की योजना बनाई। आज उसे शीतला से किये गये वचन भी स्मरण आ रहे थे। रानी राजा को लेकर पश्चिम की ओर लगभग दस कोस निकल गयी थी। राजा पालकी में अचेतावस्था में थे। जो लोग साथ में थे, उन सबको प्यास ने घेर लिया था। अचानक पीछे से एक सैनिक दल आता दिखाई दिया। रानी ने देखा कि वह बादशाह के सैनिक थे।
रानी ने संकट को भांप लिया। उसने डोली रूकवा दी। राजा डोली में से किसी प्रकार बाहर निकले पर रूग्णावस्था के कारण शरीर अशक्त हो चुका था। इसलिए बाहर आकर खड़े हुए तो गिर पड़े।
रानी की अंतिम समय की वीरता
रानी की आंखें सजल हो उठीं। उसे ज्ञात हो गया कि स्वतंत्रता और सम्मान के लिए जो सबसे बड़ा मूल्य चुकाया जाता है आज उसे देने का समय आ गया है। राजा ने परिस्थिति को देखा, समझा और तुरंत निर्णय लिया। रानी से बोले-”सारन! तुमने सदा मेरे सम्मान को द्विगुणित करने का काम किया है। एक काम करोगी?”
रानी नेआंखों से आंसू पोंछते हुए साहस के साथ कहा-”अवश्य महाराज।”
राजा ने कहा-‘मेरी अंतिम याचना है-इसे अस्वीकार मत करना।’
रानी ने अपनी तलवार अपने हाथों में ले ली। बोली-‘महाराज यह आपकी आज्ञा नहीं मेरी इच्छा है कि आपसे पहले मैं संसार से जाऊं।’
रानी राजा का आशय नही समझ पायी थी। तब राजा ने कहा मेरा आशय है कि अपनी तलवार से मेरा सिर काट दो। मैं शत्रु की बेडिय़ां पहनने के लिए जीवित नही रहना चाहता।
रानी ने कहा-‘नही महाराज! मेरे से यह अपराध नही हो सकता।’
इसी समय रानी के सैनिकों में से अंतिम सैनिक को भी शत्रु ने समाप्त कर दिया। रानी ने कठोर निर्णय लिया और अपने पति का अपने हाथों से हृदय छेद दिया।
स्वयं भी विदा हो गयी रानी
बादशाह के सैनिक रानी के साहस को देखकर दंग रह गये। सरदार ने आगे बढक़र रानी से कहा-
हम आपके दास हैं, हमारे लिए आपका क्या आदेश है। मुंशी प्रेमचंद जी लिखते हैं-सारंधा ने कहा-”अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो, तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना। यह कहकर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली। जब वह अचेत होकर धरती पर गिरी, उसका सिर राजा चंपतराय की छाती पर था।”
यह है हमारे देश का इतिहास। यहां के वीरों और वीरांगनाओं के वीरोचित कृत्य जिनके कारण यह देश लंबे काल के संकट (जिसे हम अज्ञानतावश अपना पराधीनता का काल कह देते हैं) से मुक्त होकर आज स्वतंत्र है। स्वतंत्रता की बलिवेदी पर जब-जब कोई फूल चढ़ाने जाएगा, तब-तब उसे चंपतराय और रानी सारंधा का प्रेरक जीवन अवश्य ही प्रेरित करेगा कि झुकना नही है और स्वतंत्रता के लिए चाहे जो बलिदान देना पड़े उसे सहर्ष दिया जाए।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत