हमारे उपनिषद हमारे महान ऋषियों की मेधा शक्ति और उनकी आध्यात्मिक शक्ति के प्रदर्शन का एक अकाट्य प्रमाण है। उपनिषदों के गूढ़ रहस्यों को समझकर हमें यह पता चलता है कि हमारे देश में प्राचीन काल से ही बौद्धिक जागृति की हलचल रही है। साधना की अमोघ शक्ति की घुट्टी पीकर हमारे ऋषियों ने प्रकृति और परमपिता परमेश्वर के साथ अद्भुत समन्वय स्थापित कर अपनी महामेधा को जागतिक कल्याण में प्रकट किया। उनकी साधना और भक्ति की पराकाष्ठा को देखकर पता चलता है कि जैसे ओ३म में जीव के अस्तित्व का प्रतीक “उ” अक्षर अखिल परमपिता परमेश्वर और प्रकृति के बीच खड़ा होकर दोनों ओर का आनंद लेता है, वैसे ही हमारे ऋषियों ने प्रकृति और परमपिता परमेश्वर के बीच खड़े होकर दोनों ओर के अद्भुत नजारों को अपनी नजरों में कैद किया और उस का आनंद उठाया। इसके उपरांत भी उन्होंने प्रकृति की ओर उतना ही देखा जितना मानव जीवन को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक होता है। अपेक्षा से अधिक प्रकृति में रमना उन्होंने उचित नहीं माना। उन्होंने परमपिता परमेश्वर की ओर देखा और उस ओर बढ़ते- बढ़ते लंबी दूरी तय कर मोक्ष का आनंद प्राप्त किया। भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की यह अनूठी विरासत है । जिस पर हमें गर्व है।
विरासत पर हमें गर्व है , है गौरवपूर्ण अतीत।
बखान नहीं कोई कर सके, ऐसा वर्णनातीत।।
हमारे अनेक सम्राट भी ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपने ज्ञान की महत्ता का लोहा संसार से मनवाया। राजकाज के कार्यों को करने के पश्चात भी परमपिता परमेश्वर से उनका गहन संवाद जारी रहता था। संसार में रहकर भी संसार से अलग रहने की उनकी अनूठी साधना सचमुच भारत की ऐसी धरोहर है जिसके सामने संसार की सारी धरोहर नाशवान सिद्ध होती हैं। शायद भारत इसीलिए सनातन है कि उसकी विरासत भी सनातन और अक्षुण्ण के रूप में उसका मार्गदर्शन करती है। विदेहराज जनक हमारे उन सम्राटों के प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने राज्य कार्य में व्यस्त रहकर भी परमपिता परमेश्वर की भक्ति की मस्ती का आनंद लिया।
एक बार उन्होंने यज्ञ मंडप पर अनेक तत्त्ववेत्ताओं को एकत्र किया। उन्होंने एक हजार गायों के सींगों पर 10 – 10 स्वर्ण मुद्राएं बांध दीं। राजा ने घोषणा कर दी कि जो कोई भी ब्रह्म को सबसे अधिक जानने की बात कहता हो, वह इन गायों को हांक कर ले जा सकता है। राजा की इस प्रकार की शर्त को सुनकर सारे ऋषि मंडल में सन्नाटा छा गया। कोई भी इस बात का साहस नहीं कर पा रहा था कि वह ब्रह्म को सबसे अधिक जानता है। तब उस सन्नाटे को चीरती हुई एक आवाज अचानक फूट पड़ी। याज्ञवल्क्य ऋषि ने कड़कती हुई आवाज में कहा कि “सौम्य सामश्रवा ! इन गायों को ले चलो।” ऋषि याज्ञवल्क्य को जनक के ऋत्विज अश्वल ने चुनौती देते हुए कहा कि “याज्ञवल्क्य ! क्या सचमुच तुम अपने आपको हम सबसे अधिक ब्रह्म का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता मानते हो ?”
उन्होंने ऋषि याज्ञवल्क्य को रोकते हुए कहा कि याज्ञवल्क्य! सब कुछ मृत्यु से आच्छादित है। तब वह मृत्युपाश से यजेता किस साधन के माध्यम से मुक्ति प्राप्त कर सकता है?
इस प्रश्न के उत्तर में ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा कि “यजेता ऋत्विक रूप अग्नि एवं वाक द्वारा उसका अतिक्रमण कर सकता है। वाक ही यज्ञ का होता कहा जाता है। वही अग्नि है। वही मुक्ति है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने अश्वल के पश्चात भुज्यू जैसे ऋषियों को भी अपनी मेधा शक्ति से निरुत्तर कर दिया। तदुपरांत विदुषी गार्गी ने मैदान संभाला। उन्होंने महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछा कि काशी या विदेह के राजन्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर शत्रु के लिए कराल बाण लिए हुए जिस प्रकार आगे बढ़ते हैं मैं भी उसी प्रकार से इन दो प्रश्नों को संधाने हेतु तुम्हारी ओर अग्रसर होती हूं। इनका उत्तर दो !”
मेधा शक्ति से हुई, सब की बोलती बंद।
मैदान में आई गार्गी, छिड़ा दोनों में द्वंद्व।।
ऋषि याज्ञवल्क्य की अनुमति स्वीकृति मिलने के पश्चात गार्गी ने पूछा कि ” हे ऋषिवर ! क्या आप अपने आपको सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी मानते हैं ? “
इस पर ऋषि याज्ञवल्क्य बोले, ‘ हे देवी ! मैं स्वयं को ज्ञानी नही मानता , परन्तु इन गायों को देख मेरे मन में ‘मोह ‘ उत्पन्न हो गया है। ”
एक ऋषि के मुंह से ‘ मोह ‘ जैसे शब्द को सुनकर गार्गी को मानो अपने शास्त्रार्थ को आगे बढ़ाने का एक उचित कारण और माध्यम मिल गया । वैसे महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी ‘ मोह ‘ जैसे शब्द को वहां जानबूझकर ही व्यक्त किया था , क्योंकि वह भी यही चाहते थे कि उनसे कोई चर्चा करें और चर्चा या शास्त्रार्थ प्रारंभ करने के लिए कोई ऐसी बात होनी ही चाहिए जो शास्त्रार्थ को आगे बढ़ाने का माध्यम बने। एक ऋषि के मुंह से मोह जैसा शब्द सुनकर गार्गी ने ऋषि को चुनौती दी तब उन्होंने महर्षि याज्ञवल्क्य पर और भी करारा प्रहार करते हुए और अपने प्रश्न को धार देते हुए कहा ‘आप को ‘मोह ‘ हुआ, यह उपहार प्राप्त करने के लिए योग्य कारण नही है। ऋषिवर ! ऐसे में तो आप को यह सिद्ध करना ही होगा कि आप इस उपहार के योग्य हैं। यदि सर्वसम्मति हो तो मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहूंगी, यदि आप इनके संतोषजनक उत्तर प्रस्तुत करेंगे तो ही आप इस पुरस्कार के अधिकारी होंगे।
ऋषि याज्ञवल्क्य ने विदुषी गार्गी को स्वयं से प्रश्न पूछने की अनुमति प्रदान की । तब विदुषी गार्गी ने ऋषि याज्ञवल्क्य से बड़ा सरल सा प्रश्न पूछ लिया कि — ” हे ऋषिवर ! जल में हर पदार्थ बड़ी सरलता से घुलमिल जाता है, परंतु मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि यह जल किसमें जाकर मिल जाता है ?”
तब ऋषि याज्ञवल्क्य ने गार्गी के इस प्रश्न का वैज्ञानिक और तार्किक उत्तर देते हुए कहा कि ‘जल अन्तत: वायु में ओतप्रोत हो जाता है।” हम देखते ही हैं कि समुद्र से अतुलित जल मानसूनी प्रक्रिया के अंतर्गत वायु में मिल जाता है।
इसके पश्चात गार्गी का अगला प्रश्न था कि ‘वायु किसमें जाकर मिल जाती है?”
याज्ञवल्क्य का उत्तर था कि ”अंतरिक्ष लोक में।”
जब गार्गी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी तो गार्गी को लगभग डांटते हुए याज्ञवक्ल्य ने कहा- ” गार्गी, इतने प्रश्न मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा माथा ही फट जाए।”
वास्तव में अब गार्गी ने सृष्टि के संबंध में रहस्य भरे प्रश्न पूछने आरंभ कर दिए थे । जिससे ब्रह्मज्ञानी ऋषि याज्ञवल्क्य स्वयं हतप्रभ रह गए । ऋषि याज्ञवल्क्य के मुंह से कुछ कठोर शब्द सुनने के पश्चात गार्गी ने उनके अहम की तुष्टि के लिए अपने आपको कुछ क्षणों के लिए मौन कर लिया । परंतु इसके पश्चात वह फिर प्रश्न करने की मुद्रा में आ गई । गार्गी ने ऋषि के सम्मान और अहम का पूरा ध्यान रखते हुए बड़ी सधी सधायी शैली में पूछ लिया कि – ‘ऋषिवर ! सुनो , जिस प्रकार काशी या विदेह का राजा अपने धनुष की डोरी पर एक साथ दो अचूक बाणों को चढ़ाकर अपने शत्रु पर सन्धान करता है, वैसे ही मैं आपसे दो प्रश्न पूछती हूं। ”
याज्ञवल्क्य ने अपने आप को संभालते हुए अर्थात कुछ संतुलित सा करते हुए कहा – ‘हे गार्गी, पूछो।”
तब गार्गी ने पूछा – ” स्वर्गलोक से ऊपर जो कुछ भी है और पृथ्वी से नीचे जो कुछ भी है और इन दोनों के मध्य जो कुछ भी है, और जो हो चुका है और जो अभी होना है, ये दोनों किसमें ओतप्रोत हैं ? ”
आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में यदि गार्गी के इस प्रश्न का रूपांतरण या शब्दांतरण किया जाए तो गार्गी ने ऋषि याज्ञवल्क्य से सीधे-सीधे स्पेस और टाइम के बारे में प्रश्न किया था । उसका प्रश्न यही था कि स्पेस और टाइम के बाहर भी कुछ है या नहीं है ?
गार्गी के प्रश्नों का अभिप्राय था कि सारा ब्रह्मांड किसकी सत्ता के अधीन है अर्थात किसके शासन , प्रशासन या अनुशासन में यह सारा ब्रह्मांड कार्य कर रहा है या गतिशील है ?
किसका शासन-प्रशासन है और किसका है अनुशासन ?
ब्रह्मांड किसके अधीन है भगवन ! कहां स्थित उसका आसन?
गार्गी के तीखी धार वाले इन प्रश्नों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हुए ऋषि याज्ञवल्क्य ने बड़े प्रेम से उत्तर देते हुए कहा — ‘एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी। ” अर्थात हे गार्गी ! यह सारा ब्रह्मांड एक अक्षर अविनाशी तत्व के शासन , प्रशासन और अनुशासन में गतिशील है अर्थात कार्य कर रहा है ।
अन्त में उन्होंने पूछा कि ‘ हे याज्ञवल्क्य ! यह सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है ?”
गार्गी के इस प्रश्न पर याज्ञवल्क्य का उत्तर था- ‘ हे गार्गी ! अक्षरतत्व के आधीन यह सारा ब्रह्मांड कार्य कर रहा है !” इतना कहने के पश्चात ऋषि याज्ञवल्क्य ने अक्षरतत्व के बारे में अपना गंभीर चिंतन सभी ऋषियों के मध्य प्रस्तुत किया । जिससे राजा जनक सहित सभी ऋषिगण गदगद हो उठे । वे अन्तत: बोले, ‘गार्गी इस अक्षर तत्व को जाने बिना यज्ञ और तप सब कुछ व्यर्थ है। ब्राह्मण वही है जो इस रहस्य को जानकर ही इस लोक से विदा होता है।”
ऋषि याज्ञवल्क्य के द्वारा अब तक अपने अपनी सर्वश्रेष्ठता और उत्कृष्टता को इस प्रकार प्रस्तुत कर दिया गया था कि सारा दरबार और राजा जनक सहित सारे ऋषिगण उनकी सर्वोत्कृष्टता को स्वीकार कर चुके थे । जिसे देखकर गार्गी भीअत्यंत हर्षित हो रही थीं। अब वह ऋषि याज्ञवल्क्य को अपने प्रश्नों से और अधिक उग्र या उत्तेजित करना नहीं चाहती थीं । फलस्वरूप गार्गी ने अपने प्रश्नों को समेटते हुए महाराज जनक की राजसभा में याज्ञवल्क्य को परम ब्रह्मज्ञानी मान लिया। इतने तीखे प्रश्न पूछने के उपरांत गार्गी ने जिस तरह याज्ञवल्क्य की प्रशंसा कर अपनी बात समाप्त की तो उसने वाचक्नवी होने का एक और गुण भी दिखा दिया कि उसमें अहंकार का लेशमात्र भी नहीं था। गार्गी ने याज्ञवल्क्य को प्रणाम किया और सभा से विदा ली।
याज्ञवल्क्य विजेता थे- गायों का धन अब उनका था। याज्ञवल्क्य ने नम्रता से राजा जनक को कहा: — ‘राजन! यह धन प्राप्त कर मेरा ‘ मोह ‘ नष्ट हुआ है। यह धन ब्रह्म का है और ब्रह्म के उपयोग में लाया जाए , यह मेरी विनम्र विनती है। इस प्रकार राजा जनक की सभा के द्वारा सभी ज्ञानियों को एक महान पाठ और श्रेष्ठ विचारों की प्राप्ति हुई।’
महर्षि याज्ञवल्क्य का ज्ञान गांभीर्य ‘वृहदारण्यक उपनिषद’ में देखने को मिलता है। उस उपनिषद में वह कहीं राजा जनक के साथ गहरी ज्ञान चर्चा में लीन हैं तो कहीं अपनी धर्मपत्नी मैत्रेयी को ब्रह्म ज्ञान का उपदेश देते हुए दिखाई देते हैं। राजा जनक महर्षि याज्ञवल्क्य की विद्वत्ता के प्रति बहुत अधिक श्रद्धाभाव रखते थे। एक बार तो वह अपना सारा राजपाट उनके श्री चरणों में रखने तक के लिए तैयार हो गए थे।
अज्ञानी लोगों ने ऋषियों के प्रति राजा की इस प्रकार की समर्पण भावना को उपहास के दृष्टिकोण से देखा है। उन्होंने इसे उनका कोरा अज्ञान माना है। परंतु सच यह है कि यह हमारे राजाओं का अज्ञान न होकर ज्ञानी और तपस्वी लोगों के प्रति उनकी समर्पण की भावना का प्रतीक है। हमारे राजा भी पूर्ण विवेकी और ज्ञानी होते थे। जब वह अपने से अधिक ऊंचे तपस्वी किसी ऋषि साधक को देखते थे तो वह भावविभोर होकर यह नहीं समझ पाते थे कि वह उन्हें क्या अर्पित कर दें? तब उन्हें यही उचित लगता था कि जो भी कुछ उनके पास है, उसे ही ऐसे तपस्वी, ज्ञानी साधक के श्री चरणों में समर्पित कर दें।
हमने यहां पर महर्षि याज्ञवल्क्य के ज्ञान की गंभीरता की बानगी मात्र प्रस्तुत की है। जिसने उपनिषद और शतपथ ब्राह्मण, याज्ञवल्क्य स्मृति जैसे कई ग्रंथों की रचना की हो, उसकी विद्वत्ता को छोटे से आलेख में समाविष्ट करना संभव नहीं।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने भुज्यु नामक ऋषि को उसके प्रश्न के उत्तर में यह भी बताया था कि सूर्य के रथ की गति से एक दिन में जितना भाग नापा जाए उससे 32 गुणा इस लोक का विस्तार है। उस से दोगुने क्षेत्र को पृथ्वी गिरे हुए है। पृथ्वी को उससे भी दोगुने विस्तार का समुद्र घेरे हुए है। जितनी बारीक छुरे की धार होती है अथवा मक्खी का पंख जितना सूक्ष्म होता है, उतना ही इन अंडकपालों के बीच के आकाश का व्यवधान है।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने यहां बहुत ही पते की बात कही है। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि पृथ्वी से दोगुना समुद्र है। इसका अभिप्राय हुआ कि हमारे पूर्वजों को पश्चिम के तथाकथित वैज्ञानिकों की खोजों से युगों पूर्व इस तथ्य का ज्ञान था कि पृथ्वी और समुद्र का अनुपात क्या है?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत