राहुल गांधी के प्रति हमारी सहानुभूति है। वह एक सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के सबसे अधिक अनुभवहीन नेता है। उन्होंने राजनीति में अपना पर्दापण अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के एक विधेयक के कागजों को सार्वजनिक रूप से फाडक़र अपनी जग हंसाई करते हुए किया था। तब देश के लोग ही नहीं अपितु कांग्रेसी भी दंग रह गये थे कि उनके नेता ने यह क्या कर दिखाया ? यद्यपि उनके इस कार्य से उनके राजनीतिक विरोधियों को अवश्य प्रसन्नता हुई होगी। क्योंकि उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को अपने आगे बढऩे का संकेत दे दिया था कि वह ‘चक्रव्यूह’ को किस रणनीति के अंतर्गत तोडऩे जा रहे हैं? उन्हें उनके राजनीतिक विरोधियों ने राजनीति के पहले द्वार पर ही घेर लिया और तब से वह पहले द्वार से आगे नहीं बढ़ पाये हैं। उनकी राजनीति की यह सबसे बड़ी विडंबना है।
राहुल गांधी को कांग्रेस की जिस विरासत को संभालने का अवसर मिला है उसके दो पक्ष हैं। एक पक्ष तो है नेहरू इंदिरा और राजीव की कांग्रेस का और दूसरा पक्ष है सोनिया की कांग्रेस का। नेहरू, इंदिरा व राजीव की कांग्रेस कांग्रेसियों की दृष्टि में भारत की राजनीति का एक वटवृक्ष थी और उसका कोई सामना नहीं कर सकता था। उस कांग्रेस को समझने के लिए बड़े विवेकशील और बुद्घिमान राजनीतिक नेतृत्व की आवश्यकता है। उसने देश पर शासन किया तो जेएनयू जैसी संस्थाएं भी खड़ी कीं, जिनमें नये कांग्रेसी पैदा करने का कारखाना स्थापित किया गया। यह कुछ-कुछ वैसा ही था जैसा कि रूस और चीन जैसे कम्युनिस्ट देशों में एक विचारधारा को ही आगे बढ़ाने के लिए विद्यालयों में छात्रों को उसी में ढालने की पूरी योजना तैयार की जाती थी या की जाती है। राहुल गांधी के पूर्ववर्ती उनके परिजनों ने बड़ी सावधानी से एक ऐसी व्यवस्था तैयार कर दी थी कि जिसमें जो भी छात्र आता वह कांग्रेसी ही बनकर निकलता। अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए कांग्रेसी नेतृत्व ने विद्यालयों का पाठयक्रम भी अपने अनुकूल तैयार किया और एक परिवार को इस प्रकार उसमें सम्मिलित किया कि पीएचडी कर रहे छात्र छात्राओं को भी उस परिवार से अलग अपना विषय मिलना कठिन हो गया। यह पूरा एक षडय़ंत्र था पर कांग्रेसियों की दृष्टि में यह अपने किले का सुदृढ़ीकरण था। जिसे तोडऩा हर किसी के लिए संभव नहीं था। इस किले की दीवारों की बुर्जियों पर महात्मा गांधी, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री और डा. अंबेडकर की मूत्र्तियां भी लगी थीं पर उनकी चमक फीकी थी-नेहरू और इंदिरा या राजीव की मूत्र्तियों के सामने।
सोनिया गांधी ने जब इस कांग्रेस की कमान संभाली तो उनके किले में गठबंधन की सेंध लग चुकी थी। गठबंधन में फंसी कांग्रेस के साथी उसकी दुर्बलताओं को समझ गये और उसके साथ रहकर ही उसे भीतर से खाने लगे। कांग्रेस की सोनिया गांधी को पता ही नही चला कि उसके भीतर से विचारधारा के नाम पर कितने ‘शिवाजी’ मिठाई की टोकरियों में बैठकर बाहर निकल चुके हैं? लोग सोनिया के किले की दुर्बलताओं को पढ़ते गये और कांग्रेस को छोड़ते गये। वास्तव में कांग्रेस के लिए गठबंधन के स्थान पर उस समय पुन: अपनी शक्ति का संचयीकरण करने का काल था, जब वह यूपीए का आवरण ओढक़र झूठी कांग्रेस बनकर देश पर शासन करने के मोह को रोक नहीं पायी थी। यदि उस समय कांग्रेस सडक़ों पर उतरकर अपना सांगठनिक ढांचा मजबूत करने पर ध्यान देती तो जिस दुर्दशा को वह आज प्राप्त कर चुकी है उसे कदापि प्राप्त नही करती।
राहुल गांधी ने इसी सोनिया की कांग्रेस को विरासत में लिया है। वह कांग्रेस के नहीं अपितु सत्ताभोगी और सुविधाभोगी यूपीए के एक घटक दल के नेता हैं। घटक में कभी पूर्णता नही होती है वह अपूर्ण होता है, संकीर्ण होता है और लंगड़ा लूला होता है उसे चलने और संभलने के लिए किसी के सहारे और आसरे की आवश्यकता होती है। नेहरू इंदिरा और राजीव की कांग्रेस किसी का सहारा और आसरा बनती थी पर सोनिया की कांग्रेस किसी का सहारा और आसरा ढूंढ़ रही थी।
राहुल गांधी को जब सोनिया की कांग्रेस मिली तो इस युवा नेता ने नेहरू, इंदिरा और राजीव को भुलाकर सोनिया की सहारा और आसरा ढूढऩे वाली कांग्रेस का सुविधाभोगी और सत्ताभोगी रास्ता पकडऩे का मन बनाया। जिसमें वह असफल होते जा रहे हैं। उन्होंने यूपी में अखिलेश का साथ लिया और मुंह की खायी और इसी प्रकार दूसरे प्रांतों में भी वह अखिलेश ढूंढ़ते रहे हैं। पर वह सफल नहीं हो पा रहे हैं।
इधर मोदी ने कांग्रेस के किले में सेंधमारी की और उन्होंने महात्मा गांधी, सरदार पटेल, डा. अंबेडकर, लालबहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को सार्वजनिक रूप से चोरी कर लिया और असहाय कांग्रेस चोरी को चोरी भी नहीं कह पायी। यह उसकी दुर्बलता का ही प्रमाण था।
यदि राहुल गांधी यूपीए के एक घटक कांग्रेस की कमान संभालने के व्यामोह से बाहर निकलते तो आज कांग्रेस की स्थिति और ही होती। सोनिया गांधी 2014 से ही राहुल को पार्टी की कमान सौंपने की तैयारी कर रही हैं। वह किसी उचित अवसर की प्रतीक्षा में हैं। यदि राहुल यूपी में सफल हो गये होते तो वह उचित अवसर बीते मार्च में भी आ सकता था। पर वह अवसर आया नहीं। सोनिया यह जानती हैं कि यदि ऐसी परिस्थितियों में राहुल की ताजपोशी की गयी तो कांग्रेस में विद्रोह भी हो सकता है। कारण कि कांग्रेस के सांसदों का बड़ा वर्ग राहुल को अपना नेता नही मानता है। उन्हें 2019 का चुनाव निकट दीख रहा है और उसमें कांग्रेस डूबती दिखायी दे रही है। सचमुच कांग्रेस निराशा और हताशा के दौर में फंस चुकी है। राहुल उसे इससे निकाल नहीं पा रहे हैं और यही स्थिति कांग्रेसियों और सोनिया के लिए दुखदायी है। अब तो राहुल को यह भी नही सूझ रहा कि वह मोदी पर कौन सा वार करें उन्हें डर है कि अगली लोकसभा में ‘खडग़े की खडग़’ तो साथ छोड़ेगी ही कहीं ऐसा न हो कि जनता उनका हाथ भी छोड़ दे तब क्या होगा-यही डर है जो अब राहुल गांधी को सता रहा है।