गांधीवाद की परिकल्पना-6
(पाठकवृन्द! इससे पूर्व इस लेखमाला के आप 5 खण्ड पढ़ चुके हैं, त्रुटिवश उन लेखमालाओं पर क्रम संख्या नहीं डाली गयी थी। इस 6वीं लेखमाला का अंक आपके कर कमलों में सादर समर्पित है।)
गांधीजी की सिद्घांत के प्रति यह मतान्धता थी, जिद थी, और उदारता की अति थी। लोकतंत्र उदारता का समर्थक तो है किंतु इतना नहीं कि अत्याचारी निरंकुश होकर भद्र पुरूषों का संहार करता रहे और शासक ‘नीरो वाली बांसुरी’ बजाता रहे। अत्याचारी के विरूद्घ दण्ड का समर्थक लोकतंत्र भी है। गांधीजी इस तथ्य को जान-बूझ कर ओझल कर रहे थे।
गांधीजी नये परीक्षण कर रहे थे-भारतीय लोकतंत्र पर और उन्हें स्थापित कराकर। नई परम्पराओं को जन्म देना लोकतंत्र का प्रवाह होता है-जिससे कि हम अपनी बात को दूसरों पर थोपें नहीं, अपितु दूसरों को भी अपने मत को व्यक्त करने का भरपूर अवसर उपलब्ध करायें। विरोधी भी हमारे विचार पर अपनी आलोचनात्मक व्याख्या कर सकें-यह सिद्घांत लोकतंत्र की आत्मा है। गांधीजी इस आत्मा के घोर विरोधी थे।
डा. पट्टाभिसीतारमैया की हार को उन्होंने व्यक्तिगत हार माना था। लोकतांत्रिक भावनाओं का सम्मान करने की थोड़ी सी भी रूचि यदि गांधीजी में होती तो वे स्वयं और नेहरू जी सरीखे सभी कांग्रेसी नेता सुभाषचंद्र बोस जी की अध्यक्षता के अंतर्गत काम करने में उसी प्रकार लग जाते जिस प्रकार सुभाष ने उनके नेतृत्व में कार्य किया था। लेकिन इन्होंने वे परिस्थितियां उत्पन्न कीं कि सुभाष बाबू का कांग्रेस में दम घुटने लगा और उन्होंने कांग्रेस की अध्यक्षता सहित कांग्रेस को ही छोड़ दिया।
यह स्थिति लोकतंत्र की हत्या थी, जिसके लिए केवल गांधीजी ही उत्तरदायी थे। गांधीजी को सर्वप्रथम महात्मा की उपाधि सुप्रसिद्घ आर्यसमाजी नेता ‘स्वामी श्रद्घानंद’ जी ने प्रदान की थी। स्वामी जी के कांग्रेस से निकलने की घटना भी कम रोचक नहीं है।
गांधीजी के कारण ही स्वामी श्रद्घानंद जी ने कांग्रेस छोड़ी
स्वामी श्रद्घानंद जी गांधीजी की मुस्लिम परस्ती से बहुत दु:खी रहते थे। देखिये उन्होंने लिखा था कि-
”जब सिद्घांत का प्रश्न होता था, तब गांधीजी हिंदुओं की भावनाओं का रंचमात्र भी ध्यान रखे बिना अत्यंत दृढ़ रहते थे, परंतु मुसलमान यदि उसी सिद्घांत का उल्लंघन करें, तो वह बहुत नरमी बरतते थे। मुझे यह बात किसी तरह समझ नहीं आती थी कि अपने देश में करोड़ों लोगों को अपनी नग्नता ढांपने के साधन (कपड़ों) से वंचित करने और उन्हीं कपड़ों को एक दूरस्थ देश तुर्की भेज देने में गांधीजी की ऐसी कौन सी नैतिकता थी?”
‘खिलाफत आंदोलन’ के समय भारत से तुर्की भेजे जाने वाले कपड़ों की ओर स्वामी जी का यह संकेत था। गांधीजी ने ‘चौरी-चौरा काण्ड’ के पश्चात सत्याग्रह बंद कर दिया था, इसके पश्चात 24-25 फरवरी सन 1922 ई. को दिल्ली में कांग्रेस महासमिति की एक गरमागरम बैठक हुई। इस बैठक में स्वामी श्रद्घानंद जी ने निम्नलिखित संशोधन रखना चाहा-
”अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति यह निश्चित करती है कि कांग्रेस संगठन से बाहर के किसी भी व्यक्ति द्वारा की गयी हिंसा के लिए कांग्रेस उत्तरदायी नहीं होगी। यदि कांग्रेस का कोई सदस्य व्यक्तिगत रूप से हिंसा का दोषी पाया जाएगा तो उसे कांग्रेस की समितियों से और संगठन से बाहर निकाल दिया जाएगा यदि यह संशोधन अस्वीकार कर दिया जाता है तो मेरा यह प्रस्ताव है कि व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों की प्रकार का ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ अभी न किया जाए।”
गांधीजी इस प्रकार के संशोधन को समिति में प्रस्तुत करने के विरूद्घ थे। तब स्वामी श्रद्घानंद ने अपनी कडक़ड़ाती हुई आवाज में कहा था कि-”महात्मा जी, अन्तर्रात्मा आपकी अकेले की ही संपत्ति नहीं है। मेरी भी अन्तरात्मा है और यदि मैं अपने पक्ष में अकेला ही रह जाऊं और अन्य सब लोग मेरे विरोधी हो जाएं, और तब भी अपनी बात पर डटा रहूं तो मैं केवल आपका अनुसरण कर रहा होऊंगा।”
तानाशाह गांधीजी पर फिर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंत में स्वामी जी ने अपना प्रस्ताव संशोधन वापस ले लिया। किंतु गांधीजी की हठधर्मिता के कारण कांग्रेस से भी सदैव के लिए नाता तोड़ लिया। इस प्रकार गांधीजी के छद्म लोकतंत्र प्रेम के कारण कई महान नेता कांग्रेस से किनारा कर गये। वास्तव में गांधीजी का स्वभाव कुछ ऐसा था जो स्वयं को संविधानेत्तर मानने वाला था। उनके रहते कांग्रेस के अध्यक्ष की स्थिति ‘रबर स्टांप’ की सी हुआ करती थी। गांधीवादियों ने यही परम्परा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी जारी रखी।
नेहरू और इंदिरा गांधी जी ने यदि कभी किसी अन्य को कांग्रेस की अध्यक्षता सौंपी तो उसे प्रभाव शून्य बनाकर रखा। आज भी डा. मनमोहन सिंह की सरकार को इसी शैली में गांधीवाद की ध्वजवाहिका बनी श्रीमती सोनिया गांधी चला रही हैं। गांधीवाद का यह गुण आज भी अधिनायकवाद के रूप में जीवित है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)